Sunday, November 15, 2015

ग़ज़ल

                     

समंदर भी पटक कर सर , किनारों से लौट जाता है ,
मुफलिसी में आदमी भी ,जिन्दगी से हार जाता है।

सुनो ऐ ! हारने वालों , ध्यान से मेरे इस बात को ,
ज़रा से हौसले से , परिंदा , समंदर  पार जाता है।

संघर्ष न हो जीवन में , तो ,जीना बेकार है यारों ,
सच तो है यही,कि , संघर्ष , जीवन को निखार जाता है।

ज्यादा हमदर्दी से , आदमी भी शरमसार होता है ,
कभी - कभी ग़ुरबत भी तो , आदमी को मार जाता है।