Saturday, December 24, 2016

बड़ी ठंढक सी लगती है

बड़ी ठंढक सी लगती है
तुम्हारे गेसू  में आ कर ।
तुम्हारे पास होता हूँ ,
सुकूँ इस दिल को मिलता है ,
तुम्हारी साँसों की खुशबू से ,
मेरा ये  दिल धड़कता है। 

छू कर नर्म  होठों को
पवन भी गुनगुनाता है ,
चुरा कर आँख का काजल
ये बादल भी मचलता  है।

गिरा जो शानो से आँचल
ये मौसम भी बहकता  है ,
तुम्हारी ही हँसी से तो
चमन भी खिल - खिलाता है।

घटाओं को शिकायत है
तेरी ज़ुल्फ़ों में ख़म क्यों है ,
जो तुमने ख़म को खोला तो
झमक कर घन बरसता है। 
 
ब्लॉग तिथि - 24 - 12 - 2016


Wednesday, December 14, 2016

काले धन वाले

नोट की लाइन लगने वाले ही , काले धन वाले हैं ,
जो काले धन वाले हैं , लाइन में लगने वाले हैं। 
करैं किसानी हाथ हो काला , मजदूरी में हाथ हो काला ,   
करैं पढ़ाई हाथ हो काला , करैं चाकरी हाथ हो काला ,
ये काले धन वाले हैं हैं , लाइन में लगने वाले हैं ,                             
नोट की लाइन लगने वाले  ही , काले धन वाले हैं। ( 1 )

अम्मा - बाबू , दादा - दादी , रोज ही लाइन लगते हैं ,
फिर भी नोट हाथ न आते , खाली हाथ घर आते हैं ,
पी कर पानी विस्तर में वे , भूखे पेट सो जाते हैं ,
यही तो हैं काले  धन वाले , लाइन में लगने वाले हैं।
नोट की लाइन लगने वाले ही , काले धन वाले हैं।( 2 )

खाते जो ईमानदारी की , नित विदेश को जाते हैं ,
लंबी - लंबी गप्पें  हाँकै , भाषण यही तो देते हैं ,
बड़े - बड़े  महलों में रहते , नित दिन पार्टी करते हैं ,
ये मौज मनाने वाले हैं , गुलछर्रे उड़ाने वाले हैं।
नोट की लाइन लगने वाले ही , काले धन वाले हैं।(3 )

जिनके पास नहीं काला धन , सुख की नींद वो  सोते हैं ,
बैंक के पीछे दरवज्जे से , नोट बटोर ले आते हैं ,
ये  सफ़ेद धन वाले  हैं , सब नेता जी के साले हैं ,
जो काले धन वाले हैं , लाइन में लगने वाले हैं।
नोट की लाइन लगने वाले ही काले धन वाले हैं।( 4 )

अंधे हाथ बटेर लगी है , स्वाद भुनाने वाले हैं ,
लूट - लाट कर , गठरी बाँध , रफूचक्कर होने वाले हैं
ख़्वाब दिखाने वाले , लॉलीपाप थमाने वाले हैं ,
भीख माँगने को ये भैया , पात्र थमाने वाले हैं ,
जो काले धन वाले हैं , लाइन में लगने वाले हैं ,
नोट की लाइन लगने वाले ही काले धन वाले हैं।( 5 )


 रचना तिथि / माह -दिसंबर 2016 
ब्लॉगड - 16 -12 -2016 




Saturday, December 3, 2016

" मरी खाल की साँस सों

अपनी सत्ता और पुत्रों के प्रति मोह ने
आज फिर ,
धृतराष्ट्र को अंधा बना दिया है ,
उसके चारों ओर खड़े
जनतंत्र के पुजारी
दुश्मन  दीख रहे हैं,
अपने अजेय किले
और ,
पुत्रों - बान्धवों की कतार  देख
वह कुटिल मुस्कराहट
और ,
विद्रूप हँसी से
सबका उपहास मना रहा है।
फिर एक महाभारत की तैयारी
कलियुग ने कर ली है।
फैली हुई अव्यवस्थायें
 उसे नहीं दीखतीं ,
उसकी अट्टहास में
गिरते - पड़ते - मरते जन
नहीं दीखते ,
उसकी आँखों पर
अहंकार का पर्दा पड़ गया है।
इतिहास अपने आपको दुहराता है ,
वही चौकड़ी है ,
शकुनि  भी है , गुरु द्रोण  भी ,
वृद्ध भीष्म पितामह भी ,
जिन्हें अब
एक बगल खड़ा कर दिया गया है ,
वह भी वही बोलते हैं ,
जो , धृतराष्ट्र  बुलबाना चाहते हैं।
अरे ! ओ धृतराष्ट्र
काल का पहिया घूमता है,
भूल मत , यहाँ सब नश्वर है ,
न तू रहेगा , न तेरी सत्ता ,
न तेरे पुत्रों - बान्धवों की फ़ौज ,
जो बच जाएंगे तेरे परिजन
तब वही तेरा उपहास करेंगे।
कहाँ खोया है ?
मन की आँखें खोल ,
" मरी खाल की साँस  सों
   लौह भस्म हो जाय " ।
मत ले आह ,
दुनियाँ ने पत्थरों को पूजा है
तो , ठोकरें भी लगाई हैं।
दर्प की अग्नि में ,
जल जाता है सब कुछ ,
न तख्त ही रहता ,
न ताज ही रहता ,
एक प्यार के ही न्याय का
बस राज है रहता।