Thursday, March 15, 2012

सावन में


सावन  में  घन  घिर - घिर  आवै
नहीं  आये  घर  साजन  मेरे
सावन  में  घन .................
वैरी  बदरवा  रहि - रहि  गरजै
कड़क  - तड़क  कर बिजुरी  चमकै   ,
मुझ  विरहन  को  देख पिऊ  बिन
रतिया  कारी  डरावे
सावन  में  घन ..................

रात  अंधरिया  बादर  करिया
वा  पे  झींगुर  झण - झण  बोले ,
मोर  पिया किस  हाल  कहाँ  हैं
मन  मोरा घबरावै
सावन  में घन ..................

उमड़ी  , घुमड़ी  के आवै  बदरवा
मुझ   विरहन   के  कांपै  जियरवा  ,
पिऊ  मेरे आ  जा  तरपत  हूँ  मैं
सावन  आग  लगावै
सावन  में  घन .....................

शाम  ढली  रतिया  भी आई
नहीं  कोई  खबर  पिया  की  आई  ,
आस  में  द्वार  खड़ी  मैं  कब  से
नयनन  नीर  बहावै
सावन  में  घन ..........................
 

मैं पानी हूँ

मैं  पानी  हूँ                                            
मेरा कोई रंग  नहीं  ,
मैं  सदा  नीचे  रहता  हूँ  ,
जहां  भी  रहता हूँ
उसका  हो  जाता  हूँ  ,
नदी  में , नालों  में ,
ताल - तलैयों  में  ,
सागर  में , बादल  में  ,
पहाड़ों  की  श्रृंखलाओं  में ,
यहाँ  तक , कि ,
तुम्हारे  अंग - अंग  में
समाया  हुआ  हूँ    ।

मैं  पानी  हूँ  ,
मैं  तो  बस  बहता  रहता  हूँ ,
निरंतर  चलता  रहता  हूँ  ,
कोई  पत्थर  जब  कभी
मेरी  राह  रोकता  है
मैं  रूक  जाता  हूँ ,
धीरे - धीरे  उसकी  जड़ें
खोदता  हूँ  , फिर ,
उसे  अपने  साथ
बहा  ले  जाता हूँ  ,
किन्तु  ,
जब  कोई  शिला
मेरे  आवेग  को रोकता  है
उसे  चकनाचूर  कर
उसका  अस्तित्व
मिटा  देता हूँ  ।

मैं  पानी  हूँ  ,
तुम  मुझे  जहाँ  भी
रखोगे  ,
मैं  सृजन  ही  करूंगा  ,
पात्र  हो  या  कुपात्र  ,
कीचड़  में  भी
कमल  खिलाता  हूँ  ,
पहाड़ों  में  बहता  हूँ
झरना  बन  जाता  हूँ  ,
गंगा  में  बहता  हूँ
पावन  हो  जाता  हूँ  ,
खेतों  में  बहता  हूँ
सोना उगलता  हूँ  ,
सागर  में  जाता  हूँ
असीम  संपदा  का
स्वामी  होता  हूँ  ,
मैं  वैभवशाली  हूँ ,
मैं  पानी  हूँ   । 

Tuesday, March 13, 2012

नन्हा सा मुन्ना


                                                                               























फूल सा धूसरित ,
नन्हा सा मुन्ना है
खेल  रहा
आँगन के कोने में ....
ठीकरों  के पैसे
मिट्टी की  बाटी ,
कंकर की दाल बनी
कागज़  की भाजी .....
झूल रहा जंत्री  है
चांदी का , सीने पर  ,
दीपित है हो रहा
जैसे टंका , सोने में .....
अम्मा  को देख कर
किलकारी  भरता  है ,
नन्हे से  पांवों  से
नन्हा पग धरता है ,
गिरता है ,उठता है ,
भाग ,फिर भी जाता है ......
पांवों  के पायल की
रुन-झुन  भी बजती है ,
कटि में भी उसके ,
करधनी  सजती है, 
शोभ  रही, सिर पर
लाल-लाल चोटी है ..........
भागता है  भागता है
थक जब वह जाता है
गिर तब वह  जाता है ,
अम्मा  को  देख  कर
मधुर-मधुर  हंसता है ,
मुस्कुरा  देता है
जीत पर या हार पर
अपनी  ही .........
अम्मा भी आती है
अंक  लगा लेती  है
पान करा देती है
अमृत  का , स्नेह  से  ,
आँचल  की छांव  में
लेती बलैया  है ...........

 
 


Sunday, March 4, 2012

भोर का सूरज


भोर का  सूरज  उग  आया है
दालान की  खिड़की  पर.......
जाड़े की कुन-कुनी धूप में                                                                  
देखता  हूँ
गोरैये  का जोड़ा
अपने नन्हें नन्हें
शावकों  के लिए
लाते हैं चुग-चुग कर
चुग्गे  बारी - बारी  से .......
धीरे -धीरे
इसी क्रम में
बीत  जाता है
यह पहाड़ सा दिन,
नीले नभ  का राही भी
थक कर
विश्राम को  चला जाता है
दूर क्षितिज    के
सिंदूरी सागर  तट .................
 नीला आकाश
स्याह पड़   जाता  है ,
टिम - टिमाते  हैं
छोटे -छोटे  तारे
जुगनुओं  से  चमकते  हैं  .........
सब कुछ  देखता  हूँ
ख़ुली  खिड़की की  सलाखों  से ,
धीरे - धीरे 
अँधेरा अपनी  बाहें  पसारता है 
फिर छा  जाती  है  निस्तब्धता ........
मन कहीं  दूर
बहुत  दूर चला जाता  है ,
तभी , कहीं 
पास  की  अमराई   से
कोयल  की  कूक
मेरे  सूने  उर  को
बींध  जाती है..................
मेरा  ध्यान
गोरैये  के  जोड़े  पर  जाता  है ,
निश्चय  ही
अपने नीड़ में
सुबह  होने  के  इन्तजार  में
जाग  रहा होगा
फिर  से,
अपने  नन्हों  के  लिए
चुग्गा चुग कर लाने को ............