Saturday, February 13, 2016

कूड़ा बीनती लड़की

बिखरे - बिखरे से हैं बाल ,
उलझे - उलझे से हैं बाल ,
कोमल काया जीर्ण -शीर्ण है ,
वस्त्र भी तन का अति विदीर्ण है ,
यौवन झाँक रहा है जिससे ,
पर बेपरवा इन  बातों से ,
रोज सवेरे , बड़े अँधेरे ,
काँधो पर रख थैली - बोरे ,
कूड़ा बीनने घर से आती ,
नहीं कभी वह नागा करती ।
झटपट कुछ कूड़े में  चुनती ,
चुन- चुन कर थैले में रखती ,
पॉलिथीन -प्लास्टिक के साथ ,
लोहा , कागज़ , टूटे काँच ,
और न जाने क्या - क्या चुनती ,
इनमें ही वह सपने बुनती ,
सँभल - सँभल कर वह है चलती ,
आवारा कुत्तों से डरती ,
फिर भी कुछ पीछे लग जाते ,
सूँघ -सूँघ कर उसे डराते ,
सहमी - सिकुड़ी चलती रहती ,
मुँह से कभी न कुछ वह कहती ,
उसे पता है ,गर उलझेगी ,
दण्ड भी वह  उसका भोगेगी ,
यही सोच आगे बढ़ जाती ,
लोग करेंगे सौ - सौ बात ,
यहाँ भेड़िये घूमते रहते ,
लोलुप , लंपट करने घात।                                                                                                                 

रोज सवेरे वह तकती है                                                                                     
स्कूल को जाते बच्चे ,
सजे - सजीले , नीले - पीले ,
कितने प्यारे , कितने सच्चे ,
मन ही मन सोचा करती वह ,
काश  कि वह भी कुछ पढ़ जाती ,
इन बच्चों के संग - संग वह ,
पढ़ने को स्कूल को जाती ,
पढ़ कर खूब कमाती नाम ,
बड़े - बड़े करती वह काम ,
पर निर्धन घर की वह बेटी ,
कैसे दिखलाये यह हेठी ?
बूढ़े और अशक्त पिता की ,
कैसे वह सेवा कर पाती ,
साधनहीन नहीं होती गर ,
क्यों कर वह नित कूड़ा चुनती।
क्षुधामयी इस पापी पेट को ,
सबको ही पड़ता है भरना ,
भीख माँगने से तो अच्छा ,
लगता उसको कूड़ा चुनना।

प्रकाशित - हलन्त ( जुलाई 2023 )