Monday, August 29, 2016

शायद तुम लौट आओगे

शायद तुम लौट आओगे अपनी भूल जान कर ,
शायद मेरा ख्याल आ गया होगा किसी मोड़ पर ,
पर तुम नहीं आये , बीत गया उदासा पहर ,
पाँव मेरे  ठिठके , लौटा न सकी  तुम्हें घर ।

शायद तुम लौट आओगे बच्चों के पास ,
उन्हें फिर से प्यार करने , उन्हें याद कर ,
तुम नहीं आये , मैं लौट आई , पिता के घर ,
एक बार फिर वृद्ध पिता के कमजोर कंधो पर।

तुम ,वही  रंभा , मेनका , उर्वशी में लिपटे रहे ,
छोड़ नहीं पाए तुम अँगूर की बेटी का साथ ,
मैं रोज तुम्हें समझाती , गिड़गिड़ाती ,
पर , नहीं हुआ कभी भी तुम पर कोई असर।

रोज रात को देर से घर आना , लड़ना - झगड़ना  ,
फिर वही तमाशा , मुझे बेधती पड़ोसियों की नजर ,
उस रात  तो हद हो गई , जब तुमने मेरे साथ - साथ ,
कर दिया अपने ही बच्चों  को भी घर से बाहर।

मैं अब भी तुम्हारे नाम का सिन्दूर ,
माँग में सजाये लड़ रही अपने आप से ,
शायद तुम्हारा ज़मीर लौट आये कभी  ,
मुझे मुक्ति मिल जाए इस काले अभिशाप से।

तुम्हारी बेटी अब बहुत बड़ी हो गई है ,
ताड़ सी लंबी और ताड़ सी ही पतली ,
बेटे के मन में है क्षोभ और आक्रोश भी ,
नहीं बोलता है वह कुछ ,कहता चुप ही भली।

नहीं होने दिया है उजागर अपने दर्द को ,
ज़माना पढ़ ना ले चेहरा ,मुस्कुराती हूँ ,
शायद लौट आओ तुम उस गली को छोड़ कर ,
इसीलिये अँधेरी राह पर दिये जलाती हूँ।

बावजूद इसके , मैं खड़ी हूँ अडिगता से ,
हार गई है तुम्हारी पुरुषात्मक सत्ता ,
इसी हार की खीज से तुम बर्बर हो गए हो ,
करते , अँधेरे में , अकेले में छिप कर घात।

मैंने तोड़ दी हैं तमाम वर्जनाओं को ,
लाँघ लिया है मैंने आकाश , परबत , नदियाँ ,
तुम भले ठुकराते रहो , मैं नहीं हारूँगी ,
किसी भी डगर , किसी भी मोड़ , किसी सरहद पर।








Monday, August 15, 2016

बड़ों का सम्मान

हे प्रभु !हमको दो ऐसा वरदान ,
हम कर सकें बुजुर्गों का सम्मान।

पकड़ ऊँगली चलना सिखलाया ,
गलत  सही का , है भेद बताया ,
अपनी सारी शक्ति जिन्होंने ,
हम सब के हित में है लगाया ,
अपनी बुद्धि , कला , कौशल से ,
देश , समाज , परिवार सजाया।
गरीब , अमीर  , शिक्षित , अशिक्षित ,
सब ने मिल कर यह देश बनाया।

ऐसे माननीय लोगों का ,
करें ना हम अपमान कभी ,
ना हो कष्ट इनको कोई भी ,
इनका रखें  ध्यान सभी ,
सम्मान करेंगे यदि बड़ों का ,
पायेंगे हम आशीष सभी ,
नींव सहेज कर यदि रखेंगे ,
सुन्दर  दिखेगा भवन तभी।

Saturday, August 6, 2016

" शर्म " - ' बेशर्म '

भाई , आप मुझ कविता सुनाने कहते हैं ,
कविता सुनना मुझे अच्छा लगता है ,
लोग कविता सुनाते हैं ,
लोग ताली बजाते हैं ,
हम भी कविता सुनते हैं ,
सब को देख कर ,
हम भी ताली बजाते हैं ,
वैसे ताली बजाने में कुछ भी नहीं रखा है ,
बोर कविता पर भी ,
कवियों को ताली बजाते देखा है।

मुझे कविता नहीं आती ,
न लिखना , न पढ़ना ,
गो  कि , काला अक्षर भैंस बराबर ,
लेकिन , चूंकि आप कह रहे हैं ,
कुछ जिद भी कर रहे हैं ,
तो , आईये , मैं कविता तो नहीं ,
एक वाकया सुनाता हूँ ,
और इसे ही ,
अपनी कविता बताना चाहता हूँ।
ताली बजाना कोई जरूरी नहीं है ,
क्योंकि यह एक किस्सा है ,
जीवन का एक हिस्सा है।
एक दिन मेरे एक प्रिय मित्र ने
मुझ से पूछा -
भाई ,  ' शर्म ' क्या होता है ?
और
" बेशर्मी " क्या होती है ?

प्रश्न सुनकर मैं  अचकचाया ,
पहले तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया ,
दिमाग पर जोर लगाया ,
अपनी भैंस वाली बुद्धी में
जो कुछ आया , उन्हें बताया ,
और एक ज्वलंत किस्सा सुनाया।
किस्सा यूँ है कि
तमाम अखबारों और न्यूज़चैनलों में
एक दिन एक समाचार आया -
एक शहर के जनपथ  ( हाईवे ) पर
अपहरण और फिर
माँ - बेटी के साथ  ....... 
दूसरे दिन एक मंत्री जी का बयान आया -
" राजनितिक साजिस "
तीसरे दिन फिर
एक अन्य मंत्री जी ने फरमाया -
यही घटना पहले वाले मंत्री जी के
घरवालों के साथ होती तो  ?
 ' अमर्यादित भाषा ' ।

भाई , हाईवे पर जो कुछ हुआ
वह है  " शर्म "
और , बाद में जो कुछ हुआ ,
वह है  " बेशर्मी "
अमर्यादित भाषाएँ भी
 ' बेशर्म ' की श्रेणी में होती हैं।
' शर्म ' और  ' बेशर्म ' की तमीज
अब किसी में नहीं रह गई है ,
क्या पढ़े , क्या अनपढ़े ,
क्या बड़े क्या छोटे ,
क्या संतरी क्या मन्त्री ,
इस कुकृत्य में शामिल हो
केवल  " गंगा  "  को ही नहीं
अपितु , सम्पूर्ण वातावरण को
प्रदूषित कर रहे हैं ,
ऐसे में  " गंगा  " की सफाई क्या ख़ाक होगी ?

स्कूल हो या कॉलेज , होटल हो या घर ,
बाजार या मॉल ,
खेल का मैदान हो या दफ्तर ,
ट्रेन हो  या हवाई जहाज ,
हर रोज चीखें उठती हैं ,
गाँव -गली , हर घर - हर शहर ,
सभी सहमें हैं ,
कोई  ' गौ रक्षा ' के नाम पर ,
तो कहीं जातिवाद के नाम पर ,
अमानवीय यातनाएं दे रहा है ,
जिन्हें आप देख - सुन कर भी
नहीं देखते ,
कहीं नंगा कर उनके खुले जिस्म पर
सोटियां बरसाते हैं ,
कहीं नंगे कोमल तलवों पर
प्रहार करते हैं ,
मानो
मरे हुए मवेशियों के खाल उतारने के
काम का जिम्मा  जिनका था
उनसे , उनका हक़ छीन कर
ये धर्म और समाज के तथाकथित उद्धारक,
जीवित लोगों की चमड़ी उधेरने में लग गए हैं।

यह शर्म ही नहीं , अति शर्म की बात है
और उससे भी इतर
इन दुर्घटनाओं पर राजनीति
' बेशर्मी ' की हद की  बात है।
ऐसी हर वीभत्स
घटनाओं - दुर्घटनाओं पर
सभी राजनीतिक पार्टियों का,
पीड़ितास्थल पर,
एक - एक कर जमावड़ा,
और पीड़ित -पीड़िता के
अस्मत को तार -तार करते ,
उसके दग्ध ह्रदय के
जख्मकी धधकती आग पर ,
अपनी - अपनी
राजनितिक रोटियाँ सेंकना भी
बेशर्मी की पराकाष्ठा नहीं , तो
और क्या है ?
अन्यथा , नहीं तो ,
ऐसी घटनाओं की पुनरावृति नहीं होती।

भाई ,यहाँ तो , न उम्र देखते , न जाति ,
सभी एक ही जूठन पर पिल पड़ते हैं।
कानून भी कभी - कभी
उघेड़ती है बखिया ,
इन दग्ध पीड़ितों की ,
जो , रहा - सहा कसर बाँकी रह जाता है ,
उसे पूरी करता है  ' मानवाधिकार आयोग  ' ,
पीड़ितों का मानसिक शल्य - क्रिया कर ,
जो जख़्म सूखने को है ,
उसमें वे  " स्पीरिट " डाल  कर रखते हैं जिन्दा ,
ताकि वे  , कह सकें  -
हमने भी काम किया है।
क्या ये  कानूनी प्रक्रियायें  
बिना शोर - शराबे के नहीं हो सकतीं ?

मेरी समझ में  ' शर्म ' और बेशर्मी को
किसी और तरीके से
परिभाषित नहीं किया जा सकता।
आप ही बताइये -
 क्या आपके पास भी
कोई नई परिभाषा है क्या ?
किस्सा यहीं करते हैं समाप्त ,
आप ताली बजाइये या नहीं ,
पर यह तो सोचिये
समाज कहाँ जा रहा है ?
और ,
जहाँ  जिस गर्त में जा रहा है
उससे उबरने का रास्ता बताइये।
उससे उबरने का   ........

                 विजय कुमार सिन्हा  " तरुण "
                 डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून।
                 (  उत्तराखण्ड  )
                 पिन  - 248001