Wednesday, August 31, 2022

"मेरा बचपन लौट आया है "

बाद मुद्दत के , लौट कर ,
अपने शहर आया ,
सब कुछ बदला -बदला पाया ,
वही रास्ते थे , गालियां वही थीं ,
पर अब वहाँ , वो रौनकें नहीं थीं।
घर - मकाँ ,जो खपरैले - छप्पर के थे ,
उन पर कंक्रीट के छत उग आये थे ,
खिड़कियां , पहले से कुछ बड़ी हो गई थीं ,
उन पर रंग - रंग के पर्दे झिलमिला रहे थे ,
पर उनमें वो मुस्कुराहटें नहीं थीं।
बचपन के अतीत के पन्नों को
एक एक कर पलटता गया ,
किन्तु ,
अब वो किलकारियां नहीं थीं ,
शरारतें नहीं थीं ,
अब , था , तो बस ,
यादों के रेत का सपाट मैदान ,
ना ही अब किशोरापन का वैभव था ,
ना ही वो आँखें थीं , जिनमें वो चमक थी ,
अपनापन था ,आकर्षण था, 
कशिश थी , पुकार था  .........
सब अनजाने लगे ,
कुछ जाने हुए से भी ,
जिनकी आँखें , झुर्रियों में खोई - खोई
कुछ याद करने की कोशिश !
अरे ! यह तो मुरली लगता है ,
तभी एक आवाज आती  है ,
पुकारती हुई
अरे मुरली ! ओ मुरली बेटा  .....
अरे काकी तुम !
तुम नहीं पुकारती , तो ,
मैं तुम्हे पहचान भी  नहीं पाता ,
कैसी हो काकी ?
आगे बढ़ कर,
काकी के चरण छूता हूँ ,
कैसी हो क्या बेटा ,
अब तो मेरी चलने की बारी है ,
अरे बेटा , कित्ते दिन बाद आया है ,
काकी को भी भुला बैठा !
उसकी आँखें भींग जाती है ,
नहीं काकी ,
भूल जाता तो फिर आता ही क्यों ,
आवाज भर्रा गई ,
आँखें छल - छला गईं ,
मैं काकी से पूछना चाहता था -
काकी वह रमिया कहाँ गई ,
और वह शिवचरण ?
पर पूछ नहीं पाया ,
बस , काकी के गले  लग कर
सुबकता रहा ,
लगा मेरा बचपन लौट आया है ,
मेरा बचपन लौट आया है  ........
मेरा बचपन लौट आया है। .....

विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
रचना तिथि  - 31 - 08 - 2022 

प्रकाशित - हलन्त -माह October 2022 

Tuesday, August 30, 2022

डाल पर बैठा परिंदा

सहमा - सहमा है ,
डाल पर बैठा परिंदा ,
डर  हवा में तैर रहा है ,
जाने कब,
कोई चील या कोई शिकारी पक्षी ,
झपट्टा मार जाये !
हर तरफ कोलाहल है ,
फिर भी,
मन के अन्दर सन्नाटा है ,
झूठी हँसी होठों पर है ,
लब खामोश है ,
श: ! श: !
कुछ मत बोलो  , चुप रहो !
बहकते हवाओं का कोई भरोसा नहीं ,
कब किधर से आ जाये ,
आँधी या तूफ़ान बन कर ,
कब उड़ा ले जाये !
यह घरौंदा तिनके का !
तिनके तो क्या,
बड़े -बड़े , ऊँचे - ऊँचे पेड़ ,
बड़ी -बड़ी आलीशान अट्टालिकायें भी  ........
डाल पर बैठा परिंदा ,
सहमा - सहमा है  .......

- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
   रचना तिथि :- 12. 03. 2021

Thursday, August 25, 2022

तपता हुआ शहर है

तपता हुआ शहर है , संभल कर पाँव रखना ,
जलता हुआ शहर है , घर अपना बचाये रखना।
जहरीली हो गई है , हवा भी इस शहर की ,
तुम पर नजर है सबकी ,मुँह -नाक बन्द रखना।
कानों को खुला रखना , हर पल सजग हो रहना ,
कोई राह में मिले तो , आँखों से बात करना।
गर्दिश का ये समय है , खुद को बचाये रखना ,
काजल उछाल रहा है , दामन बचा कर रखना।
सैयाद घूमता है , हर शै , हर इक गली में ,
परिन्दों ना शोर करना , " पर " अपने तौल रखना।
तैयार है कफ़स भी ,सोने की तीलियों के ,|
दानों की चाहतों के , लालच में तुम ना पड़ना। 

रचना तिथि -  19 -01 - 2021 

Wednesday, August 17, 2022

डॉक्टर माँ का बेटा

 वह अबोध,
थक - हार कर,
निराश हो कर ,
माँ का इन्तजार करते -करते ,
दादी की गोद में सो जाता है ,
वह , एक डॉक्टर माँ का बेटा है।
वह, महज तीन साल का है ,
पर उसे बोध है ,कि ,
उसकी माँ
एक बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर है ,
दूसरों की होठों पर
मुस्कान लाने के वास्ते ,
अपने , दुधमुँहे बच्चे को
घर पर छोड़ आती है।
बच्चा तो बच्चा ही है ,
उसे दादी की जरूरत है ,
पर ,
माँ की भी जरूरत है  ........
रचना तिथि :- 23 -05 -2022

Sunday, August 7, 2022