गाँव को गाँव ही रहने दो
मत बदलो इसे शहर में ।
गाँव की गोरी का ,
पनघट की छोरी का ,
निश्छल मुस्कान
कहीं खो न जाये ,
शहर की तंग गालियों में ,
इसलिये ,
गाँव को गाँव ही रहने दो
मत बदलो इसे शहर में ।
पूर्बी सूरज की लाली में ,
कांधे पे हल ले जाता किसान ,
खेतों की सँकरी , टेढ़ी - मेंढी
पगडंडियों - मेड़ों पर ,
उन्मुक्त छलांगे लगाते ,
मेमनों की उन्मुक्तता ,
कहीं खो न जाये ,
इसलिये ,
गाँव को गाँव ही रहने दो
मत बदलो इसे शहर में ।
खेतों में उगे फसलों की गंध
चुराये , भागता , सर - सर पवन ,
रोटी और दाल की पोटली ,
सिर पर ले जातीं कृषक बालायें ,
बैलों के गले में बजतीं ,
टुन - टुन घंटियों की आवाज ,
कहीं खो न जाये ,
इसलिए ,
गाँव को गाँव ही रहने दो
मत बदलो इसे शहर में ।
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