Friday, September 18, 2015

भारत भाल की बिंदी हिन्दी

हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा ,
हिन्दी है जन - जन की भाषा ,
उत्तर- दक्षिण,पूरब-पश्चिम ,
हिन्दी  है सम्मान की भाषा।
भारत भाल की बिंदी हिन्दी  ,
हम सब की पहचान है हिन्दी  ,
दिल को दिल से जोड़े हिन्दी ,
भाषाओं में प्यारी हिन्दी।
विश्व में भी यह पूजित हिन्दी ,
देश का मान बढ़ाती हिन्दी ,
हो लैटिन , अमरीका ,जर्मनी ,
मॉरिसस में प्यारी हिन्दी।
राजनीति की गलियारों में ,
खो गई आज हमारी हिन्दी ,
चाहे जिसको गद्दी दे दो ,
फिर भी सुरभित है यह हिन्दी।
               
             -- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
                  डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून
                   मो० - 9897700208


Thursday, September 17, 2015

नालायक बेटा !

गाँव- मुहल्ले वाले सभी जानते थे ,
वह नालायक बेटा था , बड़ा था ,
वह दूसरे बड़े शहर में रहता था ,
अपने बीबी - बच्चों के साथ ,
रहता क्या था - उसकी नौकरी ही
बहुत दूर के शहर में लगी थी।
वे यह भी जानते थे, कि
वह पहले ऐसा नहीं था ,
आस - पड़ोस की बस्ती के लोग भी
उसे जानते थे , प्यार करते थे ,
वह था ही ऐसा ,
वह सब के सुख- दुःख में
हाथ बँटाता था ,
पर शादी के बाद
बीबी - बच्चों को लेकर
शहर चला गया।
कुछ वर्षों तक तो
वह गाँव आता रहा ,
फिर धीरे - धीरे उसका
गाँव आना कम हो गया।
गाँव का डाकिया बताता था
वह शहर से पैसे भेजता था ,
पर पास - पड़ोस , दोस्त - मोहिम
जानते थे कि
वह कुछ भी नहीं भेजता था ।
यह सच था या अफवाह !
              ( 2  )
वक्त बीतता रहा ,
गाँव शहर में बदल गया ,
और फिर एक दिन
पिता चल बसे ,
वह आया , 
पत्नी - बच्चों के साथ।
वह सर्द भरी रातें  थीं ,
तीन दिनों का सफर ,
वह पिता के ,
अंतिम दर्शन नहीं कर सका ,
फूट - फूट कर रोया  ....
मुखाग्नि मँझले भाई ने दी थी ,
आगे के क्रिया - कर्म का भार
बड़े ने लिया।
अंतिम दिन ,
रीति - रिवाज के अनुसार
माँ के लिए सोने या चाँदी की
चूड़ियाँ चाहिए थीं ,
मँझले ने चुप्पी साध ली थी ,
बड़े चाँदी की चूड़ियाँ ले आया।
मेहमानों के विदा होने के बाद
वह भी बीबी - बच्चों के साथ
वापस लौट आया , शहर  .....
           ( 3  )
एक छोटा बेटा भी था ,
वह भी ,
दूर दूसरे शहर में रहता था ,
उसे इन सब बातों से 
कोई मतलब नहीं था ,
माँ मँझले  बेटे के साथ रहती थी ,
कभी - कभार
बड़े के पास भी आ जाती थी।
संभवत:
भाईओं के बीच
दीवार सी खिंच गईं थीं ,
मँझली बहू उलाहना देती -
अकेले हम ही मरते हैं ,
सभी मौज करते हैं ,
माँ खामोश सुनती रहती थी।
कभी - कभी ,
बड़े को खत लिखती  -
अब आँख से ,
दिखाई नहीं देती है ,
डॉक्टर ऑपरेशन को बोला है ,
मँझले को समय नहीं है ,
यहाँ अच्छा डॉक्टर नहीं है ,
तुम आ कर ले जाओ।
तुम्हारे बेटे ने जो मुझे 
हजार रूपये भेजे थे ,
वह मेरे पास पड़ा है ,
मैंने किसी को नहीं दिया है।
           ( 4  )
कुछ दिन बाद वह आया ,
माँ को ले गया ,
माँ की आँख का , 
ऑपरेशन हो गया ,
माँ को अब
सब कुछ
साफ-साफ दिखने लगा।
एक दिन माँ ने कहा -
मेरे पास वह रूपये पड़े हैं ,
मुझे अच्छा सा शॉल ला दो।
बड़ी बहू बाजार गई ,
एक अच्छा सा शॉल खरीद लाई ,
माँ को दिया।
मँहगा होगा , कितने का होगा ?
माँ ने कहा ,
बहू ने हँस कर पूछा -
आपको पसंद आई -
" हाँ "-माँ ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
शाम को ऑफिस से बेटा आया,
माँ ने कहा - 
मेरे पास वो पैसे पड़े हैं ,
बेकार हैं ,मुझे क्या काम है ,
बेटे ने कहा - 
अपने पास ही रहने दो ,
कभी काम आयेगें।
कुछ दिन बाद,
माँ ने रट लगा दिया -
मुझे गाँव पहुँचा दो  ....
माँ गाँव आ गई ,
लोगों ने देखा -
नया चश्मा लग गया है ,
वह अब देख सकती है ,
पढ़ - लिख भी लेती है ,
लोगों ने आपस में
कानाफूसी की -
माँ की आँख ठीक हो गई ,
बड़े ने  ......
         ( 5  )
माँ ने बड़े को खत लिखा -
मेरा चश्मा टूट गया है ,
देखने में परेशानी होती है ,
मँझले को 
समय नहीं मिलता है ,
इस छोटे शहर में
अच्छे चश्मे की 
दुकान नहीं है ,
कह रहा था -
पटना जाना होगा ,
तुम एक दिन के लिए 
आ जाओ ,
मेरा चश्मा बनबा दो  .....
और फिर एक दिन
मँझली बहू का फोन आया -
माँ गिर गई है , कोमा में है ,
अस्पताल में एडमिट  है ,
आप आ जाओ ,
ये भी यहाँ नहीं हैं ।
सूचना मिलते ही
वह रवाना हो गया ,
बेचैनी , चिन्ता और 
छटपटाहट में ही
दो रातें काट गईं ,
दो दिन बाद ,
सुबह सवेरे 
वह शहर पहुँच गया।
        ( 6  )
 बड़े ने देखा -
जिसको बहू ने 
अस्पताल बताया था ,
वह एक सीलन भरा 
बदबूदार कमरा है  ,
जहाँ ,
मच्छर-मक्खियों की भरमार है ,
भीतर घुप्प अन्धेरा है ,
एक मद्धिम लालटेन की लौ
टिमटिमा रही है ,
अंदर और भी कई मरीज भर्ती हैं ,
यह, एक प्राइवेट डॉक्टर का
नर्सिंग होम है ,
बाहर घना कोहरा है , 
ठंढ बहुत है ,
धूप का नाम नहीं है ,
माँ एक झीनी साड़ी में लिपटी ,
नंगे तख्त पर अचेत पड़ी हुई है ,
कुछ - कुछ साँस चल रही है ,
आँखें खुली हैं ,
कभी - कभी पुतली हिलती है ,
बोल नहीं सकती ,
उसके मुँह से लार निकल रही है ,
सिर के पास ही
गंदे कपड़े का टुकड़ा पड़ा है ,
उसी टुकड़े से मँझले के बेटे ने
माँ का मुँह पोंछ दिया है  .......
बड़ी बहू ने माँ के पैर छूए -
एकदम सर्द ,
उसने अपने पैर के मोजे उतारे ,
माँ को पहनाया -
माँ के पैर के पास बैठ कर
उनके पैर सहलाने लगी -
कुछ गर्मी आ जाए ,
घर से तकिया - गद्दा मंगवाया ,
उसे तख्त पर डाल कर
माँ को लिटाया ,
फिर अपने बैग से
छोटा तौलिया निकाला ,
गंदे कपड़े के टुकड़े को 
फिंकवाया ,
रिश्ते के देवर से
मच्छर भगाने वाला 
क्वॉयल मंगवाया ,
जलाया ,
ताकि मच्छर भाग सकें  ,
अगरवत्ती मंगवाई
ताकि दुर्गन्ध दूर हो ,
रूई मंगवाई ,
डेटॉल मंगवाई ,
साफ पानी का बॉटल मंगवाया ,
ताकि,
माँ का मुँह 
साफ़ किया जा सके.......
बड़ी बहू 
सास की सेवा में लग गई -
माँ ! हम आ गए हैं ,
कुछ तो बोलिये -
माँ एक टक देखती रह गई ,
बोली कुछ नहीं , 
हाँ ,
उसकी आँखों से 
आँसू की दो बूंदें निकलीं   ......
उसी दिन शाम के वक्त
माँ चल बसीं ,
मँझली बहू 
दहाड़ मार कर रोने लगी ,
पर, बड़ी शांत रही - स्तब्ध !
           ( 7  )
सुबह हो गई थी ,
माँ को नहलाया गया ,
अर्थी पर लिटाया गया -
बड़ा बेटा चौंका -
माँ के कान का कुंडल   ?
उसने कल ही तो कहा था -
माँ के शरीर पर से
कुछ भी न उतारा जाये ,
उसने इशारे से
पास ही खड़े पत्नी से पूछा ,
उसने इशारे में कहा -
उसे नहीं मालूम ,
रिश्तेदार और पड़ोसियों की 
भीड़ खड़ी थी ,
वह चुप रह गया  .....
बाद में ज्ञात हुआ , कि ,
मँझली बहू के कहने पर ,
मंझले बेटे ने ,
मौका  पाते ही किसी समय
माँ के कान का कुंडल 
निकाल लिया था ,
मँझले की हठधर्मिता के कारण,
अंतिम संस्कार
बहत देर रात को ही हो पाया ,
बड़ा चुप रहा ,
उसकी हर बात का 
विरोध होता रहा।
          ( 8  )
फिर वह दिन आया -
क्रिया - कर्म का आखिरी दिन ,
किसी बड़े पेड़ के नीचे
कुछ कर्म - काण्ड करने थे
बड़े को ही सारे विधान निपटाने थे ,
आज वह केवल एक सफेद -झख
धोती पहने था ,
बदन पर और कुछ नहीं था ,
सिर भी घुटा हुआ था ,
पंडित मंत्र पढ़ रहे थे  -
दान माँग रहे थे -
बड़ी खुशी की बात है जजमान ,
आप किस्मत वाले हैं ,
माँ को मुक्ति मिली है ,
वह सीधे स्वर्ग गईं ,
5100 रूपये दान दीजिये -
इससे कुछ कम नहीं   …
बेटे ने सिर्फ इतना ही कहा -
पंडित जी, 
आपको खुशी मिलती होगी ,
दान - दक्षिणा श्रद्धा होता है ,
पंडित नहीं मान रहे थे -
तभी , न जाने कहाँ से
मधुमक्खियों का झुण्ड 
आ धमका ,
वहाँ पर बैठे सभी लोगों पर
हमला कर दिया ,
अप्रत्याशित हमला ,
पंडित जी चिल्लाये -
जजमान को बचाईये ,
नंगे बदन हैं -
बेटे ने कहा - मुझे कुछ नहीं होगा ,
इतना विश्वास !
एक छोटा चचेरा भाई ,
बदहवास घर को दौड़ा ,
कम्बल लाने को ,
भैया को बचाना है ,
अफरा - तफरी मच गई ,
जान बचाने को
लोग इधर - उधर भागने लगे ,
पानी में भी कूदे ,
मधुमक्खियाँ 
दूर तक पीछा कर रही थीं ,
पानी में भी ,
कईयों को उसने 
बुरी तरह जख्मी कर दिया ,
मँझले बेटे और 
उसके बेटे को भी
मधुमक्खियों ने नहीं बख्शा ,
बड़े ने 
वही धोती नंगे बदन पर 
ओढ़ ली थी ,
घर में , बस्ती में 
कोहराम मच गया ,
पर, यह क्या ?
लोगों ने देखा -
मधुमक्खियों ने
बड़े को 
बिलकुल ही नहीं काटा ,
इस नालायक बेटे को
मधुमक्खियों ने नहीं काटा ,
मधुमक्खियों को शायद,
पता था ,
किसे काटना है ,
और , किसे नहीं   ....... 
कौन लायक है ,
और कौन 
नालायक .... 

             ---- विजय कुमार सिन्हा
                    डी - 40 , रेस कोर्स ,
                     देहरादून।
रचना तिथि - वर्ष 2011 
ब्लॉग  -   2015   
  







Saturday, September 12, 2015

गंगा



कभी गंगा उतरी थी
बहुत वेग से ,
शिव ने अपनी जटाओं में
उन्हें बाँध लिया था ,
ताकि ,सब कुछ बह न जाये
उस वेग में ,
ताकि , कल्याणकारिणी हो गंगा ,
जीवनदायनी हो गंगा।

आज हमने गंगा के वेग ( बहाव )को
रोक दिया है ,
कूड़ा - कचरा डाल कर ,
अपनी सारी  गंदगी ,
इसमें डाल कर।

अब गंगा असहाय हो गई है ,
रूकने लगी है इसकी साँसें ,
घुटने लगा है इसका दम ,
बहुत प्रयास करती है
आगे बढ़ने का ,
पर , सफल नहीं हो पाती है।
अब कल्याणकारिणी गंगा
चाहती है अपना कल्याण ,
और ,
नया जीवन दान।
     
         --   मंजु सिन्हा
               डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून।
               ( उत्तराखण्ड  )
              पिन - 248001
             
              


Friday, September 11, 2015

मेढक बोला टर - टर - टर

 मेढक बोला टर - टर - टर ,
बरसा पानी टिपर - टिपर ,
बोली मेढकी ठम्मक - ठम ,
बड़ा सुहाना है मौसम ,
कोई गाना गाओ जी ,
मेरा दिल बहलाओ जी।
मेढक बोला अच्छा जी ,
सैर ज़रा कर आऊँ जी ,
आकर गीत सुनाता हूँ ,
टर - टर - टर टर्राता हूँ।             

Tuesday, September 8, 2015

गोरैया

आज मैंने बहुत दिनों बाद
गोरैया देखे ,
आश्चर्य हुआ।
गोरैए अब नहीं दीखते हैं ,
न पक्षियों का कलरव है
न ही ,
चिड़ियों की मधुर चहचहाहट
जिसे सुन कर , कभी ,
सूरज उग आता था ,
सवेरा हो गया है
इसका भान होता था .. ..
आँगन के नीम , और
बाहर बरगद के पेड़ कट गए हैं ,
अब घरों के पास
कोई पेड़ - दरख़्त नहीं दीखते हैं -
घरों के सौंदर्यीकरण में ,
सड़कों के चौड़ीकरण में ,
पेड़ काट दिए जाते हैं।
दीवारों की सुन्दरता के लिए
अब , दीवारों में
न ताखे रखे जाते हैं , न रोशनदान  .. ..
न रोशनदान हैं  ,  न ताखे ,
न  दरख़्त हैं , न कोटर ,
जहाँ कभी
गोरैयों के घोंसले होते थे ,
चिड़ियों के नीड़ बनते थे
और उनमें से
पक्षियों के बच्चों की ,
चिड़ियों के बच्चों की
चीं - चीं  आवाजें आती थीं  ....
तब , हम बहुत छोटे थे ,
दिन भर, देखते थे -
वे अपने बच्चों के लिये
चुग्गा लाते थे ,
बड़े प्यार से उन्हें खिलाते थे  ....
अब न घोंसलें हैं , न नीड़।
धीरे - धीरे विलुप्त हो रहे हैं -
कौए , मैना ,गिलहरी , गोरैया  ......
सोचता हूँ -
यदि नहीं होंगे पेड़ ,
नहीं होंगी चिड़िया ,
न होंगे पक्षी ,
न गिलहरी, न गोरैया
हम भी विलुप्त हो जायेंगे
इसी तरह
एक दिन  .....
                -- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
                    डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून
                     ( उत्तराखण्ड  )
                    पिन - 2248001