Tuesday, December 9, 2014

एक कविता - अनाम सी


जाड़े के मौसम की विदाई हो रही थी ,
वसंत चुपके-चुपके पाँव पसार रहा था ,
सुबह के वसंती बयार में ,
एक दिन ,
मैंने भी घूमने का मन बनाया ,
निकल पड़ा तड़के ,
खूब सवेरे।
सूरज नहीं निकला था ,
पर ,
रोज सवेरे घूमने के शौक़ीन
सड़क पर निकल पड़े थे ,
इक्का -दुक्का ही सही ,
कोई जॉगिंग कर रहा था ,
कोई दौड़ लगा रहा था ,तो ,
कोई आराम से
टहल रहा था.…
मैंने देखा-
अलग-अलग बच्चों की टोलियाँ ,
जिनमें कुछ लड़के थे ,
कुछ लड़कियां भी ,
सभी के हाथ में मैला सा ,
एक,एक थैला था ,
सभी ,अलग-अलग दल में ,
कूड़े के ढ़ेर में धँसे पड़े थे ,
मानो ,उस में से हीरा ढूंढ रहे हों।
आगे बढ़ा ,
देखा-कुछ बूढ़ी औरतें
सड़क किनारे बोरी बिछा कर बैठ गईं हैं ,
आते-जाते राही से
भीख में कुछ पा जाने की जुगत में ,
जो कोई भी सामने से गुजरता है ,
दुआ देती है ,ढेरों ,
पर ,शायद ही कोई
उसकी झुर्री पड़े चेहरे को देखता हो ,
शायद ही कोई
उसकी काँपती कमजोर हथेलियों  पर
"एक" का सिक्का रख जाता हो।
कुछ और आगे बढ़ा
एक औरत ,
अपने तीन-चार बच्चों के साथ
जिनमें से एक उसकी गोद में है ,
एक उसके कंधे पर ,
एक-एक उसके बाएँ और दाएँ
हाथ की ऊँगलियाँ थामे
आवाज लगाती
बढ़ रही है -" कोई तो दया करो ",
उसका चेहरा देख कर लगता है ,
उसे "पीलीया" है
"अनीमिया "तो होगा ही ,
न उसके तन पर पूरे कपड़े थे ,
न उसके बच्चों के तन पर ,
और जो थे ,मैले-कुचैले थे ,
सिर के बाल उलझे और अस्त-व्यस्त ,
फटे कुर्ती से झांकता
उसका जोबन ,मानो
इन्सानियत का मुँह चिढ़ाता हुआ।
मैं कुछ और आगे बढ़ा ,
अब कुछ-कुछ सुबह होने लगी थी ,
सड़क किनारे
एक-दो चाय की दुकान खुल गई थी ,
बहार बेंच लगा था ,
कुछ लोग बेंच पर बैठे थे ,
चूल्हे पर चाय उबाल रही थी ,
जिसकी खुशबू हवा में तैर रही थी ,
आठ-नौ साल का एक लड़का ,
जिसकी आँखों में
नींद अब भी मचल रही थी  ,
बेंच पर बैठे लोगों को,
चाय का ग्लास थमा रहा था ,तो ,
किसी को बिस्कुट का प्लेट।
लड़का बिस्कुट के प्लेट को ,
ललचाई नजर से देख रहा था ,
चाय की जूठी ग्लास और प्लेट उठा कर ,
वह दुकान के बाहर किनारे बैठ कर
धोने लगता है ,देखता है -
किसी ने प्लेट में बिस्कुट छोड़ दिया है ,
लड़का ,मालिक की आँख बचा कर
बिस्कुट मुँह में गड़प कर जाता है।
मेरा मन कहीं दूर उड़ चलता है ,
मैं और आगे बढ़ता हूँ।
अब यह रास्ता,
सीधे सरकारी अस्पताल की ओर जाता है
इसके आगे घंटा घर की ओर ,
फिर आगे,,,,,,,,
तभी देखता हूँ
अस्पताल के बाहर गेट पर
लोगों की भीड़ लगी है ,
कुतूहलबस ,
मैं भी भीड़ के पास खड़ा होता हूँ ,
ज्ञात हुआ -एक औरत ,
आधी रात को अस्पताल आई थी ,
उसके पेट में बहुत दर्द था ,
बच्चा होने वाला था ,
डॉक्टर ने उसे
अस्पताल में भर्ती नहीं किया ,
औरत अस्पताल के बहार गेट पर
तड़पती रही ,रात भर ,
और अंत में ,
उसने सड़क पर ही
बच्चे को जन्म दे दिया है।
मेरा ध्यान कुछ दिन पहले
अखबार में छपे ,
एक समाचार पर जाता है ,
पहाड़ के गाँव से एक गर्भवती औरत
एक अस्पताल गई ,
वहाँ से उसे दूसरे ,फिर वहाँ से तीसरे  ……
आवागमन का साधन
केवल चारपाई की खटोली ,जो
चार लोग ढ़ो रहे थे ,
औरत ने रास्ते में ही
बच्चे को जन्म दे दिया ,
आस-पास के गाँव की औरतों ने
उसे संभाला ..... …
तभी सायरन की आवाज से
मेरा ध्यान भंग हो जाता है,
पुलिस आ गई थी ,शायद,
किसी ने पुलिस को फोन किया हो ,
मैं वहाँ से घर की ओर चल पड़ा
सोचता हुआ -
कहाँ है शिक्षा का अधिकार ,
कहाँ है भोजन का अधिकार ,
कहाँ है स्वास्थ्य का फ़लसफ़ा ,
कहाँ है बाल-श्रम क़ानून ,
कहाँ है जननी-सुरक्षा योजना ,
कहाँ है ,कहाँ है ,कहाँ है......

            -----   ( प्रकाशित )

आज भी

कौन कहता है -
युग बदल गया है ?
नाम बदल जाने से
न युग बदलता , न युग का धर्म ,
इतिहास के पन्नों का सच
आज भी जीवित है।
साँप फुफकारना नहीं छोड़ता ,
नीच, नीचता नहीं छोड़ता ,
हिंस्र पशु ,हिंसा नहीं छोड़ता ,
साधु ,साधुता नहीं छोड़ता ,
वही आसमां ,वही  सूरज ,
वही चाँद ,वही सितारे ,
सब कुछ तो है
वैसे ही।

आज भी  ' यशोधरा ' सोती है
' सिद्धार्थ ' को बाहों में भींच कर ।
आज भी  ' सिद्धार्थ '
' यशोधरा ' की बाँहों  से फिसल जाता है ,
किन्तु,वह न तो  ' बुद्ध ' बन पाया है ,
न ही मनुष्य।
आज का आदमी ,
बस , भटकता हुआ घूम रहा है ,
इधर-उधर ,
शान्ति की तलाश में  …… ।

आज भी  ' कुंती ' जीवित है ,
जो अजन्मे बच्चे को
मार देती है 'कोख ' में,
या फिर ,
जन्म लेते ही ,
पोटली में लपेट कर ,
फेंक आती है
कूड़े के ढेर पर ,
या फिर
किसी कँटीली झाड़ी में ,
उसके अपने भाग्य पर  ....... ।
           
हर रोज ही ,
' महाभारत ' होता है ,
घर के अन्दर ,
घर के बाहर ,
विद्या के मंदिर में ,
खेल के मैदान में ,
कार्यालय में ,
राजनीति के गलियारों में ,
और अपने ' मन ' में भी।

आज भी ' द्रोणाचार्य '
छल से
काट ले रहे हैं
' एकलव्य ' का अँगूठा।
आज भी
' अभिमन्यु ' घेर लिया जाता है
' कौरवों ' की सेना द्वारा।
                
' दुर्योधन  ' आज भी जीवित है ,
मरा नहीं है ,
' रक्तबीज ' की तरह
वह सम्पूर्ण पृथ्वी पर
छा रहा है।
आज भी , ' द्रौपदी '
भरे बाजार ,
विवस्त्र की जाती है ,
आज भी नारियों की  'अस्मिता '
दाँव पर लगी है।
' भीष्म ' विवेकशून्य हो गए हैं ,
महाराज  ' धृतराष्ट्र 'की आँखों पर
आज भी पट्टी पड़ी है।
महारानी  ' गांधारी ' ,
पुत्र विमोह में आसक्त
' उचित '- ' अनुचित ' का भेद
करना नहीं चाहती  ....... ।

' राम '  आज भी
वन-वन भटक रहा है।
' रावण ' आज भी
अट्टहास कर रहा है ।
आज भी
' सीता ' छली जा रही है ,
आज भी
अनगिन अग्नि परीक्षाएं
उसका इम्तिहान ले रही हैं।
आज का  ' राम '  विवश है ,
' लक्ष्मण ' के तूणीर में
तीर नहीं है ,
धनुष शांत पड़े हैं।

कौन होगा
युग-परिवर्तक ?
कौन बदलेगा इतिहास ?
कौन मेटेगा
इतिहास के पन्नों पर ,
उकेरे हुए,
त्रसित चेहरों के  ' अक्षर ' ?
कौन समेटेगा
जनमानस की आँखों में उठती ,
वितृष्णा और क्रोध की लहर ?
आखिर कौन ?
कौन ? कौन ? कौन ?

  (  नोट : - कोलकाता से प्रकाशित मासिक पत्रिका  " वागर्थ " दिसम्बर 2916 में यह कविता प्रकाशित हुई है  )

जाने कब तिलस्म टूटेगा ?

 जाने कब तिलस्म टूटेगा  ?
कब सपनों का महल बनेगा ?
कब मन की पीड़ा टूटेगी ?
मौन न जाने कब बोलेगा ?

इन्तजार में बीती घड़ियाँ ,
ढर -ढर , ढरके मोती लड़ियाँ।
धूप छिपी घर के पिछवाड़े ,
दौड़ के आयेंगे अँधियारे।
मन भी दूर चला जायेगा  ,
चल कर दूर भटक जायेगा .
जाने कब तिलस्म टूटेगा ?
कब सपनों का महल बनेगा ?

मौन हुई हैं सभी दिशायें ,
धूमिल सी हैं सब आशायें।
बस केवल झींगूर  स्वर है ,
मन के अन्दर ही खंजर है।
सन्नाटा भी नहीं बोलता ,
कैसे सन्नाटा टूटेगा ?
जाने कब तिलस्म टूटेगा ?
कब सपनों का महल बनेगा ?

अरे मनुज ! क्या सोच रहा है ?
प्रात क्षितिज रवि डोल  रहा है।
अँधियारा कब तक ठहरा है ,
यह भी दूर चला जायेगा।
मन की गाँठें खोल के रखना ,
देखो सूरज आ जायेगा।
शायद , तब तिलस्म टूटेगा ,
तब सपनों का महल बनेगा।


Saturday, November 8, 2014

दरिया है तू














दरिया है तू , मैं नदी का किनारा ,
तू मौजों की धारा , मैं तेरा सहारा।

बाहों में मेरी सिमट कर बहो तुम ,
अतल,दिल की गहराइयों में बसो तुम।

 
धवल चाँदनी भी तुम्हे दुलराये ,
अँधेरे तुम्हें थपकियाँ दे सुलाये।

लहरों के सपने तुम्हें गुदगुदाए ,
हवायें तुझे प्यारी लोरी सुनायें।

हुई जो सुबह ,जागी सूरज की किरणें ,
बड़े भाव से तुम लगी फिर से बहने।

पतवार ने छू लिया गोरे तन को ,
बल खा के , हँस कर लगी तुम मचलने  ।

दरिया है तू ,मैं नदी का किनारा ,
तू मौजों की धारा ,मैं तेरा सहारा।

Friday, October 31, 2014

एक ग़ज़ल


ज़िन्दगी  कितनी आज सस्ती है ,
क़ातिलों की  जहाँ पे बस्ती है ,
ख़ौफ़ भी इनसे हैं डरा करते ,
मौत की रूह काँप जाती है।

ऱोज बनते हैं ,तोड़े जाते हैं ,
घऱ अमीरों के ऐसे होते हैं ,
न पूछ हाल मुफ़लिसों का,
खुले आसमां में सोते हैं।

घऱ चिराग़ों  रौशनी पाते ,
घऱ के आँगन इन्हीं से हैं छाजते ,
रखना महफूज़ बद्हवाओं से ,
घर चिराग़ों से भी जला करते।

गो कि वे अपने ही पड़ोसी हैं ,
बंद अपने दरों में रहते हैं ,
यूँ भी ख़ामोश ना रहा कीजै ,
वक़्त की ये बड़ी ज़रूरत है।


 

Tuesday, October 28, 2014

इस धरा पर एक नई गंगा निकालनी चाहिए।



हो गई शापित धरा , परित्राण होना चाहिए  ,
इस धरा पर एक नई गंगा निकालनी चाहिए। 

हर त्रषित जन -जन का अब कल्याण होना चाहिए ,
रुष्ट शिव की ही कृपा फिर इस धरा पर चाहिए। 

पाप क्या है ,पुण्य क्या है ,मैं नहीं कुछ जानता ,
वक्त के  हाथों रहा हूँ, जिन्दगी भर नाचता।

जो सदा से ही रहा है , प्यार सबको बाँटता ,
आज फिर इस भोले शिव का, प्यार सबको चाहिए। 

इस धरा पर एक नई गंगा निकालनी चाहिए। 

हो गईं नदियाँ अपावन , भक्ष कर अभक्ष्य का ,
पतित-पावनी एक सलिला, हम को फिर से चाहिए।

अवतरित कर ला सके ,शिव की जटा से गंग जो ,
ऐसे भागीरथ का ,फिर ,अवतार  होना चाहिए।

त्राण सबका कर सके जो ,त्रास सबका हर सके ,
मोक्ष सबको दे सके जो , गंगा जल वो चाहिए।

कर सकूँ जो वक्त को ,वश में, वो शक्ति चाहिए ,
हे जटाधर मुझको तो, वरदान ऐसा चाहिए।

इस धरा पर एक नई गंगा निकालनी चाहिए। 
 


            --- ( प्रकाशित )

Sunday, October 19, 2014

मुझको गुब्बारे दिलवा दो

माँ ! आया गुब्बारे वाला ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो ,
लाल , हरे कुछ नीले ,पीले ,
उनमें से बस एक दिला दो ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो।

मेले में हैं बहुत सी चीजें ,
पर सब कुछ तो नहीं चाहिए ,
बेच रहा वह हवा मिठाई ,
सस्ती है वह मुझे दिला दो ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो।

नहीं और कुछ मुझे चाहिए ,
गुड्डा- गुड़िया नहीं चाहिए ,
चाहे मुझसे कसम ही ले लो ,
बस दोनों चीजें दिलवा दो ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो।

घर भी पैदल चला जाऊँगा ,
गोद  में तेरी नहीं चढूँगा ,
नहीं तंग मैं तुझे करूँगा ,
बस मेरी विनती तुम सुन लो ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो।

(   मासिक पत्रिका  " युगवाणी  " , देहरादून  माह दिसम्बर  के अंक में प्रकाशित हुई है   )

Friday, October 17, 2014

दूर देश हम कहाँ जायेंगे


















एक चिड़ी ने कहा चिड़े से ,
दूर देश हम कहाँ जायेंगे   ,
इस जीवन की भाग- दौड़ से ,
अच्छा है हम  मिट जायेंगे।

सारे जंगल काट दिये हैं ,
नीड़-बसेरे कहाँ बनेंगे ,
कंकड़ - पत्थर के महल खड़े हैं ,
बोलो  बच्चे कहाँ जनेंगे ।

शीत -ताप , आँधी -झक्खर से ,
हम सब कैसे यहाँ बचेंगे ,
मँहगाई में लोग पिस रहे ,
दाने हमको कहाँ मिलेंगे।

ताल-तलैये सूख जायेंगे ,
नदियों में जल नहीं रहेँगे ,
ख़ुश्क हलक की प्यास बुझाने ,
नीर कहाँ से हमें मिलेंगे ।

यहाँ तो गिद्धों की बस्ती है ,
निर्बल का कुछ काम नहीं है ,
नोच-नोच कर जो खायेंगे ,
वही यहाँ के सिद्ध बनेंगे।

         ----- ( प्रकाशित )

Saturday, October 11, 2014

मेरे आँगन पेड़ आम का
















अहो ! आज फिर दिख गई ,
गोरैया मेरी मुँडेर पर ,
कुछ कोमल पत्ते दिखे ,
कटे आम के पेड़ पर।

मेरे आँगन पेड़ आम का ,
भारी और गरबीला था ,
फल भी उसमें बहुत थे लगते ,
हर फल बहुत रसीला था।

तोता , मैना और गिलहरी ,
सबका यहीं बसेरा था ,
नए-नये नन्हे पंछी का ,
इसमें स्थायी डेरा था।

रोज सबेरे सब मिलते थे ,
मिलकर खुशी मनाते थे ,
अपने मीठे कलरव से ,
आँगन में खुशियाँ भरते थे।

नित दिन ही , पत्नि भी मेरी ,
उनको दाने देती थीं  ,
दाने चुगते देख उन्हें , वह ,
मन  ही मन खुश होती थीं।

एक दिवस ऐसा भी आया ,
पड़े काटने आम के पेड़ ,
चुपके-चुपके मैं भी रोया ,
देख गिरे अण्डों के ढेर।

हुई गिलहरी गुमसुम-गुमसुम ,
पंछी सब भी हुए हताश   ,
देख उजड़ते उनके घर को ,
मैं भी संग-संग हुआ उदास।

नहीं दिखी फिर कोई गिलहरी ,
न पंछी ही कोई दिखे ,
सूरज ने अपनी गरमी के ,
आँगन में इतिहास लिखे।

घर के छत ,छप्पर और छाजन ,
सब के सब ही लाल हुए ,
राहत थी जब पेड़ यहाँ थे ,
गर्मी से बेहाल हुए।

यही सोचते रहे थे हम सब ,
कोपल इसमें नये खिलें ,
फिर से इसमें फल लग जायें ,
पंछी फिर से आन बसें।

आज दिखे जब कोमल पत्ते ,
मन में मेरे हुआ हुलास  ,
फिर आयेंगे तोता, मैना ,
संग गिलहरी की है आश ।

आज दिखी जब मुझे गिलहरी ,
मन में यह विश्वास जगा ,
पेड़ हमें देते हैं जीवन ,
हर आँगन इक पेड़ लगा।


              -------    ( प्रकाशित )

Saturday, September 27, 2014

मैं हूँ मृदुल नदी की धारा

मैं हूँ मृदुल नदी की धारा ,
तू पर्वत का पत्थर ठहरा ,
सदा उमग में चूर रहे तुम ,
संवेदन से दूर रहे तुम।

पर जब छोड़ चले जाओगे ,
मुझको याद बहुत आओगे ,
नहीं सामने पाकर मुझको ,
तुम भी मुझ को याद करोगे।

जाने कितनी बेर लड़े हैं ,
फिर भी  हम में मेल रहे हैं ,
जीवन के ऊबट से पथ पर,
हम तुम दोनों साथ रहे हैं।

हम थे ईंट , कहाँ के रोड़ा ,
तुम थे पत्थर निपट ही पोढ़ा ,
पत्थर से भी क्या टकराना ,
यही सोच कर हार था माना।

रही शिकायत अगर कोई तो ,
मन में ही सब गोय लिया ।
मिलन की खुशियाँ कम न होवे ,
मन के मैल को धोय लिया ।

जीवन पथ पर कितने काँटे ,
आओ मिल कर इन्हें हटायें ,
फूल ख़ुशी के मिल कर बाँटे ,
इन खुशियों से मन महकायें।

बड़े-बड़े दुःख को भूलो तुम ,
छोटी-छोटी ख़ुशी संजो लो ,
जीवन कितना मधुर सरस है ,
जीवन को जी भर कर जी लो।




Friday, September 26, 2014

कोयल क्यों काली हुई ?

पाकर इतनी मीठी बोली ,
कोयल क्यों काली हुई  ?
कुहू-कुहू का रट क्यों करती ,
किसकी मतवाली हुई  ?
कूज , कूज कर शोर हो करती ,
क्यों कर तुम वातुल हुई  ?
आम्र-कुञ्ज में छिपती फिरती ,
क्यों लाजो वाली हुई 

Thursday, September 25, 2014

चिड़ियाँ प्यासी















भरी दुपहरी ,
 लू में तपती
चिड़ियाँ प्यासी ,
बहुत उदासी ,
सूरत रोनी ,
ढूंढ़ रही है पानी।

पानी कहाँ शहर में मिलता ,
यहाँ पानी पैसों से मिलता ,
बोलो चिड़ियाँ ,
कुछ तो बोलो ,
पास तुम्हारे ,
कितने पैसे ?

पिता ब्रह्म ,पिता ही पर्वत

माता धरणि सम हुई , पिता गगन से ऊँचे ,
दृढ़ और संतुलित सीख दे , सुत व सुता को सींचे।

पिता ब्रह्म ,पिता ही पर्वत , माँ शक्ति का स्रोत ,
अटल सत्य है सर्व लोक में , पिता गति के स्रोत।

पिता ने अपनी पौरुषता से , साहस का संचार किया ,
साम-दाम और दंड भेद का ,संतति को है ज्ञान दिया।

कवच, धैर्य व शौर्य - शील का , पिता ने ही है पहनाया ,
विषम काल में शांत भाव से , जीवन जीना सिखलाया।
 
माता ने ममता सिखलाया , पिता से सीखा दृढ़ता ,
उद्दम से ही भाग्य बदलता , कर्म ही भाग्य विधाता।
 
इस सुंदर सृष्टि में हमने , जीवन को साकार किया ,
नमन पिता को हम सब का है , जिसने यह उपकार किया।

Wednesday, September 17, 2014

माँ सा न कोई मिला

आँख खुली तो माँ को देखा , मुझको ईश मिला ,
ढूंढ़ा जग के कोने-कोने , माँ सा न कोई मिला।

माँ पर्वत है ,माँ ही धरनी , क्षीर का सागर माँ ,
जग यह तपता मरुस्थल है ,शीतल जल है माँ।

गोद में जिसके स्वर्ग बसा है , वह मूरत है माँ ,
चरणों में जिसके तीरथ है ,वह सूरत है माँ।

आँचल में आकाश समाया , है देवी सी माँ ,
सब गुरुओं में जो गुरुतर है ,वह है केवल माँ। 

कविता कहना ,ग़ज़ल सुनाना
















कविता कहना ,ग़ज़ल सुनाना ,
ये तो एक बहाना है ,
सच्ची-सच्ची बात है यारों ,
मिलना और मिलाना  है।

जीवन नीरस हो जाए न ,
हँसना और हँसाना है ,
दो दिन की इस बस्ती में ,
सब का एक फ़साना है।

नहीं महत्तर , नहीं लघुतर ,
भेद यहाँ नहीं माना है ,
मस्ती सब की एक यहाँ है ,
सब का एक तराना है।

चिड़ियों सा है मिल कर रहना ,
चिड़ियों सा ही गाना है ,
हमने तो बस गीत-ग़ज़ल में ,
ईश्वर को पहचाना है।


Wednesday, September 10, 2014

पर्यावरण बचाना होगा।


















ईश ने जब यह सृष्टि रची ,
जीने के साधन रच डाले ,
पर्वत-नदियाँ झरनों के संग ,
मनभावन प्रकृति रच डाले।
शुद्ध हवा में सांस ले सकें ,
हरे-भरे कानन रच डाले,
सभी स्वस्थ्य हों ,सभी सुखी हों,
नदियों में मीठे जल डाले।
उसकी इस सुन्दर सृष्टि को ,
प्रदूषित हमने कर डाले  ,
अपने-अपने स्वार्थ की खातिर ,
धरती तहस-नहस कर डाले।
तोड़ पहाड़ों की छाती को ,
द्वार मौत के हमने खोले ,
नदियों के मुख बांध-बांध कर ,
विभीषिका के पथ हैं खोले।
किया विकास  बहुत ही हमने ,
कल और कारखाने खोले ,
धुआँ भरा संसार रचा  कर
दरवाजे विनाश के खोले।
हरे-भरे पेड़ों को काट कर ,
कंकड़-महल खड़े कर डाले ,
लगी सूखने नदियाँ  हैं अब ,
सोये हैं  हो कर मतवाले।
पर्वत-राज हिमालय ने तब ,
कहर स्वर्ग पर बरपा डाले  ,
रूप बदल कर नदियों ने भी ,
जल-प्लावित जन्नत कर डाले।
हाहाकार मचा  है जग में ,
त्राहि-त्राहि हर ओर मची है ,
चीख-पुकार, रुदन-क्रंदन से ,
कोई नहीं बचाने वाले।
भीषण औ विकराल लहर ने ,
होटल-महल सभी धो डाले ,
आज प्रकृति ने छेड़-छाड़ के  ,
इसके सबक हमें दे डाले।
अब भी अगर नहीं संभले तो ,
अपनी मन की करने वाले ,
नदियाँ - धरती सूख जायेंगी ,
सूरज कुपित हैं होने वाले।

खाली न हो जाए धरती ,
हमको इसे बचाना होगा ,
जीवित रहे संतान हमारी ,
हमको पेड़ लगाना होगा।
इससे पहले , हम कुछ खोयें ,
हम को अलख जगाना होगा ,
बची रहे ये धरा हमारी ,
पर्यावरण बचाना होगा।

   -----    ( प्रकाशित )

सुगना बोलै …



सुगना बोलै दिन-रात हो रामा
सुगना बोलै  …
सोनमा के पिंजरा न सुगना के भावै ,
टक - टक, निहारै आकाश हो रामा ,
सुगना बोलै। ……
कहै महतारी , मोहे मन नहीं भावै ,
बाँधौ न सुगना के पिंजरे में रामा ,
सुगना बोलै.......
मचिया बइठल दादी कहै पूत सोनमा ,
केहू के न बंधन में बांधउ  हो रामा ,
सुगना बोलै ……।
हँसि - हँसि  कहै बहिना सुकुमारी ,
सुगना के करि देहु आजाद हो रामा ,
सुगना बोलै ………

Tuesday, August 26, 2014

फुर्सत के क्षण में


           





















                 ( 1  )
हम याद नहीं करते उनको ,              
ऐसा तो नहीं है ,                                                                                   
जाने ,क्यों ये भ्रम पाल रक्खा है ,
ऐसा तो नहीं है ,
हम दिल में उनकी याद लिए
रहते तो हैं हरदम ,
कुछ मजबूरियाँ रही होंगी ,
भूले नहीं हैं हम।
                 (  2   )
खत उनका , बड़े प्यार से
पढ़ते रहे हैं हम ,
लिखने की थी मजबूरियाँ ,
कुछ लिख सके न हम ,
शायद यही बात,
उनको दे गया हो दर्द ,
लब से छलक कर
लेखनी में ,
उतरा मन का गर्द।
              (  3   )
 रास्ते जाने कहाँ-कहाँ पे मुड़ गये ,
हर मोड़ मेरी जिन्दगी में शूल बो गए ,
पर प्रीत के ही फूल बिछाता चला गया ,
काँटों से जिन्दगी को सजाता चला गया।
                (   4    )
छोड़ो गिले औ शिकवे ,
नया कुछ आज कर जायें ,
भूली हुई कुछ मीठी बातें ,
याद कर जायें ,
वो शरारतें ,वो चुहलवाजियाँ ,
सब कुछ तो याद है ,
कुछ देर के ही लिए ,
हम अजनबी बन जायें।
                  

Friday, July 25, 2014

नव क्रान्ति चाहिए





कैसी हवा चली यहाँ इस देश में हे राम ,                                                       
हर आदमी है हो रहा कामुकता का गुलाम  ।                                          
अपनी ही माँ -बहनों के अस्मत को लूटता
कर कलंकित देश को यह कर रहा बदनाम।

हर तरफ है  चीख बस मासूम कलियों  का ,                                                           
हर तरफ आक्रोश है इस नीच कृत्य का।
हैवानियत भी शर्मसार है ये देख कर ,
आँखों से बह रहा लहू पतन यह देख कर।

है नहीं रोना तुम्हें , संकल्प तुम करो ,
आँख में आँसू नहीं अंगार को भरो ,
हाथों में चूड़ियाँ नहीं तलवार को धरो ,
अस्मत के लुटेरों पर प्रहार तुम करो।

जब तक न तेरी चूड़ियाँ कटार बनेंगी  ,
जब तक न अश्रुधार ये अंगार बनेगी ,
जब तक न तेरी आहें ज्वालायें बनेंगी ,
तब तक नहीं इस  जुल्म की दीवार ढहेगी।

समाज को नई दिशा , नव क्रान्ति चाहिए ,
उन्नत समाज के लिए जन क्रान्ति चाहिए ,
अकलुष और स्वच्छ एक समाज चाहिए ,
दृढ़ शक्ति के संकल्प का समाज चाहिए।

पंगु नहीं , न मूक ,जाग्रत राष्ट्र चाहिए,
नव राष्ट्र के निर्माण को नव क्रान्ति चाहिए ,
फौलादी से विचार और आचार चाहिए ,
क्रान्ति , क्रान्ति , क्रान्ति , क्रान्ति , क्रान्ति चाहिए।


फ़रिश्तों तुम जरा ठहरो


फ़रिश्तों तुम जरा ठहरो ,
मेरा कुछ काम बांकी है.…
जरा उनसे तो कर लूँ प्यार ,
मेरा कुछ काम बांकी है.....

होंगी हूर औ परियाँ ,
मुझे मालूम ज़न्नत में ,
यहाँ है सामने मेरे वो
जीनत  प्यार तो कर लूँ  ....

है जाना छोड़ कर दुनियाँ
मुकम्मल है पता मुझको ,
मगर यह दुनियाँ भी मेरी ,
किसी ज़न्नत से कम न है ,
जरा  मैं अपनी ज़न्नत को ,
नजर भर प्यार तो कर लूँ  .....

फ़रिश्तों तुम जरा ठहरो  …

Monday, July 21, 2014

प्यार प्रकृति है ,प्यार ही ईश्वर

        

सब कहते हैं तिनका-तिनका जोड़-जोड़ घर बनता है ,
मैं कहता हूँ प्यार-प्यार को जोड़-जोड़ घर बनता है।
प्यार नहीं तो शीशमहल भी तिनके जैसा लगता है ,
जहाँ प्यार है , रूखा भोजन भी अमृत सा लगता है।
प्यार ही है जो काँटों पर भी फूल सदा मुस्काता है ,
प्यार नहीं हो जीवन में तो जीना दूभर लगता है।
प्यार प्रकृति है ,प्यार ही ईश्वर ,प्यार का ही सब नाता है ,
प्रेम सने रस पागल बादल , नभ से जल बरसाता है।



Saturday, July 19, 2014

सुहाना सावनी मौसम


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है बरसात का मौसम, चलो मिल घूम आयें हम ,                              
बारिस के मौसम में ,चलो मिल भींग आयें हम।
घटा को देख कर मेरा मयूरी मन बहकता है ,
कहता भींग लें कुछ देर , मेरा मन चहकता है।
अजब बरसात का मौसम है ये,मन को सुहाता है ,
पवन भी झूम कर चलता सदा इतराता बहता है।
बरसती बूँद है जब भी , सुनाती गीत सरगम सी ,
बदन पर पड़ती बूँदों से , उठती दिल में सिहरन सी।
फिसलती बूँद जब छू कर , तुम्हारे गोरे  गालों को ,
दमक कर दामिनी भी चूमती तेरे कपोलों को।
बरसता जब भी है सावन ,धरा भी तृप्त हो जाती ,
हो कर तृप्त यह धरणी , छटा है अपनी दिखलाती।
छा जाती हरियाली यहाँ , चारों दिशाओं में ,
संदेश है बरसात का लिखा घटाओं में।
कहीं झनकार झींगुर का , कहीं पर शोर दादुर का ,
कहीं पर चातकी की चहक भी देती सुनाई  है।
कहीं पर नाचता है मोर , कहीं पर मोरनी की कूक ,
तन में आग लगती है , दिल में उठती मीठी हूक।
चलो फिर आज हम मिल कर बना लें नाव कागद के ,
गुजारे पल जो बचपन में , उन्हें फिर आज दुहरा लें।
सुहाना सावनी मौसम , है ये श्रृंगार का मौसम ,
झूलों का मौसम है , है यह मेहँदी  का भी मौसम।
आओ तुम्हारे हाथ पर , मेहँदी रचा दें हम ,
आ जाओ बाँहों में , तुम्हें झूला झुला दें हम।
जो बूढ़ी हो गईं यादें , उन्हें फिर से नया कर लें ,
बिसरी हुई गीतों को फिर से आज हम गा  लें।

Friday, July 18, 2014

पत्थर-पत्थर, भगवान।


संत उन्हें ही जानिये , पर-दुःख जिन्हें सताय ,
करै भेद इंसान में , कैसे संत कहाय। 
जीव ईश का अंश है , है गीता का ज्ञान ,
मुझ में तुझ में ईश है , पत्थर-पत्थर , भगवान।
ना मंदिर , मस्जिद गए ,न गुरुद्वारा न चर्च ,
इन्सां धर्म निभाईये , लागे ना कोई खर्च।
कोई पूजै पोथी को , कोई पूजै पहाड़ ,
जिसकी जैसी आस्था ,करें क्यों तिल का ताड़।
जित देखा तित पाईयाँ , गुरु , ईश , अल्लाह ,
एक साथ तीनों खड़े , वाह ! वाह ! वल्लाह।



Friday, June 27, 2014

जो चला अकेला


मन में उठते तूफानों को ,
बाँध गगन उड़ जाना है ,
भर साहस अपने बाजू में  ,
नभ में तुमको छा जाना है।

इस धूप-छाँव की दुनियाँ में ,
सुख-दुःख साथ निभाना है ,
जीवन  के अनमोल सफर में,
मिलना और बिछड़ना  है।
मन के द्वन्द्वों को छोड़ निकल ,
तुम को मीलों चलना है ,
जो चला अकेला,वही चला ,
मंजिल पार पहुँचना है।
तू माँझी है ,जग सागर है ,
सागर लाँघ निकलना  है ,
क़श्ती है तुम्हारा मन केवल ,
क़श्ती पार ले जाना है।
 

Sunday, June 22, 2014

वतन के वास्ते


एक  पत्थर तो  हवा में उछाल कर देखो ,
कहर बन कर,दुश्मन पर बरस कर देखो ,
हो नाम शहीदों में तुम्हारा भी  कहीं ,
चमन के वास्ते , सिर पर कफ़न बाँध कर देखो।

आजादी के शोलों को जला कर रखो ,
दुश्मन से गुलिस्तां को बचा कर रखो ,
कोई नापाक निगाहें न वतन पर उठे ,
अपनी आँखों में चिंगारी सजा कर रखो।

वतन के वास्ते ,जीने का फ़न सीख लो ,
कुर्बानी का जज्वये हुनर तो सीख लो ,
दे देंगे जां ,तिरंगा न झुकने देंगे ,
अपने कलम को तलवार बनाना तो सीख लो।

नागफनी उग आया है





नागफनी  उग आया  है
---------------------------                                                      


तमाम उम्र समझते रहे हम,
रिश्तों के समीकरण ,
देखता हूँ अब इनका भी
हो गया है भौतिकिकरण।
खो गई है लावण्यता ,
हर चेहरा मुरझाया है ,
यह सच है कि  फूल कोई 
असमय ही कुम्हलाया है
"रिश्तों का अनुबंध"
अर्थ " पर टिक गया है,
" अर्थ " बिना हर रिश्ता ,
अर्थहीन हो गया है।
गैर  से दीखते हैं ,अब ,
सब ,अपने भी पराये,
लगता है  रिश्तों में ,
नागफ़नी  उग आया है। 

Friday, June 20, 2014

दीप-शिखा

 ( प्रस्तुत कविता श्री जसजीत सिंह , वरिष्ठ मंडल वाणिज्य प्रबंधक ,उत्तर रेलवे ,मुरादाबाद के दिनांक 14 -07 -1988 को ,देहरादून स्टेशन पर प्रथम आगमन के अवसर पर स्वागत -सम्मान समारोह में मैंने पढ़ कर सुनाया तथा इसकी एक प्रति उन्हें भेंट किया )




तुम तरुवर ,हम भटके राही ,
तुम सरवर ,हम प्यासे राही  ,
तुम ज्योतिर्मय दीप-शिखा हो ,
आशा की किरणों को लेकर ,
जगमग-जगमग दीप जलाओ ,
दिशाहीन भटके राही को ,
आशा की एक राह दिखाओ ,
और ,
निराशा के सागर में ,
उतराते जो ,
कर गह कर ,
तुम उन्हें उबारो।
तुम हो एक कुसुम इस तट के ,
हम पंछी इस सागर तट के ,
कुसुम गंध को फैलाओ तुम ,
कुसुम गंध को फैलाएं हम ,
आओ मिल कर मोद मनायें ,
आओ गीत मिलन के गायें ,
जीवन को खुशियों से भर दें ,
जीवन को महकाते जायें।

तुम्हें " देवता " बना देगा …

यह बात कितनी सच है-
जो पैरों पर गिरता है
उसे ठोकर मार दिया जाता है ,
जैसे -धूल और राह का पत्थर ....
यही बात इन्सानों के साथ भी है ,
फर्क केवल इतना है, कि
धूल या पत्थर टूटते नहीं ,
इंसान यानी आदमी टूट जाता है ....
यह बात भी कितनी सच है, कि
सितारों के टूटने की आवाज नहीं होती है ,
ठीक उसी तरह ,
आदमी के भी टूटने की आवाज नहीं होती है ,
पर आदमी टूट जाता है ,
जिन्दा रह कर भी ,
जिन्दा लाश बन कर रह जाता है... ..
आदमी होकर ,
आदमी को ठोकर तो मत लगाओ ,
इन्हें पत्थर नहीं ,आदमी बनाओ।
माना , तुम देवता नहीं बन सकते हो ,
रहनुमा तो बन सकते हो !
और ,
आदमी को आदमी तो बना सकते हो !
कौन जाने ,कौन कितना थका -हारा है  ?
और ,
चुपचाप लब सिले बैठा है ?
उसकी  "थकन "और "हार "का
अंदाजा तो लगाओ ,
"सच "को जो जान पाओगे
"प्यार " का अहसास ,और
"भलाई " का मंत्र ,
तुम्हें " देवता " बना देगा  …

(  यह कविता देहरादून स्टेशन पर श्री राम प्यारे ,वरिष्ठ मंडल प्रबंधक ,उत्तर रेलवे के विदाई समारोह के आयोजन पर श्री  जसजीत सिंह , वरिष्ठ मंडल वाणिज्य प्रबंधक ,उत्तर रेलवे ,मुरादाबाद के दिनांक 14 -07 -88 को ,उनके प्रथम आगमन पर मैंने भेंट किया )

Tuesday, June 17, 2014

पागल


जाड़े की एक रात
एक पागल , फटेहाल
घूमता रहा रात भर
सड़क पर ,
शायद वह भूखा था,
वह एक होटल के सामने रुका ,
फिर दूसरे ,
फिर तीसरे ,

अंदर होटल में लोग
नोच - नोच कर बोटियाँ खा रहेथे
और वह बाहर खड़ा
एक रोटी को तरसता  रहा ..........
किसी ने उसे तवज्जो नहीं दी ,
लोगों ने उसे  दुत्कार दिया  -
कहा -पागल है।
वह चल पड़ा ,
एक आवारा कुत्ता
उस पर भौंका ,
पागल चलता रहा ,
कुत्ते ने पागल को पास से सूंघा
फिर वह
पागल के साथ - साथ चल दिया ,
पागल ने कुत्ते को देखा
कुत्ते ने पागल को ,
जहां-जहां पागल गया
वहाँ-वहाँ कुत्ता गया .........
पागल एक कूड़े के ढेर  के पास रुका
कुत्ता भी रुक गया ,
दोनो, फिर कूड़े के ढेर  में
कुछ ढूंढने लगे ...........
अल सुबह
लोगों ने देखा
वह पागल कूड़े के ढेर  के पास
मृत पड़ा है
और
एक कुत्ता
उसके मृत शरीर से सट कर
उदास बैठा है .........

Tuesday, June 10, 2014

माँ




माँ तो माँ होती है ,
बच्चों की जां होती है ,
हो चाहे कितनी भी विपदा ,
माँ पहाड़ होती है ,
माँ तो माँ होती है।

ऊपर से कठोर दिखती है ,
दिल में ममता होती है ,
खुद झेलती है विपत ,
बच्चों को सुख देती है ,
माँ तो माँ होती है।

तुम पुकारो ईश को ,
माँ पहले आ जाती है ,
माँ नाम है ईश का ,
माँ तो पूरा जहान होती है ,
माँ तो माँ होती है।

Monday, May 12, 2014

माँ !तुम क्यों चली गईं ?


माँ !तुम क्यों चली गईं ?
तुम थी 
तो घर था ,परिवार था ,
व्रत था ,त्योहार था ,
भाई थे ,बहन थी ,
नाते रिश्तेदार थे  ,
खुशियाँ थी ,भाव था ,
एक दूसरे के लिये प्यार था |

माँ !तुम क्यों चली गईं ?
आज भी सब कुछ है ,
पर प्यार का अभाव है ,
भाई है बहन है ,
पर रिश्तों में दुराव है ,
आदर का अभाव है ,
खुद को बड़ा दिखाने का चाव है |

माँ तुम्हारे जाने के बाद..
घर अब मकान है ,
सबके लालसा की दुकान है ,
रिश्तों को तोड़ने का सामान है ,
बदनीयती बढ़ाने का खान है,

माँ !शायद तुमको इसका अहसास था ,
दिल में दर्द था ,मन उदास था ,
तभी तुम चली गईं ,
और तुम्हारा मकान ?
सब कुछ देख कर ,
शर्मशार है ,
और अपने आपको
धरती में मिलाने को
बेकरार है |
   -  मंजु सिन्हा
       डी - 40 , रेस कोर्स ,
        देहरादून। 
      11-05-2014   (  मदर डे स्पेशल  )


Tuesday, April 1, 2014

किरणें बोलीं सुन मेरी बात।

















सूरज निकला हुआ प्रभात ,
किरणें बोलीं सुन मेरी बात ,
पहले मातु -पिता की पूजा ,
दूजे गुरु के चरण प्रणाण ,
तीजे नमन ईश को करना ,
करना फिर दिन की शुरुआत ,
किरणें बोलीं सुन मेरी बात।

संत जनों का आदर करना ,
सच का साथ कभी ना तजना ,
रखना सदा ही सब का मान ,
करना नहीं मिथ्या अभिमान ,
दीन -दुखी की सेवा करना ,
सदा याद रखना यह तात ,
किरणें बोलीं सुन मेरी बात। 

मिल कर रहना तुम हे प्यारे ,
बंद मुट्ठी से सब  हैं हारे ,
बाधाओं से मत घबराना ,
धीरज - धैर्य कभी न खोना ,
साहस के बल पर ही नाविक ,
लहरों को देते हैं मात ,
किरणें बोलीं सुन मेरी बात।

Friday, February 7, 2014

सच्ची -सच्ची कहता हूँ

नहीं जँचेगी बात तुम्हें ,पर सच्ची -सच्ची कहता हूँ ,
मैं झूठ नहीं कुछ कहता हूँ ,मैं आँखों देखी कहता हूँ ।

बातों की खेती होती है ,लाशों की खेती होती है ,
जिसे  काटते - बोते हैं कुछ खाश किस्म के लोग यहाँ ,
हैं लोग बड़े ही भले यहाँ।

देख खेत में लाशों को ,गिद्धोँ के बिचरण बढ़ जाते ,
हैं इनमें से कुछ बड़े -बड़े , कुछ छोटे और मँझोले हैं ,
पर पर सब के सब ही भोले हैं।

सुन कर अटपटा लगा होगा , मुझ पर विश्वास घटा होगा ,
पर बात सुनाता खरी - खरी , है सोलह आने बात  सही।

मनुज यहाँ बिक जाता है , कफ़न यहाँ बिक जाता है ,
खड़े - खड़े ही लोगों का ईमान यहाँ बिक जाता है।

गोदामों में पड़े - पड़े ही ,अन्न यहाँ सड़ जाता है ,
किन्तु ,बचपन रोता - रोता ,भूखा ही मर जाता है।

मनरेगा में मजदूरों का , श्रम यहाँ बिक जाता है   ,
मिड -डे मील का खाना भी भी , प्रबंधक ही खा जाता है।

 कहने को तो स्कूलों में खाना पोषक ही मिलता ,
उनसे भी जाकर पूछो , जिनका सड़ांध से नाता है।

वो अक्षर ज्ञान को क्या बांचे , है जिनका पेट नहीं भरता ,
पर नेताओं के दावत में , मुर्गा हलाल हो जाता है। 

( 13- 7 - 2013 की रचना  )




Monday, February 3, 2014

आयल बसंत बहार













 आयल बसंत बहार
सखी री , मोरा पिया  नहीं आयल  ।
सावन मास वाणिज को गयल पिया ,
नहीं लीनी सुधि भी हमार
सखी री,मोरा पिया नहीं आयल ।
कही के गयल पिया अबहुँ लौं आवति ,
बीत गयल दिन-मास
सखी री मोरा पिया नहीं आयल ।
नहीं कोउ पतिया , न कोउ खबरिया ,
कासे पठावउँ सन्देश
सखी री मोरा पिया नहीं आयल  ।
डारि-डारि बिहुँसहिं कलियाँ निगोरी ,
भँवरा करत गुँजार
सखी री  मोरा पिया नहीं आयल ।
महकै जो बौरना तो हिया बौराबै ,
महुआ पकहिं वन माहिं
सखी री मोरा पिया नहीं आयल  ।
चहुँ ओर कूजत कोयलिया कारी ,
उठत करेजवा में पीड़
सखी री मोरा पिया नहीं आयल  ।
साँझ भये जोहूँ बाट - डगरिया ,
जोबना भयल मोर उदास
सखी री मोरा पिया  नहीं आयल  ।
आयल बसंत बहार ,
सखी री मोरा पिया नहीं आयल  ।


Thursday, January 23, 2014

कोरा - कोरा दिल है मेरा


कोरा - कोरा दिल है मेरा ,कोरा-कोरा गीत ,
ढूंढ रहा है यह दिल मेरा ,मन का कोई मीत।
किसे बताऊँ, किसे सुनाऊँ, दिल की  अपनी बात ,
दिन ढल जाता, शाम है आती, आ जाती फिर रात।
जब सागर के खुले वक्ष, छू लेता पूनो चाँद ,
मचल-मचल सागर की लहरें, चलीं चूमने चाँद ।

Wednesday, January 22, 2014

पहाड़ की नारी की व्यथा



बहुत दिनों पर चिट्ठी तेरी आन मिली है ,
पूछ रहे हो हाल हमारा क्या बतलाऊँ ,
जैसे  - तैसे कट जता है जीवन  मेरा ,
अपनी पीड़ा इस ख़त में कैसे जतलाऊँ।

जीवन कितना कठिन हो रहा है पहाड़ पर ,
पीने के पानी को मीलों चलना पड़ता ,
नहीं सड़क है यहाँ कोई कच्ची या पक्की ,
ऊबड -खाबड़ पथरीले पथ चढ़ना पड़ता  ।

मिलती नहीं है बाज़ारों में हरी सब्जियाँ ,
सब ही सब चट कर गईं सुना है बड़ी इल्लियाँ ,
नमक,दाल ,चावल,आटा का हाल बुरा है ,
इससे तो सस्ती बोतल की बन्द सुरा है।

सुना,कि पिट्रोल -डीजल का कुछ दाम बढ़ा है ,
फिर भी नहीं मँहगाई का बोझ बढ़ा है ,
बढ़ा- चढ़ा  है,तो केवल बस प्याज चढ़ा  है
संग टमाटर भी थोड़ा सा साथ बढ़ा है।

हैं बिजली के तार सजे खम्भों पर लेकिन ,
नहीं बल्ब है इन खम्भों पर कभी लटकता ,
नहीं सूझता यहाँ हाथ को हाथ रात में  ,
रह-रह कर अम्मा-बाबू का दिल घबड़ाता।

नहीं डाक्टर यहाँ कभी कोई मिलते हैं ,
ना ही मिलती दवा यहाँ की दूकानों पर ,
यदि तम्हें फुर्सत मिल जाए अपने काम से ,
कुछ दवाईयाँ भी तुम अपने साथ  ले आना।

जलती नहीं है गीली लकड़ी भी चूल्हे में ,
खाँस -खाँस कर मेरा दम घुटने लगता है,
नहीं मदद सरकारी कोई मिलती है ,
मौसम का भी कोप हमें सहना पड़ता है।
एक काम है और तम्हें कैसे बतलाऊँ ,
संभव हो तो तेल मिट्टी का भी ले आना 
चाँद तोड़ कर लाना ,चाहे न लाना ,
एक सिलेंडर साथअपने तू ले आना।

         ----  (  अभ्यर्थना शीर्षक से प्रकाशित )

Tuesday, January 21, 2014

उठाओ , मेरी जलती चिता से मशाल

मैं जीना चाहती थी ,
जीने कि जिजिविषा थी मुझ में ,
जीने कि लालसा में
मैं अपनी टूटती साँसों से
लगातार संघर्ष कर रही थी  ।
मेरी आँखों में ,
अब भी भय था ,संत्रास था ,
चिंदी - चिंदी हो रही थी  मेरी अस्मिता
मेरे बदन पर मानो
सहस्त्रों बिच्छुओं ने
एक साथ डंक चुभो दिये हों ,
मैं दर्द और पीड़ा से
चीखती रही , छटपटाती रही........
मेरा सम्पूर्ण शरीर ,जैसे सड़ गया,और
असंख्य कीड़े बिल - बिला रहे हैं ,
रेंग रहे हैं ,
मैं बेसुध हो गई,
जैसे ही होश आया
मैं पुन: संघर्षरत हो गई ।
मैं  नहीं हारी ,
हार कर   पिशाचों ने
मुझे खिड़की से बाहर फेंक दिया ,
फिर , मैं एक तमाशा बन गई............
सदियों से
यही होता चला आ रहा है ,
नारियाँ ,
जो संसार को चलातीं हैं ,
वही रौंदी जातीं हैं ,कुचली जातीं हैं ,
सताई जातीं हैं ,
काटी जातीं हैं ,
जलाई जातीं हैं।
नारियाँ ,
जो , कभी माँ , कभी बहन ,
कहीं पत्नी ,
कहीं नानी , दादी ,बुआ ,मौसी और
न जाने कितने रिश्तों को जोड़ कर
ममता और स्नेह से
पुरुष  को सींचतीं हैं,
वही पुरुष , कापुरुष,
नरपिशाच बन जाता है ,
कैसा अधम है यह पुरुष जो  ,
सम्पूर्ण नारी जाती को
अपमानित , कलंकित और
तिरस्कृत करता है ?
नारियों ,उठाओ ,
मेरी जलती चिता से मशाल
और
जला दो इस विश्व को ,
ऐसे विश्व का क्या करना
जो विषकुंभ बन गया हो ...........



 

Sunday, January 19, 2014

कुछ गीत लिखे अपने मन की




निज करतल में मैं प्रकृति का श्रृंगार लिए चलता हूँ  ,
मैं अपने उर में जीवन  का उद्गार लिए चलता हूँ    ।

मैं पथिक अकेला अपनी राह का, मस्ती में चलता हूँ ,
मैं अरमानों और भावों का उपहार लिए चलता हूँ    ।

तूफ़ानों - झंझावातों को मुट्ठी बाँध  लिए चलता हूँ     ,
सुख - दुःख के दोनों तीरों को अपने साथ लिए चलता हूँ  ।

निविड़ अंधकार  में भी , पथ , आलोकित कर के चलता हूँ ,
साहस के बल, हर मुश्किल ,हँस कर पार किये चलता हूँ    ।

नहीं संग कोई संगी साथी ,मन को साथ लिए चलता हूँ  ,
मैं मौजों में भी हिम्मत का पतवार लिए चलता हूँ   ।

मिले राह में काँटे भी ,  मैं , उनको प्यार किये  चलता हूँ   ,
कुछ गीत लिखे अपने मन की , वह गीत गाये चलता हूँ   ।





Saturday, January 18, 2014

ज़िंदगी के यारों ऐसे मजे कहाँ हैं


है आ गया बुढ़ापा यह हम भी जानते हैं
पर बोझ है बुढ़ापा यह हम न मानते हैं। 

हर रोज हर सुबह में  हम साथ बैठते हैं
पीते  हैं चाय मिलकर और टी वी देखते हैं।

तैयार होते - होते हो जाता दोपहर है
हो जाता जल्दी यारों , खाने का भी प्रहर है।

खाना बनाती मैडम , फिर साथ बैठ खाते ,
बस इस तरह ही दोनों हर दिन गुजारते हैं।

न शिक़वा कोई है मुझको, न उनको है शिकायत
हर रोज घूमने की  हमने लगाई आदत।

होती अगर इनायत कुछ दोस्त आ के मिलते
हम भी कभी-कभी ही , हैं उनके घर पहुँचते  ।

कुछ खाश हो खबर तो अखबार भी हैं पढ़ते
टी वी और रेडियो पर गाना - ग़ज़ल हैं सुनते।

तकलीफ है बुढ़ापा कहते सभी यहाँ हैं
पर ज़िंदगी के यारों ऐसे मजे कहाँ  हैं। 
रचना तिथि - मई , 2012 

लौट आओ















लौट आओ  तुम , (कि ) अब ये
दिल मेरा  लगता नहीं ,

नेह के इस पंथ को , न जाओ ,
तुम यूँ छोड़ कर  ,
जन्मों के बंधन हैं ये , न जाओ ,
तुम यूँ तोड़ कर ,
चुप न बैठो ,कुछ सुनाओ
दिल मेरा लगता नहीं..........

फूल संग काँटे रहें , या
संग काँटे फूल  के
संग ही हम तो खिले हैं
जग के इस दुकूल पे ,
रूठ कर तुम यूँ न जाओ
दिल मेरा लगता नहीं  ........

साथ ही जीवन मिला है
साथ ही हम  जाँयेंगे   ,
इस धरा पर प्यार का
संदेश दे कर जाँयेंगे  ,
तुम जरा सा मुस्कुराओ 
दिल मेरा लगता नहीं ..........

प्यार के जो क्षण मिले
आओ सजाएँ  प्यार से
बिन तुम्हारे प्यार के ,कोई
छंद बन पाता  नहीं  ,
गीत कोई गुन - गुनाओ
दिल मेरा लगता नहीं ........

अभिनन्दन नव वर्ष



नये वर्ष में मिलकर हम सब
नये - नये सपने बुन लें  ,
किस्म - किस्म के फूल यहाँ हैं  ,
उनमें से कुछ हम चुन लें  ।

आशाओं के नये पंख ले
जीवन- नभ में हम  उड़  लें  ,
नहीं करेंगे वैर किसी से
मन में यह निश्चय कर लें  ।

भ्रष्टाचार और कदाचार  का
साथ न देंगे जीवन में ,
अपने से छोटों की झोली
सदा प्यार से हम भर दें   ।

मातु - पिता गुरुजन की सेवा , का
व्रत हम धारण कर लें ,
हत्या कन्या - भ्रूण का ना हो
ठान के इसका प्रण कर लें  ।

ना जाने कि कौन सी कन्या
जग को तारने वाली हो ,
ऐसा ना हो अपने हाथों
नाश न अपना हम  कर लें  ।

नहीं गये गर मंदिर - मस्जिद
काज नये कुछ हम कर लें ,
किसी गरीब की कन्या को ही
हम थोड़ा शिक्षित कर लें  ।

हम मानव हैं मानव बन कर
जग में कुछ ऐसा कर लें
जिससे हो कल्याण विश्व का
इतिहास ऐसा रच लें  ।

अभिनन्दन नव वर्ष तुम्हारा
अमन चैन खुशहाली हो ,
विश्व के कोने - कोने में नित
ईद , होली ,दीवाली हो  ।
   
      -----  ( प्रकाशित )