Friday, September 30, 2016

शीश को मैं वार दूँ

धरा क्या , आकाश क्या , पाताल को भी लाँघ लूँ ,
हूँ शिवा मैं हिन्द का , मैं काल को भी बाँध लूँ।
सिंधु की मैं गर्जना हूँ , अनल दावानल का हूँ ,
नागवन के व्याल भी उंगलियों  पर साध लूँ।

दशों दिशाएँ थर्राती , हुँकार भरता जब कभी ,
इस गगन से उस गगन तक , शत्रु को मैं नाध लूँ।
हैं नहीं हम पालते निज , शत्रुता बेकार की ,
पर नहीं ललकार को सुन मौनता को साध लूँ।

कृष्ण की है देवभूमि , हैं कुचलते नाग को ,
फैलते फण विषधरों के बाँसुरी से नाथ लूँ।
हम नहीं रणक्षेत्र में हैं पीठ दिखलाते कभी ,
मातृभूमि की चरण में शीश भी मैं वार दूँ।

है विजय के गीत का परचम हमारे हाथ में ,
मैं तिरंगे को सदा ही अपने काँधे काँध लूँ।

                    ------ -  (  प्रकाशित )