Friday, October 31, 2014

एक ग़ज़ल


ज़िन्दगी  कितनी आज सस्ती है ,
क़ातिलों की  जहाँ पे बस्ती है ,
ख़ौफ़ भी इनसे हैं डरा करते ,
मौत की रूह काँप जाती है।

ऱोज बनते हैं ,तोड़े जाते हैं ,
घऱ अमीरों के ऐसे होते हैं ,
न पूछ हाल मुफ़लिसों का,
खुले आसमां में सोते हैं।

घऱ चिराग़ों  रौशनी पाते ,
घऱ के आँगन इन्हीं से हैं छाजते ,
रखना महफूज़ बद्हवाओं से ,
घर चिराग़ों से भी जला करते।

गो कि वे अपने ही पड़ोसी हैं ,
बंद अपने दरों में रहते हैं ,
यूँ भी ख़ामोश ना रहा कीजै ,
वक़्त की ये बड़ी ज़रूरत है।


 

Tuesday, October 28, 2014

इस धरा पर एक नई गंगा निकालनी चाहिए।



हो गई शापित धरा , परित्राण होना चाहिए  ,
इस धरा पर एक नई गंगा निकालनी चाहिए। 

हर त्रषित जन -जन का अब कल्याण होना चाहिए ,
रुष्ट शिव की ही कृपा फिर इस धरा पर चाहिए। 

पाप क्या है ,पुण्य क्या है ,मैं नहीं कुछ जानता ,
वक्त के  हाथों रहा हूँ, जिन्दगी भर नाचता।

जो सदा से ही रहा है , प्यार सबको बाँटता ,
आज फिर इस भोले शिव का, प्यार सबको चाहिए। 

इस धरा पर एक नई गंगा निकालनी चाहिए। 

हो गईं नदियाँ अपावन , भक्ष कर अभक्ष्य का ,
पतित-पावनी एक सलिला, हम को फिर से चाहिए।

अवतरित कर ला सके ,शिव की जटा से गंग जो ,
ऐसे भागीरथ का ,फिर ,अवतार  होना चाहिए।

त्राण सबका कर सके जो ,त्रास सबका हर सके ,
मोक्ष सबको दे सके जो , गंगा जल वो चाहिए।

कर सकूँ जो वक्त को ,वश में, वो शक्ति चाहिए ,
हे जटाधर मुझको तो, वरदान ऐसा चाहिए।

इस धरा पर एक नई गंगा निकालनी चाहिए। 
 


            --- ( प्रकाशित )

Sunday, October 19, 2014

मुझको गुब्बारे दिलवा दो

माँ ! आया गुब्बारे वाला ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो ,
लाल , हरे कुछ नीले ,पीले ,
उनमें से बस एक दिला दो ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो।

मेले में हैं बहुत सी चीजें ,
पर सब कुछ तो नहीं चाहिए ,
बेच रहा वह हवा मिठाई ,
सस्ती है वह मुझे दिला दो ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो।

नहीं और कुछ मुझे चाहिए ,
गुड्डा- गुड़िया नहीं चाहिए ,
चाहे मुझसे कसम ही ले लो ,
बस दोनों चीजें दिलवा दो ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो।

घर भी पैदल चला जाऊँगा ,
गोद  में तेरी नहीं चढूँगा ,
नहीं तंग मैं तुझे करूँगा ,
बस मेरी विनती तुम सुन लो ,
मुझको गुब्बारे दिलवा दो।

(   मासिक पत्रिका  " युगवाणी  " , देहरादून  माह दिसम्बर  के अंक में प्रकाशित हुई है   )

Friday, October 17, 2014

दूर देश हम कहाँ जायेंगे


















एक चिड़ी ने कहा चिड़े से ,
दूर देश हम कहाँ जायेंगे   ,
इस जीवन की भाग- दौड़ से ,
अच्छा है हम  मिट जायेंगे।

सारे जंगल काट दिये हैं ,
नीड़-बसेरे कहाँ बनेंगे ,
कंकड़ - पत्थर के महल खड़े हैं ,
बोलो  बच्चे कहाँ जनेंगे ।

शीत -ताप , आँधी -झक्खर से ,
हम सब कैसे यहाँ बचेंगे ,
मँहगाई में लोग पिस रहे ,
दाने हमको कहाँ मिलेंगे।

ताल-तलैये सूख जायेंगे ,
नदियों में जल नहीं रहेँगे ,
ख़ुश्क हलक की प्यास बुझाने ,
नीर कहाँ से हमें मिलेंगे ।

यहाँ तो गिद्धों की बस्ती है ,
निर्बल का कुछ काम नहीं है ,
नोच-नोच कर जो खायेंगे ,
वही यहाँ के सिद्ध बनेंगे।

         ----- ( प्रकाशित )

Saturday, October 11, 2014

मेरे आँगन पेड़ आम का
















अहो ! आज फिर दिख गई ,
गोरैया मेरी मुँडेर पर ,
कुछ कोमल पत्ते दिखे ,
कटे आम के पेड़ पर।

मेरे आँगन पेड़ आम का ,
भारी और गरबीला था ,
फल भी उसमें बहुत थे लगते ,
हर फल बहुत रसीला था।

तोता , मैना और गिलहरी ,
सबका यहीं बसेरा था ,
नए-नये नन्हे पंछी का ,
इसमें स्थायी डेरा था।

रोज सबेरे सब मिलते थे ,
मिलकर खुशी मनाते थे ,
अपने मीठे कलरव से ,
आँगन में खुशियाँ भरते थे।

नित दिन ही , पत्नि भी मेरी ,
उनको दाने देती थीं  ,
दाने चुगते देख उन्हें , वह ,
मन  ही मन खुश होती थीं।

एक दिवस ऐसा भी आया ,
पड़े काटने आम के पेड़ ,
चुपके-चुपके मैं भी रोया ,
देख गिरे अण्डों के ढेर।

हुई गिलहरी गुमसुम-गुमसुम ,
पंछी सब भी हुए हताश   ,
देख उजड़ते उनके घर को ,
मैं भी संग-संग हुआ उदास।

नहीं दिखी फिर कोई गिलहरी ,
न पंछी ही कोई दिखे ,
सूरज ने अपनी गरमी के ,
आँगन में इतिहास लिखे।

घर के छत ,छप्पर और छाजन ,
सब के सब ही लाल हुए ,
राहत थी जब पेड़ यहाँ थे ,
गर्मी से बेहाल हुए।

यही सोचते रहे थे हम सब ,
कोपल इसमें नये खिलें ,
फिर से इसमें फल लग जायें ,
पंछी फिर से आन बसें।

आज दिखे जब कोमल पत्ते ,
मन में मेरे हुआ हुलास  ,
फिर आयेंगे तोता, मैना ,
संग गिलहरी की है आश ।

आज दिखी जब मुझे गिलहरी ,
मन में यह विश्वास जगा ,
पेड़ हमें देते हैं जीवन ,
हर आँगन इक पेड़ लगा।


              -------    ( प्रकाशित )