Monday, November 19, 2018

नदी और नारी

नदी और नारी दोनों की गति है एक समान ,
अनुशासित जब तक रहे ,तब तक है सम्मान।
जब भी नदियाँ हो जाती हैं चंचल औ उच्छृंखल ,
पावन बनी नहीं रह जाती और न जल ही निर्मल।
दिशाहीन हो कर बह जाती , इधर-उधर राहों पर ,
नहीं स्वच्छ वह रह पाती है , तृषित कामना लेकर।
जब तक है सम्मान ,पूजते नदी और नारी को ,
पंडित,ज्ञानी  अर्पित करते धूप,पुष्प औ चन्दन।
टूट जभी जाता है यह लघु अनुशासन का  बंधन ,
सुखमय जीवन में रह जाता ,बस क्रंदन ही क्रंदन।
है स्वतंत्र नारी का जीवन , जैसे कटा  पतंग ,
सुचिता सदा छोड़ देती ,आजाद नदी का संग।
अनुशासन में बद्ध प्रकृति भी ,शांत,सौम्य ,शीतल है ,
गर टूटा अनुशासन तो ,फिर , चहुँ ओर जल-थल है।
अनुशासन से च्युत  नारी का धर्म चला जाता है ,
धर्मविहीन हो कर्म नारी का पशुवत हो जाता है।
अनुशासन  विहीन यह जीवन ,सुघर नहीं हो सकता ,
काँटो के पहरे में देखा , है गुलाब मुस्काता।
प्रेम और सहयोग बिना , आकाश न छूती आशा ,
होती कभी न पूर्ण  'कल्पना 'की उड़ान-अभिलाषा।