Friday, September 30, 2016

शीश को मैं वार दूँ

धरा क्या , आकाश क्या , पाताल को भी लाँघ लूँ ,
हूँ शिवा मैं हिन्द का , मैं काल को भी बाँध लूँ।
सिंधु की मैं गर्जना हूँ , अनल दावानल का हूँ ,
नागवन के व्याल भी उंगलियों  पर साध लूँ।

दशों दिशाएँ थर्राती , हुँकार भरता जब कभी ,
इस गगन से उस गगन तक , शत्रु को मैं नाध लूँ।
हैं नहीं हम पालते निज , शत्रुता बेकार की ,
पर नहीं ललकार को सुन मौनता को साध लूँ।

कृष्ण की है देवभूमि , हैं कुचलते नाग को ,
फैलते फण विषधरों के बाँसुरी से नाथ लूँ।
हम नहीं रणक्षेत्र में हैं पीठ दिखलाते कभी ,
मातृभूमि की चरण में शीश भी मैं वार दूँ।

है विजय के गीत का परचम हमारे हाथ में ,
मैं तिरंगे को सदा ही अपने काँधे काँध लूँ।

                    ------ -  (  प्रकाशित )

Friday, September 23, 2016

स्वर्गीय पिता के नाम

उस दिन
वर्ष का आखिरी दिन था ,
पुराने वर्ष की विदाई
और
नए वर्ष के स्वागत में
चारों ओर खुशियाँ
तैर रही थीं  ,
शरीक था मैं भी ,
मन से नहीं ,
तन से।
तभी ,अचानक फोन आया-
" पिता जी नहीं रहे "
रोते - रोते ,
उसने भरे गले से बताया ,
पर मैं नहीं रो पाया ,
धैर्य !
विपत में धैर्य ,
तुमने ही तो सिखलाया था।
मुझे कुछ दिन पहले ही
आभास हो गया था ,
जब एक दिन
तुमने मुझसे फोन पर
बात किया था ,
घर में नया - नया फोन लगा था ,
जाने क्यों कर मेरे मन में
तब एक कोहराम मच गया था ,
पर मैं मूढ़ मति , कायर ,
अपनी विवशता में ,
कुछ सरकारी नौकरी की परेशानी में ,
तुम तक नहीं आ पाया
तुम्हारी मृत्यु से पहले ,
तुम्हारी चरण रज लेने।
पश्चात ,
मैं सम्पूर्ण श्राद्ध खत्म होने तक
नहीं रोया , या , चुपके - चुपके रोया ,
जाने लोगों ने क्या - क्या कहा ,
अपने भी , पराये भी ।
मैं लौट आया वापस
नौकरी की ठौर।
पर , मैं एक दिन रोया ,
जार - जार रोया ,
जोर - जोर से रोया ,
वहाँ कोई नहीं था
मेरा रुदन सुनने वाला ,
वह था एक सपाट मैदान ,
निपट निर्जन ,
शाम का धुँधलका ,
टिमटिमाते जुगनू  ,
पर ,
तुम थे मेरे पास , तब ,
जब मैं सचमुच रोया।
तुम अब भी मेरे पास हो ,
नहीं हो मेरे सामने ,
किन्तु , मेरी आँखों में ,
मेरे मन में ,
मेरे ह्रदय में।
तुम कब हुए जुदा मुझसे !
मैं नहीं जान पाया ,
मुझे अब भी
महसूस होता है
तुम्हारा स्पर्श ,
तुम्हारे गोद की खुशबू
अब भी मेरी श्वासों में है ,
नहीं भूल पाया मैं
तुम्हारा प्यार ,
तुम्हारा दुलार ,
मेरा मचलना ,
" ठीक होली के दिन
मेरे लिए ,
वह पीतल की पिचकारी
ला कर देना ,
जिससे एक ही बार में
सहस्त्रों धाराओं के
फव्वारों का निकलना ,
कितनी यादें
साथ - साथ चलती हैं मेरे ,
तुम हो ,
क्योंकि , तुम अब भी
मेरे साथ हो ,
पल , हर पल ,
कदम दर कदम।