Thursday, July 26, 2012

झरोखा

मैं    झरोखा    हूँ  ,
जिससे  झांकते  हैं  लोग  ,
मेरे  अन्दर  का   आदमी  ,
जिसमें  समाया  है
पूरा  रेल   समाज    ।
लोग  मुझमें  ही  ढूंढते  हैं
आस्था  ,  सौम्यता  ,
शीलता  और  विनम्रता  ,
और
एक   छवि   बनाते   हैं
सिर्फ  मुझमें   देखकर    ।

"एक   ही   मछली   ,
तालाब   गंदा   करती  है  "
यह   कहावत   चरितार्थ   न  हो
इस   भारतीय  रेल  पर  ,
इसलिये  ,
आओ     हम  करें  प्रतिकार
अपने  अन्दर  के  दुर्गुणों   का
और  करें  विस्तार
अपने  हृदय   के  उद्गार   ,
सहज  में   जीत  लेंगे
प्यार  से   प्यार   को         ।

हम   हिमालय  से   अडिग  ,
सत्य   की  राह  पर   ,
कर्मठ  , कर्मयोगी   की  तरह  ,
" बुद्ध "  के  अनुयायी   रहे   हैं  ,
हमें  प्रलोभन   और   आशक्तियाँ
डिगा   नहीं  सकतीं     ,
हमने  क्रोध   को  जीत  लिया  है  ,
जिस  तरह  "अंगुलीमाल  " को
जीता  था  हमने
प्यार  से  , मृदुलता  से  , नम्रता   से   ।

आओ  , आज   हम   ,
इस   प्रांगन   में   प्रतिज्ञा    करें    -
अपने  मृदुल   व्यवहार   और  आचार  से  ,
नम्रता  और  विनम्रता   से
जीत  लेंगे  ,  इस  विश्व   को  ;
फिर  कोई  अंगुलिमाल  पैदा  न  हो  ,
जो  ,  चुपके  से  मेरी  उंगलियाँ   काटे
या  घाव  कर  दे   मेरी  उंगलियों     में ,
अत:   आओ    ,
इस   " झरोखे  "  को  सजायें
मृदुलता   और  नम्रता  की  बेल     से      ।

(  नोट  -   वर्ष  1988  में  तत्कालीन   वरिष्ठ   मंडल   वाणिज्य   अधीक्षक  , उत्तर   रेलवे  , मुरादाबाद
    द्वारा   पुरष्कृत   )