भोर का सूरज उग आया है
दालान की खिड़की पर.......
जाड़े की कुन-कुनी धूप में
देखता हूँ
गोरैये का जोड़ा
अपने नन्हें नन्हें
शावकों के लिए
लाते हैं चुग-चुग कर
चुग्गे बारी - बारी से .......
धीरे -धीरे
इसी क्रम में
बीत जाता है
यह पहाड़ सा दिन,
नीले नभ का राही भी
थक कर
विश्राम को चला जाता है
दूर क्षितिज के
सिंदूरी सागर तट .................
नीला आकाश
स्याह पड़ जाता है ,
टिम - टिमाते हैं
छोटे -छोटे तारे
जुगनुओं से चमकते हैं .........
सब कुछ देखता हूँ
ख़ुली खिड़की की सलाखों से ,
धीरे - धीरे
अँधेरा अपनी बाहें पसारता है
फिर छा जाती है निस्तब्धता ........
मन कहीं दूर
बहुत दूर चला जाता है ,
तभी , कहीं
पास की अमराई से
कोयल की कूक
मेरे सूने उर को
बींध जाती है..................
मेरा ध्यान
गोरैये के जोड़े पर जाता है ,
निश्चय ही
अपने नीड़ में
सुबह होने के इन्तजार में
जाग रहा होगा
फिर से,
अपने नन्हों के लिए
चुग्गा चुग कर लाने को ............
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