Tuesday, January 19, 2016

दो कवितायें

         ( एक )

    औद्दोगिक शहर

कारखानों की चिमनी से
निकलता है धुआँ ,
भर जाता है
फेफड़ों में ,
एक से निकलता है
दूसरे में समा जाता है ,
यह औद्दोगिक शहर
कहलाताहै ।
           (  दो   )
      विकसित शहर

जंगल काट दिए गए हैं ,
सड़क किनारे लगे
फलदार पेड़ों पर
चली हैं आरियाँ ,
सड़कें चौड़ी हो गई हैं ,
दौड़ती हैं ढेर सारी
मोटर गाड़ियाँ ,
छोड़ती हैं धुआँ ,
नथनों में समाते हैं ,
बचे पेड़ों पर
हवा गुमसुम है ,
खामोश है चिड़ियाँ ,
घोंसले बिखर गये  हैं ,
तपता है धूप ,
तपता है -
पत्थर का शहर ,
दोपहरी को
नदी प्यासी
खोज रही
अपना ही अस्तित्व ,
लोग कहते हैं -
यहाँ बहुत
विकास हुआ है ,
यह है विकसित शहर।