Thursday, December 31, 2015

तुम मेरे पास चली आना ,

ये दिल उदास जब हो जाये  ,
नहीं कोई राह नजर आये ,
तुम मेरे पास चली आना ,
अपनी कहना ,मेरी सुनना।

जग की दो रंगी नीति यहाँ ,
इन पर विश्वास नहीं करना ,
अपने मन की बातें सुनना ,
अपने मन की बातें करना।

मन की अपने मन में रखना ,
दिल के सब जख्म छुपा रखना ,
न बात कोई लब पर लाना ,
ना आँखों में आँसू लाना।

तेरे अश्कों की भाषा को ,
क्या जग समझेगा नादां है ,
जो बात किसी से कह न सके ,
दिल में वो बात सँजो रखना।

न जाने " तरुण " कब बात वही ,
रौशन तेरी दुनियाँ कर जाए ,
यादों के चिरागों को न बुझा ,
ये शमां जलाये ही रखना। 

Friday, December 18, 2015

मैं हवा का एक झोंका

मैं हवा का एक झोंका ,
मुँह न मुझसे फेरो तुम ,
प्रणय के इस मास में प्रिय  ,
गेह लो बाँहों में तुम।

पल दो पल की जिन्दगी है ,
पल दो पल का है मिलन ,
एक पल ठहरूँ न ठहरूँ ,
आ भी जा मेरे सनम।

चाँद की किरणें सुहानी ,
आज पूनम रात की ,
एक पल बैठो मेरे संग ,
कर लो बातें प्यार की।


आज दिल की बात कह लो ,
आज दिल की बात सुन लो ,
फिर क्या जाने आज का पल ,
लौट कर आये न कल।

है नहीं मनुहार का पल ,
बस यही एक प्यार का पल ,
आ गले मिल जायें हम - तुम ,
भूल कर सब द्वंद हम।

मैं हवा का एक झोंका   ..

Sunday, November 15, 2015

ग़ज़ल

                     

समंदर भी पटक कर सर , किनारों से लौट जाता है ,
मुफलिसी में आदमी भी ,जिन्दगी से हार जाता है।

सुनो ऐ ! हारने वालों , ध्यान से मेरे इस बात को ,
ज़रा से हौसले से , परिंदा , समंदर  पार जाता है।

संघर्ष न हो जीवन में , तो ,जीना बेकार है यारों ,
सच तो है यही,कि , संघर्ष , जीवन को निखार जाता है।

ज्यादा हमदर्दी से , आदमी भी शरमसार होता है ,
कभी - कभी ग़ुरबत भी तो , आदमी को मार जाता है।

Friday, October 30, 2015

गति है तो जीवन है

पर्वतराज हिमालय कहता ,
सूरज चल - चल कर यह कहता ,
वन - वन पवन सुनाता फिरता ,
चंचल भँवर गीत  है गाता ,
फूल सदा ही हँस कर कहता ,
बहती  नदिया का जल कहता ,
जन - जन को संदेशा देता ,
गति है तो जीवन है , वरना ,
बिन गति , जीवन की अवनति  है।

सागर की  लहरों का उठना ,
बार - बार तट से टकराना ,
पर हिम्मत को नहीं हारना ,
लिपट -लिपट कर झटक तीर से ,
उद्भाषित  करती भावों से ,
दर्शन जीवन का बतलातीं ,
लहरें गीत गति का गातीं ,
गति है तो जीवन है ,वरना ,
बिन गति , जीवन की अवनति  है।

Monday, October 26, 2015

चंदन तो चंदन होता है

चंदन तो चंदन होता है ,
वह कुछ और नहीं होता है ,
जो भुजंग है, वह भुजंग है ,
वह भुजंग ही तो होता है ,
लिपटा चंदन से रहता है ,
पर विषधर विषधर होता है।

जो शीतल पावन होता है ,
वह जल गंगा जल होता है ,
मन जिसका गंगा होता है ,
वह सच में चंदन होता है ,
पूजित वह चंदन होता है ,
चंदन का वंदन होता है।

शुष्क अधर पर प्यार का चुंबन ,
अमृत की वर्षा करता  है ,
उस पल बैठ जगत का ब्रह्मा ,
इस जग की सृष्टी करता है ,
वह पल तो बस पल होता है ,
पल में ही सब कुछ होता है।

Friday, September 18, 2015

भारत भाल की बिंदी हिन्दी

हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा ,
हिन्दी है जन - जन की भाषा ,
उत्तर- दक्षिण,पूरब-पश्चिम ,
हिन्दी  है सम्मान की भाषा।
भारत भाल की बिंदी हिन्दी  ,
हम सब की पहचान है हिन्दी  ,
दिल को दिल से जोड़े हिन्दी ,
भाषाओं में प्यारी हिन्दी।
विश्व में भी यह पूजित हिन्दी ,
देश का मान बढ़ाती हिन्दी ,
हो लैटिन , अमरीका ,जर्मनी ,
मॉरिसस में प्यारी हिन्दी।
राजनीति की गलियारों में ,
खो गई आज हमारी हिन्दी ,
चाहे जिसको गद्दी दे दो ,
फिर भी सुरभित है यह हिन्दी।
               
             -- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
                  डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून
                   मो० - 9897700208


Thursday, September 17, 2015

नालायक बेटा !

गाँव- मुहल्ले वाले सभी जानते थे ,
वह नालायक बेटा था , बड़ा था ,
वह दूसरे बड़े शहर में रहता था ,
अपने बीबी - बच्चों के साथ ,
रहता क्या था - उसकी नौकरी ही
बहुत दूर के शहर में लगी थी।
वे यह भी जानते थे, कि
वह पहले ऐसा नहीं था ,
आस - पड़ोस की बस्ती के लोग भी
उसे जानते थे , प्यार करते थे ,
वह था ही ऐसा ,
वह सब के सुख- दुःख में
हाथ बँटाता था ,
पर शादी के बाद
बीबी - बच्चों को लेकर
शहर चला गया।
कुछ वर्षों तक तो
वह गाँव आता रहा ,
फिर धीरे - धीरे उसका
गाँव आना कम हो गया।
गाँव का डाकिया बताता था
वह शहर से पैसे भेजता था ,
पर पास - पड़ोस , दोस्त - मोहिम
जानते थे कि
वह कुछ भी नहीं भेजता था ।
यह सच था या अफवाह !
              ( 2  )
वक्त बीतता रहा ,
गाँव शहर में बदल गया ,
और फिर एक दिन
पिता चल बसे ,
वह आया , 
पत्नी - बच्चों के साथ।
वह सर्द भरी रातें  थीं ,
तीन दिनों का सफर ,
वह पिता के ,
अंतिम दर्शन नहीं कर सका ,
फूट - फूट कर रोया  ....
मुखाग्नि मँझले भाई ने दी थी ,
आगे के क्रिया - कर्म का भार
बड़े ने लिया।
अंतिम दिन ,
रीति - रिवाज के अनुसार
माँ के लिए सोने या चाँदी की
चूड़ियाँ चाहिए थीं ,
मँझले ने चुप्पी साध ली थी ,
बड़े चाँदी की चूड़ियाँ ले आया।
मेहमानों के विदा होने के बाद
वह भी बीबी - बच्चों के साथ
वापस लौट आया , शहर  .....
           ( 3  )
एक छोटा बेटा भी था ,
वह भी ,
दूर दूसरे शहर में रहता था ,
उसे इन सब बातों से 
कोई मतलब नहीं था ,
माँ मँझले  बेटे के साथ रहती थी ,
कभी - कभार
बड़े के पास भी आ जाती थी।
संभवत:
भाईओं के बीच
दीवार सी खिंच गईं थीं ,
मँझली बहू उलाहना देती -
अकेले हम ही मरते हैं ,
सभी मौज करते हैं ,
माँ खामोश सुनती रहती थी।
कभी - कभी ,
बड़े को खत लिखती  -
अब आँख से ,
दिखाई नहीं देती है ,
डॉक्टर ऑपरेशन को बोला है ,
मँझले को समय नहीं है ,
यहाँ अच्छा डॉक्टर नहीं है ,
तुम आ कर ले जाओ।
तुम्हारे बेटे ने जो मुझे 
हजार रूपये भेजे थे ,
वह मेरे पास पड़ा है ,
मैंने किसी को नहीं दिया है।
           ( 4  )
कुछ दिन बाद वह आया ,
माँ को ले गया ,
माँ की आँख का , 
ऑपरेशन हो गया ,
माँ को अब
सब कुछ
साफ-साफ दिखने लगा।
एक दिन माँ ने कहा -
मेरे पास वह रूपये पड़े हैं ,
मुझे अच्छा सा शॉल ला दो।
बड़ी बहू बाजार गई ,
एक अच्छा सा शॉल खरीद लाई ,
माँ को दिया।
मँहगा होगा , कितने का होगा ?
माँ ने कहा ,
बहू ने हँस कर पूछा -
आपको पसंद आई -
" हाँ "-माँ ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
शाम को ऑफिस से बेटा आया,
माँ ने कहा - 
मेरे पास वो पैसे पड़े हैं ,
बेकार हैं ,मुझे क्या काम है ,
बेटे ने कहा - 
अपने पास ही रहने दो ,
कभी काम आयेगें।
कुछ दिन बाद,
माँ ने रट लगा दिया -
मुझे गाँव पहुँचा दो  ....
माँ गाँव आ गई ,
लोगों ने देखा -
नया चश्मा लग गया है ,
वह अब देख सकती है ,
पढ़ - लिख भी लेती है ,
लोगों ने आपस में
कानाफूसी की -
माँ की आँख ठीक हो गई ,
बड़े ने  ......
         ( 5  )
माँ ने बड़े को खत लिखा -
मेरा चश्मा टूट गया है ,
देखने में परेशानी होती है ,
मँझले को 
समय नहीं मिलता है ,
इस छोटे शहर में
अच्छे चश्मे की 
दुकान नहीं है ,
कह रहा था -
पटना जाना होगा ,
तुम एक दिन के लिए 
आ जाओ ,
मेरा चश्मा बनबा दो  .....
और फिर एक दिन
मँझली बहू का फोन आया -
माँ गिर गई है , कोमा में है ,
अस्पताल में एडमिट  है ,
आप आ जाओ ,
ये भी यहाँ नहीं हैं ।
सूचना मिलते ही
वह रवाना हो गया ,
बेचैनी , चिन्ता और 
छटपटाहट में ही
दो रातें काट गईं ,
दो दिन बाद ,
सुबह सवेरे 
वह शहर पहुँच गया।
        ( 6  )
 बड़े ने देखा -
जिसको बहू ने 
अस्पताल बताया था ,
वह एक सीलन भरा 
बदबूदार कमरा है  ,
जहाँ ,
मच्छर-मक्खियों की भरमार है ,
भीतर घुप्प अन्धेरा है ,
एक मद्धिम लालटेन की लौ
टिमटिमा रही है ,
अंदर और भी कई मरीज भर्ती हैं ,
यह, एक प्राइवेट डॉक्टर का
नर्सिंग होम है ,
बाहर घना कोहरा है , 
ठंढ बहुत है ,
धूप का नाम नहीं है ,
माँ एक झीनी साड़ी में लिपटी ,
नंगे तख्त पर अचेत पड़ी हुई है ,
कुछ - कुछ साँस चल रही है ,
आँखें खुली हैं ,
कभी - कभी पुतली हिलती है ,
बोल नहीं सकती ,
उसके मुँह से लार निकल रही है ,
सिर के पास ही
गंदे कपड़े का टुकड़ा पड़ा है ,
उसी टुकड़े से मँझले के बेटे ने
माँ का मुँह पोंछ दिया है  .......
बड़ी बहू ने माँ के पैर छूए -
एकदम सर्द ,
उसने अपने पैर के मोजे उतारे ,
माँ को पहनाया -
माँ के पैर के पास बैठ कर
उनके पैर सहलाने लगी -
कुछ गर्मी आ जाए ,
घर से तकिया - गद्दा मंगवाया ,
उसे तख्त पर डाल कर
माँ को लिटाया ,
फिर अपने बैग से
छोटा तौलिया निकाला ,
गंदे कपड़े के टुकड़े को 
फिंकवाया ,
रिश्ते के देवर से
मच्छर भगाने वाला 
क्वॉयल मंगवाया ,
जलाया ,
ताकि मच्छर भाग सकें  ,
अगरवत्ती मंगवाई
ताकि दुर्गन्ध दूर हो ,
रूई मंगवाई ,
डेटॉल मंगवाई ,
साफ पानी का बॉटल मंगवाया ,
ताकि,
माँ का मुँह 
साफ़ किया जा सके.......
बड़ी बहू 
सास की सेवा में लग गई -
माँ ! हम आ गए हैं ,
कुछ तो बोलिये -
माँ एक टक देखती रह गई ,
बोली कुछ नहीं , 
हाँ ,
उसकी आँखों से 
आँसू की दो बूंदें निकलीं   ......
उसी दिन शाम के वक्त
माँ चल बसीं ,
मँझली बहू 
दहाड़ मार कर रोने लगी ,
पर, बड़ी शांत रही - स्तब्ध !
           ( 7  )
सुबह हो गई थी ,
माँ को नहलाया गया ,
अर्थी पर लिटाया गया -
बड़ा बेटा चौंका -
माँ के कान का कुंडल   ?
उसने कल ही तो कहा था -
माँ के शरीर पर से
कुछ भी न उतारा जाये ,
उसने इशारे से
पास ही खड़े पत्नी से पूछा ,
उसने इशारे में कहा -
उसे नहीं मालूम ,
रिश्तेदार और पड़ोसियों की 
भीड़ खड़ी थी ,
वह चुप रह गया  .....
बाद में ज्ञात हुआ , कि ,
मँझली बहू के कहने पर ,
मंझले बेटे ने ,
मौका  पाते ही किसी समय
माँ के कान का कुंडल 
निकाल लिया था ,
मँझले की हठधर्मिता के कारण,
अंतिम संस्कार
बहत देर रात को ही हो पाया ,
बड़ा चुप रहा ,
उसकी हर बात का 
विरोध होता रहा।
          ( 8  )
फिर वह दिन आया -
क्रिया - कर्म का आखिरी दिन ,
किसी बड़े पेड़ के नीचे
कुछ कर्म - काण्ड करने थे
बड़े को ही सारे विधान निपटाने थे ,
आज वह केवल एक सफेद -झख
धोती पहने था ,
बदन पर और कुछ नहीं था ,
सिर भी घुटा हुआ था ,
पंडित मंत्र पढ़ रहे थे  -
दान माँग रहे थे -
बड़ी खुशी की बात है जजमान ,
आप किस्मत वाले हैं ,
माँ को मुक्ति मिली है ,
वह सीधे स्वर्ग गईं ,
5100 रूपये दान दीजिये -
इससे कुछ कम नहीं   …
बेटे ने सिर्फ इतना ही कहा -
पंडित जी, 
आपको खुशी मिलती होगी ,
दान - दक्षिणा श्रद्धा होता है ,
पंडित नहीं मान रहे थे -
तभी , न जाने कहाँ से
मधुमक्खियों का झुण्ड 
आ धमका ,
वहाँ पर बैठे सभी लोगों पर
हमला कर दिया ,
अप्रत्याशित हमला ,
पंडित जी चिल्लाये -
जजमान को बचाईये ,
नंगे बदन हैं -
बेटे ने कहा - मुझे कुछ नहीं होगा ,
इतना विश्वास !
एक छोटा चचेरा भाई ,
बदहवास घर को दौड़ा ,
कम्बल लाने को ,
भैया को बचाना है ,
अफरा - तफरी मच गई ,
जान बचाने को
लोग इधर - उधर भागने लगे ,
पानी में भी कूदे ,
मधुमक्खियाँ 
दूर तक पीछा कर रही थीं ,
पानी में भी ,
कईयों को उसने 
बुरी तरह जख्मी कर दिया ,
मँझले बेटे और 
उसके बेटे को भी
मधुमक्खियों ने नहीं बख्शा ,
बड़े ने 
वही धोती नंगे बदन पर 
ओढ़ ली थी ,
घर में , बस्ती में 
कोहराम मच गया ,
पर, यह क्या ?
लोगों ने देखा -
मधुमक्खियों ने
बड़े को 
बिलकुल ही नहीं काटा ,
इस नालायक बेटे को
मधुमक्खियों ने नहीं काटा ,
मधुमक्खियों को शायद,
पता था ,
किसे काटना है ,
और , किसे नहीं   ....... 
कौन लायक है ,
और कौन 
नालायक .... 

             ---- विजय कुमार सिन्हा
                    डी - 40 , रेस कोर्स ,
                     देहरादून।
रचना तिथि - वर्ष 2011 
ब्लॉग  -   2015   
  







Saturday, September 12, 2015

गंगा



कभी गंगा उतरी थी
बहुत वेग से ,
शिव ने अपनी जटाओं में
उन्हें बाँध लिया था ,
ताकि ,सब कुछ बह न जाये
उस वेग में ,
ताकि , कल्याणकारिणी हो गंगा ,
जीवनदायनी हो गंगा।

आज हमने गंगा के वेग ( बहाव )को
रोक दिया है ,
कूड़ा - कचरा डाल कर ,
अपनी सारी  गंदगी ,
इसमें डाल कर।

अब गंगा असहाय हो गई है ,
रूकने लगी है इसकी साँसें ,
घुटने लगा है इसका दम ,
बहुत प्रयास करती है
आगे बढ़ने का ,
पर , सफल नहीं हो पाती है।
अब कल्याणकारिणी गंगा
चाहती है अपना कल्याण ,
और ,
नया जीवन दान।
     
         --   मंजु सिन्हा
               डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून।
               ( उत्तराखण्ड  )
              पिन - 248001
             
              


Friday, September 11, 2015

मेढक बोला टर - टर - टर

 मेढक बोला टर - टर - टर ,
बरसा पानी टिपर - टिपर ,
बोली मेढकी ठम्मक - ठम ,
बड़ा सुहाना है मौसम ,
कोई गाना गाओ जी ,
मेरा दिल बहलाओ जी।
मेढक बोला अच्छा जी ,
सैर ज़रा कर आऊँ जी ,
आकर गीत सुनाता हूँ ,
टर - टर - टर टर्राता हूँ।             

Tuesday, September 8, 2015

गोरैया

आज मैंने बहुत दिनों बाद
गोरैया देखे ,
आश्चर्य हुआ।
गोरैए अब नहीं दीखते हैं ,
न पक्षियों का कलरव है
न ही ,
चिड़ियों की मधुर चहचहाहट
जिसे सुन कर , कभी ,
सूरज उग आता था ,
सवेरा हो गया है
इसका भान होता था .. ..
आँगन के नीम , और
बाहर बरगद के पेड़ कट गए हैं ,
अब घरों के पास
कोई पेड़ - दरख़्त नहीं दीखते हैं -
घरों के सौंदर्यीकरण में ,
सड़कों के चौड़ीकरण में ,
पेड़ काट दिए जाते हैं।
दीवारों की सुन्दरता के लिए
अब , दीवारों में
न ताखे रखे जाते हैं , न रोशनदान  .. ..
न रोशनदान हैं  ,  न ताखे ,
न  दरख़्त हैं , न कोटर ,
जहाँ कभी
गोरैयों के घोंसले होते थे ,
चिड़ियों के नीड़ बनते थे
और उनमें से
पक्षियों के बच्चों की ,
चिड़ियों के बच्चों की
चीं - चीं  आवाजें आती थीं  ....
तब , हम बहुत छोटे थे ,
दिन भर, देखते थे -
वे अपने बच्चों के लिये
चुग्गा लाते थे ,
बड़े प्यार से उन्हें खिलाते थे  ....
अब न घोंसलें हैं , न नीड़।
धीरे - धीरे विलुप्त हो रहे हैं -
कौए , मैना ,गिलहरी , गोरैया  ......
सोचता हूँ -
यदि नहीं होंगे पेड़ ,
नहीं होंगी चिड़िया ,
न होंगे पक्षी ,
न गिलहरी, न गोरैया
हम भी विलुप्त हो जायेंगे
इसी तरह
एक दिन  .....
                -- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
                    डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून
                     ( उत्तराखण्ड  )
                    पिन - 2248001

Sunday, August 9, 2015

आइसक्रीमवाला

देखो, आइसक्रीमवाला आया ,
लाल - पीले ठेलियों में ,
रंग  - बिरंगे आइसक्रीम लाया ,
देखो आइसक्रीमवाला आया।

मैले - कुचैले कपड़ों में भी ,
यह लगता है सबको प्यारा ,
क्योंकि इसके आ जाने से ,
गर्मी से  मिलता छुटकारा।

जहाँ कहीं ये रुक जाता है ,
वहीँ पे मेला लग जाता है ,
बच्चे ,बूढ़े ,दादी ,नानी ,
सभी के मन को यह भाता है।

खुद गर्मी में घूम - घूम कर ,
औरों को राहत पहुँचाता ,
अपने अंदर की बेचैनी ,
कभी नहीं है , वह बतलाता।

सभी के तन -मन की गर्मी को ,
आइसक्रीम से दूर भगाता ,
पर खुद गर्मी से बचने को ,
कभी नहीं वह आइसक्रीम खाता।
                
क्योंकि , उसके तन - मन से ज्यादा ,
धधक रही है पेट की ज्वाला ,
इस ज्वाला की जलन मिटाने ,
वह , दिन भर फिरता मारा - मारा।
                   
                            ------  मंजु  सिन्हा  ।



Monday, July 20, 2015

पावस ने छंद रचे

पावस ने छंद रचे , तरुवर के पात- पात ,
जल धारा बूँदों की , लिपटी है गात- गात।

अंबर को चूम रहा , कजरारा बदरा है ,
मतवारे मौसम में , किसका दिल ठहरा है !
बैठे शुक शाखों पर ,करते हैं राग  - बात ,
पावस ने छंद रचे , तरुवर के पात - पात।

मखमल सी दूब बिछी , मन मयूर नाच रहा ,
सतरंगी इन्द्रधनुष , सबके मन मोह रहा ,
प्रेम गीत लिख डारे  , सावन ने आज रात ,
पावस ने छंद रचे , तरुवर के पात - पात।

बदरा भी  लहरा कर , घन, घन , घन घहरा कर ,     
अंबर जल बरसा कर , धरती को विहसाँ कर ,           
चीड़ औ चिनार संग , करते हैं रसिक  बात ,
 पावस ने छन्द रचे तरुवर के पात -पात। 

Thursday, July 9, 2015

तब और अब

तब आते थे मेहमान ,
मनता था त्योहार ,
बनते थे पकवान,
मिलती थी खुशियाँ ,
लगाते थे ठहाके ,
होते थे धमाके।

अब , देखते हैं कॉमेडी नाईट ,
ढूंढते है उसमें खुशियाँ ,
ठहाके लगाते हैं वो ,
मुस्कुराने की कोशिश करते हैं हम।

पहले घर आती थीं खुशियाँ ,
अब खुशियाँ ढूंढते हैं हम ,
फिर भी मिटा न सके गम ,
क्योंकि बदल गए हैं हम।

तब जो लोग होते थे पैसे वाले ,
बनबाते थे कुंआँ और तालाब ,
राहगीरों और प्यासों के लिए ,
अब , जो लोग होते हैं धनवान ,
लगाते हैं " वाटर - प्लांट ",
छीनते हैं गरीबों का पानी ,
भरते हैं बोतलों में ,
और कमाते हैं पैसे।

तब , गुरुओं को मानते थे भगवान ,
झुकाते थे सिर , देते थे सम्मान ,
अब , जिनको माना गुरु ,
वही चरित्रहीन निकले ,
शिक्षा - दीक्षा क्या देंगे वो ,
वो तो खुद ही गरीब निकले।

तब , ड्योढ़ी पर बँधती थी गाय ,
देती थी दूध ,
पीते थे बच्चे ,
होते थे मजबूत।
अब , गेट पर बँधता है कुत्ता ,
तोड़ता है मुफ्त की रोटी ,
हिलाता है दुम , और
करता है चापलूसी थोथी।

तब , घर के आस - पास लगाते थे -
फूल , फल व सब्जी की बेल ,
अब , गमलों में लगाते हैं कैक्टस ,
पेड़ों पर चढ़ाते हैं अमरबेल।

(  मंजु सिन्हा द्वारा रचित  )
 प्रकाशित -  अगस्त 2015



Monday, June 8, 2015

जब हमने कहा सूरज से ( बाल-गीत )

जब हमने कहा सूरज से
ज़रा अपना रूप दिखाओ ,
वह हँस कर बोला मुझसे -
तुम मेरे पास तो आओ।

मैंने तब बोला उससे -
मैं कैसे पास में आऊँ ,
तुम इतने दूर हो रहते
मैं पैदल न चल पाऊँ।

तब हँस कर बोला सूरज -
नित पास तेरे आता  हूँ ,
मैं कई रूपों का नटवर
नित संग तेरे रहता हूँ ।

शीत ,घाम वर्षा में ,
वह मैं ही तो रहता हूँ ,
ये तीनों ही ऋतुएँ हैं ,
जिसमें विचरण करता हूँ।

जाड़े में तुम मेरी
बाँहों में समा जाते हो ,
पर गर्मी जब है आती ,
तुम घर में छिप जाते हो।

बारिस के मौसम में
बादल बन कर हूँ आता ,
घनघोर घटा गर्जन कर ,
धरती पर जल बरसाता।

मैं  भी हूँ ख़ुशी मनाता ,
तुम भी हो ख़ुशी मनाते ,
पानी में छप - छप करते ,
कागज की  नाव चलाते।


एक थी अरुणा

एक थी अरुणा ,
उम्र भर झेलती रही ,
एक गुनहगार के गुनाह का  दंश।
न वो मर सकी ,
न वो जी सकी ;
जीवन भर का संताप दे ,
गुनहगार मौज करता रहा
शाशन की अकर्मण्यता पर।
उसने मौत माँगी ,
मौत न मिली ,
सजा मिली ,
उम्र भर दंश झेलने का  .... 
कौन देगा हिसाब
उसके टूटे सपनों का ?
उसके मन और तन पर
रेंगते , बिलबिलाते
असंख्य कीड़ों का ?
क़ानून के हाथ बँधे हैं ,
न्याय की तराजू में पासंग है।
उठो स्वयं खड़े हो ,
स्वयं ही लड़ना होगा ,
करना होगा हिसाब बराबर
इन आततायियों से  .......
                     
( श्रद्धांजलि कविता -  A tribute to Aruna shanbaug )
                                               

अभी बहुत है शेष

अरे ! रुको ,
मत बिको चंद डॉलर की खातिर ,
अभी देश की गरिमा पर
मत दॉँव लगाओ ,
अभी बहुत है शेष
तरुण की तरुणाई में ,
ढलने को है तिमिर निशा ,
आने में है नहीं देर ,
अब अरुणाई में  …....

अरे ! रुको ,
मत घुटने टेको किसी के आगे ,
अभी देश की महता पर
मत प्रश्न लगाओ ,
अभी बहुत है शेष
हमारी अँगड़ाई में ,
होने को है प्रात - पुञ्ज ,
कूक रही कोयलिया ,
है अमराई में  ……

             ------  ( प्रकाशित )

Sunday, May 10, 2015

हाँ ,माँ ऐसी ही होती है

मैंने जब इस जग से पूछा ,
बतला , माँ कैसी होती है ?
वह बोला -सम्पूर्ण जगत को ,
वह तो , आलोकित करती है।
गंगा-जल सी वह  निर्मल है ,
बहुत मधुर वह ,बहुत सरल है;
पर, पर्वत सा दृढ़ होती है,
हाँ, माँ ऐसी ही होती है।

रोम-रोम से ममता जिसके ,
फूट रही झरना सी  बन कर ,
करती है वह प्यार ह्रदय से ,
अपनी सुख-सुविधा को ताज कर।

खुद काँटो पर सो जाती है ,
पर,संतति को सुख देती है।
वह त्याग की सच्ची मूरत है ,
हाँ ,माँ ऐसी ही होती है।

चाहे आगे हो काल खड़ा ,
सम्मुख उसके आ जाती है ,
कहती - वह तो है माँ सबकी ,
सीने पर गोली सह खाती है।
जीवन न्यौछावर कर जाती ,
वह,पीछे कभी नहीं हटती।
माँ वीर, साहसी होती है ,
हाँ ,माँ ऐसी ही होती है।




Thursday, May 7, 2015

गरमी आई

गरमी आई , गरमी आई ,
कितनी सारी चीजें लाई।
आम और लीची है लाई ,
तरबूज व खरबूजे लाई ।
शरबत लाई , रसना लाई ,
हम सब मिल कर पीते भाई।

गरमी आई , गरमी  आई ,
ठंढी - ठंढी  चीजें   लाई।
आइसक्रीम  व कुल्फी लाई ,
बर्फ का गोला भी है भाई।
ठंढा - ठंढा दूध , मलाई ,
मन को बहुत ही भाता भाई।

गरमी आई , गरमी  आई ,
साथ में छुट्टियाँ भी है लाई।
दिन भर घर में मौज मनाते ,
माँ के काम में हाथ बँटाते।
रंग - बिरंगे  चित्र  बनाते ,
घर को भी हैं खूब सजाते।

गरमी  आई , गरमी  आई ,
बहुत सुहानी शाम है  लाई ।
सुबह-शाम हम सैर को जाते ,
दोनों टाइम खूब नहाते।
अब पानी से डर नहीं लगता ,
पानी हमको अच्छा लगता।

( मंजु  सिन्हा द्वारा रचित  )






Sunday, May 3, 2015

आज तुम गाओ मंगल गान

हुआ प्रकृति में नया विहान ,
आज तुम गाओ मंगल गान।
सरसों फूली , बौर है महका ,
महुआ से है वन मदमाया।
हवा वसंती चली , कि, ऐसी ,
सुध-बुध भी मन का विसराया।
गीत भृंग , गाये  फूलों पर ,
लहरें मदमाती कूलों पर।
प्रकृति विहँसी , आया विहान ,
आज तुम गाओ मंगल गान।

Wednesday, April 8, 2015

साथी तुम देना सब साथ रे ….. ( बाल- गीत )

सूरज जो ढल जायेगा ,
अँधियारा घिर आयेगा ,
तारों की आयेगी बारात रे ,
हो,चँदा से होगी मुलाक़ात रे. .....

आँखों में निंदिया आये ,
निंदियों में सपने आये ,
सपनों में परियों की बारात रे ,
हो ,ख़ुशियों की बाँटे सौगात रे........

रेशम के रथ पर सज कर ,
सूरज पूरब से आये,
भागेगा अब तो काली रात रे ,
हो ,उतरेगा नभ से सुप्रभात रे  ........

कलियाँ खुशबू बिखराये ,
चिड़ियाँ चह - चह कर गाये ,
मन की बतलाये अपनी बात रे ,
हो , जीवन खुशियों की सौगात रे  ……

आओ हम मिल कर गायें ,
मेहनतकश हम बन जाएँ ,
आलस को देंगे हम सब मात रे ,
हो, साथी तुम देना सब साथ रे   ….... ( बाल- गीत  )

Sunday, April 5, 2015

नहीं हताश कभी भी होना

गम क्या करना उन सपनों का ,
छूट गये तो छूट गये ,
शोक आसमां नहीं मनाता ,
कितने तारे टूट गये।

हेमंत ,शिशिर, पतझड़  ,वसंत ,
चले गये  तो चले  गये ,
सावन में सरसिज खिल जाते ,
सरवर सब जीवंत भये।

पाना खोना ,फिर पा जाना ,
जीवन के सरगम हैं ये ,
मझधारों ने हार मान ली ,
जो सागर के पार गये।

नहीं हताश कभी भी होना ,
जीवन में जो छूट गये ,
नई डगर पर बढ़ जाना तुम ,
रच कर मन के गीत नये।


Friday, April 3, 2015

राही थक कर बैठ न जाना

राही थक कर बैठ न जाना ,
बहुत दूर है तुमको जाना।
अस्ताचल को जाए सूरज ,
खोना नहीं कभी भी धीरज।
गहरे में  जो भी है पैठा ,
उसके हाथ लगे हैं नीरज।

राही थक कर बैठ न जाना ,
बहुत दूर है तुमको जाना।

है अंधकार चतुर्दिक फैला ,
घोर सघन नीरवता फैला।
तेजोमय के सम्मुख यारा  ,
नहीं कभी ठहरा अँधियारा।
पल भर का , है ये अंधेरा ,
आने  को है जल्द सबेरा।

राही थक कर बैठ न जाना ,
बहुत दूर है तुमको जाना।


Wednesday, March 18, 2015

बाल - गीत













          
             ( १ )

भालू बोला यम - यम - यम  ,
बारिश बरसा झम -झम -झम ,
नदियाँ अब भर जायेंगी ,
साथ मछलियाँ लायेंगी ,
ढेर मछलियाँ लायेंगे ,
दावत खूब उड़ायेंगे।

           














               (२ )
घोड़ा बोला हिन् -हिन् -हिन् ,
बारिश बरसा झिम-झिम-झिम ,
हरियाली छा जायेगी ,
हरी घास उग आयेगी ,
छक कर घास चबायेंगे  ,
हम तो मौज मनायेंगे ।
















            (३) 
बंदर बोला खें -खें -खें ,
पोंछ रहा अपनी आँखें ,
बारिश बरसा झर -झर -झर ,
काँप रहे हैं हम थर-थर-थर ,
आ जायेगा  मुझे बुखार ,
दौड़ के लाओ कंबल चार।
















       
               (४)
बोली गिलहरी टिक-टिक -टिक ,
बारिश बरसा टिप-टिप -टिप ,
टपक रहा घर मेरा यार ,
सह न सका बूँदों की मार ,
जल्दी से मिस्त्री बुलाओ ,
मेरे घर को तुरंत बनाओ।














             (५)
चिड़िया बोली चीं -चीं -चीं ,
बारिश का मौसम है जी ,
वर्षा होने से पहले ,
दाने कुछ चुन लायें जी ,
शाम ढ़लने से पहले ही ,
लौट हमें है आना जी।














            ( ६ )
मेंढक बोला टर -टर -टर ,
बरसा पानी टिपर-टिपर ,
बोली मेंढकी ढम्मक -ढम ,
बड़ा सुहाना है मौसम ,
कोई गाना गाओ जी ,
मेरा दिल बहलाओ जी ,
मेंढक बोला आता हूँ ,
टर -टर -टर टर्राता हूँ।
   

Wednesday, March 11, 2015

फागुनी- गीत


















फागुन में ज्यों पात-पात पर ,यौवन है छा जाता ,
बच्चे ,बूढ़े , युवा का दिल भी ,हुलसित है हो जाता।

पाकर फागुन की आहट ,है महुआ भी गदराता  ,
तन गोरी का खिल-खिल जाता ,जब वसंत है आता।

भौंरा चूमे फूल-फूल को ,प्यार बाँटता जाता ,
पाकर गंध - सुगंध बौर के ,मधुकर है बौराता।

पवन बाबरा होकर फिरता ,मलयानिल सा बहता ,
झूम-झूम खेतों में सरसों ,गीत वसंती गाता।

 है पलाश भी खिल-खिल जाता ,जंगल खूब दहकता ,
प्रकृति के हर अंग-रंग में ,मदन केलि है करता।

हर रंग का मेल है फागुन ,सबरस है बरसाता ,
सब के तन-मन रँग देने को ,यह फागुन है आता।

Friday, February 13, 2015

रात-रात भर सो न सका मैं

रात-रात भर सो न सका मैं ,
जागा सारी रात ,
रही सताती मुझको तो बस ,
तेरी भोली बात।

इन हथेलियों में थामे था ,
तेरे कोमल गात ,
देख रहा था ,चाँद सामने ,
आँखें थी मदमात। 


मौन शब्द था ,अधर  बंद थे ,
नयनों की थी बात ,
भले होंठ ,ये खुले नहीं ,पर ,
मौन मिली सौगात।

नहीं स्वप्न था ,सब कुछ सच था ,
स्वासें करतीं बात ,
धीरे-धीरे भींग रही थी ,
चुपके-चुपके रात।

शुभ्र निशा के मधुर  क्षणों में ,
हुई सरस बरसात ,
टूट गये तटबन्ध सहज ,जब ,
मिले गात से गात।

मन के अन्दर ,कोलाहल था ,
प्रश्नों की बरसात ,
पर , निश्छल सौंदर्य ,सो रहा ,
रख काँधों पर गात।

रात -रात भर ,सो न सका मैं ,
जागा सारी रात।

लो , वसंत आ गया

 

चितवन से, जब कामदेव के , प्रीति - वाण चल जाता ,
दिग-दिगंत के रोम-रोम में ,मद वसंत छा जाता।

वन-उपवन ,उपवन-वन ,कानन ,पवन बाबरा फिरता ,
डार -डार पर फूल बिहँसते ,अलि गुंजन है करता।

झूल आम्र की डार , बौर भी , सौरभ खूब लुटाता ,
चैत मास, फूले महुआ ,जब , वन सुरभित हो जाता।

अमलतास,सेमल,पलास भी  , लहक- लहक सा जाता ,
मानो ,नवयौवना धरा के  , स्वागत में बिछ जाता।

पिक पुकार  में कोयलिया का , स्वर ,पंचम हो जाता ,
प्रत्युत्तर में ,छिप कर पिक भी ,उसको खूब रिझाता।

फूले सरसों ,खेत-खेत में , जब वसंत है आता ,
पनघट पर निहुरे गोरी का , यौवन है मदमाता।

होलिहार के गीतों पर है , ढोलक खूब ढमकता ,
अल्हड़ गोरी के पैरों में , पायल खूब झनकता।

शुक ,पिक ,खंजन का कलरव भी , मन को है भा जाता ,
" लो , वसंत आ गया ,पथिक रे ," संदेशा दे जाता।                                                                                            
   (   नोट  : -  लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका  " प्राची प्रतिभा "  मार्च 2016 में प्रकाशित  )




Monday, January 26, 2015

लड़की

बहुत भोली है वह लड़की ,
मैं जिसको प्यार करता हूँ ,
नज़र लग जाये ना उसको ,
ज़माने से मैं डरता हूँ।

फ़लक में उड़ने की चाहत ,
उसे भी होती तो होगी ,
मगर ज़हरीले मौसम से ,
उसे भी डर तो लगता है।

अगर जीना है दुनियाँ में ,
तो , फिर संघर्ष भी होगा ,
ये सच है , हौसलों से ही ,
फ़लक तक पहुँचा जाता है  

उसे हिम्मत दिलाता हूँ ,
यही बातें बताता हूँ ,
बेटी है वह सब की ही ,
उसे जीना सिखाता हूँ।