Thursday, July 9, 2015

तब और अब

तब आते थे मेहमान ,
मनता था त्योहार ,
बनते थे पकवान,
मिलती थी खुशियाँ ,
लगाते थे ठहाके ,
होते थे धमाके।

अब , देखते हैं कॉमेडी नाईट ,
ढूंढते है उसमें खुशियाँ ,
ठहाके लगाते हैं वो ,
मुस्कुराने की कोशिश करते हैं हम।

पहले घर आती थीं खुशियाँ ,
अब खुशियाँ ढूंढते हैं हम ,
फिर भी मिटा न सके गम ,
क्योंकि बदल गए हैं हम।

तब जो लोग होते थे पैसे वाले ,
बनबाते थे कुंआँ और तालाब ,
राहगीरों और प्यासों के लिए ,
अब , जो लोग होते हैं धनवान ,
लगाते हैं " वाटर - प्लांट ",
छीनते हैं गरीबों का पानी ,
भरते हैं बोतलों में ,
और कमाते हैं पैसे।

तब , गुरुओं को मानते थे भगवान ,
झुकाते थे सिर , देते थे सम्मान ,
अब , जिनको माना गुरु ,
वही चरित्रहीन निकले ,
शिक्षा - दीक्षा क्या देंगे वो ,
वो तो खुद ही गरीब निकले।

तब , ड्योढ़ी पर बँधती थी गाय ,
देती थी दूध ,
पीते थे बच्चे ,
होते थे मजबूत।
अब , गेट पर बँधता है कुत्ता ,
तोड़ता है मुफ्त की रोटी ,
हिलाता है दुम , और
करता है चापलूसी थोथी।

तब , घर के आस - पास लगाते थे -
फूल , फल व सब्जी की बेल ,
अब , गमलों में लगाते हैं कैक्टस ,
पेड़ों पर चढ़ाते हैं अमरबेल।

(  मंजु सिन्हा द्वारा रचित  )
 प्रकाशित -  अगस्त 2015