Friday, January 22, 2016

रोटी का स्वाद

रोटी का स्वाद  अमीर से नहीं ,
मजदूरों से पूछो ,
जो हाड़ - तोड़ मेहनत  के बाद ,
' नंगे ' बदन 
टपकते  ' स्वेद ' कणों में भींगा,
रोटी का  टुकड़ा ,
आँखें बन्द कर
अपने मुँह में डाल रहा है   .......

      ------- ( प्रकाशित )

       

Tuesday, January 19, 2016

दो कवितायें

         ( एक )

    औद्दोगिक शहर

कारखानों की चिमनी से
निकलता है धुआँ ,
भर जाता है
फेफड़ों में ,
एक से निकलता है
दूसरे में समा जाता है ,
यह औद्दोगिक शहर
कहलाताहै ।
           (  दो   )
      विकसित शहर

जंगल काट दिए गए हैं ,
सड़क किनारे लगे
फलदार पेड़ों पर
चली हैं आरियाँ ,
सड़कें चौड़ी हो गई हैं ,
दौड़ती हैं ढेर सारी
मोटर गाड़ियाँ ,
छोड़ती हैं धुआँ ,
नथनों में समाते हैं ,
बचे पेड़ों पर
हवा गुमसुम है ,
खामोश है चिड़ियाँ ,
घोंसले बिखर गये  हैं ,
तपता है धूप ,
तपता है -
पत्थर का शहर ,
दोपहरी को
नदी प्यासी
खोज रही
अपना ही अस्तित्व ,
लोग कहते हैं -
यहाँ बहुत
विकास हुआ है ,
यह है विकसित शहर।
           



Saturday, January 16, 2016

रणभेरी बजा दो

सरहद के पार देश के दुश्मन को जाता दो ,
जो देश के दुश्मन हैं , उन्हें आज बता दो ,
क्या होता है अंजाम समर का ये दिखा दो ,
नामो-निशान  दुनिया से दुश्मन का मिटा दो।

इस देश के हर वासी को है नाज हिन्द पर ,
गद्दारे वतन जो भी हों सूली पर चढ़ा दो ,
हम एक हैं, हम एक हैं, हम एक-एक,एक रहेंगे ,
संदेश हमारा है ये , दुनियाँ को बता दो।

है नहीं पसंद गर , उनको अमन की बात ,
छोड़ो अमन की बात , अब रणभूमि सजा दो ,
चन्दन है माटी देश की , माथे पर लगा  लो ,
आया है यह समय कि अब रणभेरी बजा दो।

                    

Friday, January 15, 2016

मेरा गाँव

काश !
तुम आ जाते ,
देखते मेरा गाँव।
माना कि नहीं हैं सड़कें ,
है नहीं जल व्यवस्था ,
किन्तु ,
नहीं है प्यार का अभाव ,
हमारी आँखों में
बहुत पानी है।
गो कि ,
बिजली भी नहीं है ,
गाँव में होता है
स्याह अन्धेरा ,
पर , हमारे ह्रदय में है -
प्रकाश - पुंज
प्यार का।
ये टेढ़ी - मेढ़ी
पगडंडियाँ , हैं
सिरायें और धमनियाँ ,
खेतों में
उगती फसलें हैं
पूरे देश के दिल की धड़कन।
कैसे समझाऊँ मैं
तुम्हें ,
गाँव , नहीं होता है
केवल गाँव ,
वह है
हमारी जननी ,
तुम्हारी जननी ,
सब की जननी ,
करती है पोषण ,
सहती है
सब व्यथा ,
ताकि ,
तुम सजे रहो ,
सुन्दर रहो ,
भव्य रहो
और
सदैव खुश रहो   ..... ...

Sunday, January 10, 2016

विडंबना

         
बच्चों को खिलौनों में देते हैं
बंदूक ,तीर और कमान ,
उम्मीद यह रखते हैं ( कि )
बनेंगे अच्छे और महान।
            
बेटियों को देते हैं शिक्षा ,सिखलाते हैं -
तुम हो आजाद , करते हैं प्यार ,
बहुओं पर रखते हैं कड़ी नजर ,
( और ) करते हैं अत्याचार।
              
दाल-रोटी का रोना रोते,
खाते  बर्गर , चाउमिन ,
सुबह - सवेरे दौड़ लगाते ,
शाम को जाते जिम।
              
तीर्थ के नाम पर दौड़ लगाते ,
बच्चे , बूढ़े और जवान ,
धर्म नगरी बदल गई है ,
हो गई है - पिकनिक स्थान।
           
देश में बढ़ रही है - बुजुर्गों की तादाद ,
पर नहीं दिखते, कोई बुजुर्ग ,
क्योंकि रंग लिये हैं
सभी ने अपने बाल।
          
घर में भी अब नहीं सुरक्षित
वृद्ध और लाचार ,
बहुएँ उन पर कर रहीं
लात - घूँसों की बौछार।
         ---- रचयिता - मंजु सिन्हा

नोट  : - हलन्त  ( फरवरी  २०१६ के अंक ) में प्रकाशित।