Sunday, July 29, 2012

गाँव को गाँव ही रहने दो




गाँव    को  गाँव    ही  रहने   दो
मत   बदलो   इसे   शहर    में   ।
गाँव       की   गोरी    का  ,
पनघट  की   छोरी    का  ,
निश्छल    मुस्कान
कहीं  खो  न    जाये  ,
शहर   की  तंग  गालियों  में  ,
इसलिये  ,
गाँव    को   गाँव  ही  रहने  दो
मत   बदलो   इसे   शहर   में    ।

पूर्बी   सूरज   की   लाली   में  ,
कांधे  पे  हल  ले  जाता   किसान  ,
खेतों  की   सँकरी    , टेढ़ी - मेंढी   
पगडंडियों  -  मेड़ों    पर   ,
उन्मुक्त   छलांगे  लगाते  ,
मेमनों   की    उन्मुक्तता  ,
कहीं    खो  न   जाये  ,
इसलिये  ,
गाँव   को  गाँव   ही  रहने    दो
मत   बदलो  इसे   शहर    में     ।

खेतों   में  उगे  फसलों  की  गंध
चुराये  , भागता  , सर - सर  पवन ,
रोटी और  दाल   की  पोटली  ,
सिर  पर  ले  जातीं  कृषक  बालायें  ,
बैलों   के   गले   में   बजतीं  ,
टुन - टुन   घंटियों   की  आवाज  ,
कहीं    खो  न    जाये  ,
इसलिए  ,
गाँव   को  गाँव   ही  रहने    दो
मत  बदलो   इसे   शहर     में      ।