Tuesday, December 9, 2014

एक कविता - अनाम सी


जाड़े के मौसम की विदाई हो रही थी ,
वसंत चुपके-चुपके पाँव पसार रहा था ,
सुबह के वसंती बयार में ,
एक दिन ,
मैंने भी घूमने का मन बनाया ,
निकल पड़ा तड़के ,
खूब सवेरे।
सूरज नहीं निकला था ,
पर ,
रोज सवेरे घूमने के शौक़ीन
सड़क पर निकल पड़े थे ,
इक्का -दुक्का ही सही ,
कोई जॉगिंग कर रहा था ,
कोई दौड़ लगा रहा था ,तो ,
कोई आराम से
टहल रहा था.…
मैंने देखा-
अलग-अलग बच्चों की टोलियाँ ,
जिनमें कुछ लड़के थे ,
कुछ लड़कियां भी ,
सभी के हाथ में मैला सा ,
एक,एक थैला था ,
सभी ,अलग-अलग दल में ,
कूड़े के ढ़ेर में धँसे पड़े थे ,
मानो ,उस में से हीरा ढूंढ रहे हों।
आगे बढ़ा ,
देखा-कुछ बूढ़ी औरतें
सड़क किनारे बोरी बिछा कर बैठ गईं हैं ,
आते-जाते राही से
भीख में कुछ पा जाने की जुगत में ,
जो कोई भी सामने से गुजरता है ,
दुआ देती है ,ढेरों ,
पर ,शायद ही कोई
उसकी झुर्री पड़े चेहरे को देखता हो ,
शायद ही कोई
उसकी काँपती कमजोर हथेलियों  पर
"एक" का सिक्का रख जाता हो।
कुछ और आगे बढ़ा
एक औरत ,
अपने तीन-चार बच्चों के साथ
जिनमें से एक उसकी गोद में है ,
एक उसके कंधे पर ,
एक-एक उसके बाएँ और दाएँ
हाथ की ऊँगलियाँ थामे
आवाज लगाती
बढ़ रही है -" कोई तो दया करो ",
उसका चेहरा देख कर लगता है ,
उसे "पीलीया" है
"अनीमिया "तो होगा ही ,
न उसके तन पर पूरे कपड़े थे ,
न उसके बच्चों के तन पर ,
और जो थे ,मैले-कुचैले थे ,
सिर के बाल उलझे और अस्त-व्यस्त ,
फटे कुर्ती से झांकता
उसका जोबन ,मानो
इन्सानियत का मुँह चिढ़ाता हुआ।
मैं कुछ और आगे बढ़ा ,
अब कुछ-कुछ सुबह होने लगी थी ,
सड़क किनारे
एक-दो चाय की दुकान खुल गई थी ,
बहार बेंच लगा था ,
कुछ लोग बेंच पर बैठे थे ,
चूल्हे पर चाय उबाल रही थी ,
जिसकी खुशबू हवा में तैर रही थी ,
आठ-नौ साल का एक लड़का ,
जिसकी आँखों में
नींद अब भी मचल रही थी  ,
बेंच पर बैठे लोगों को,
चाय का ग्लास थमा रहा था ,तो ,
किसी को बिस्कुट का प्लेट।
लड़का बिस्कुट के प्लेट को ,
ललचाई नजर से देख रहा था ,
चाय की जूठी ग्लास और प्लेट उठा कर ,
वह दुकान के बाहर किनारे बैठ कर
धोने लगता है ,देखता है -
किसी ने प्लेट में बिस्कुट छोड़ दिया है ,
लड़का ,मालिक की आँख बचा कर
बिस्कुट मुँह में गड़प कर जाता है।
मेरा मन कहीं दूर उड़ चलता है ,
मैं और आगे बढ़ता हूँ।
अब यह रास्ता,
सीधे सरकारी अस्पताल की ओर जाता है
इसके आगे घंटा घर की ओर ,
फिर आगे,,,,,,,,
तभी देखता हूँ
अस्पताल के बाहर गेट पर
लोगों की भीड़ लगी है ,
कुतूहलबस ,
मैं भी भीड़ के पास खड़ा होता हूँ ,
ज्ञात हुआ -एक औरत ,
आधी रात को अस्पताल आई थी ,
उसके पेट में बहुत दर्द था ,
बच्चा होने वाला था ,
डॉक्टर ने उसे
अस्पताल में भर्ती नहीं किया ,
औरत अस्पताल के बहार गेट पर
तड़पती रही ,रात भर ,
और अंत में ,
उसने सड़क पर ही
बच्चे को जन्म दे दिया है।
मेरा ध्यान कुछ दिन पहले
अखबार में छपे ,
एक समाचार पर जाता है ,
पहाड़ के गाँव से एक गर्भवती औरत
एक अस्पताल गई ,
वहाँ से उसे दूसरे ,फिर वहाँ से तीसरे  ……
आवागमन का साधन
केवल चारपाई की खटोली ,जो
चार लोग ढ़ो रहे थे ,
औरत ने रास्ते में ही
बच्चे को जन्म दे दिया ,
आस-पास के गाँव की औरतों ने
उसे संभाला ..... …
तभी सायरन की आवाज से
मेरा ध्यान भंग हो जाता है,
पुलिस आ गई थी ,शायद,
किसी ने पुलिस को फोन किया हो ,
मैं वहाँ से घर की ओर चल पड़ा
सोचता हुआ -
कहाँ है शिक्षा का अधिकार ,
कहाँ है भोजन का अधिकार ,
कहाँ है स्वास्थ्य का फ़लसफ़ा ,
कहाँ है बाल-श्रम क़ानून ,
कहाँ है जननी-सुरक्षा योजना ,
कहाँ है ,कहाँ है ,कहाँ है......

            -----   ( प्रकाशित )

आज भी

कौन कहता है -
युग बदल गया है ?
नाम बदल जाने से
न युग बदलता , न युग का धर्म ,
इतिहास के पन्नों का सच
आज भी जीवित है।
साँप फुफकारना नहीं छोड़ता ,
नीच, नीचता नहीं छोड़ता ,
हिंस्र पशु ,हिंसा नहीं छोड़ता ,
साधु ,साधुता नहीं छोड़ता ,
वही आसमां ,वही  सूरज ,
वही चाँद ,वही सितारे ,
सब कुछ तो है
वैसे ही।

आज भी  ' यशोधरा ' सोती है
' सिद्धार्थ ' को बाहों में भींच कर ।
आज भी  ' सिद्धार्थ '
' यशोधरा ' की बाँहों  से फिसल जाता है ,
किन्तु,वह न तो  ' बुद्ध ' बन पाया है ,
न ही मनुष्य।
आज का आदमी ,
बस , भटकता हुआ घूम रहा है ,
इधर-उधर ,
शान्ति की तलाश में  …… ।

आज भी  ' कुंती ' जीवित है ,
जो अजन्मे बच्चे को
मार देती है 'कोख ' में,
या फिर ,
जन्म लेते ही ,
पोटली में लपेट कर ,
फेंक आती है
कूड़े के ढेर पर ,
या फिर
किसी कँटीली झाड़ी में ,
उसके अपने भाग्य पर  ....... ।
           
हर रोज ही ,
' महाभारत ' होता है ,
घर के अन्दर ,
घर के बाहर ,
विद्या के मंदिर में ,
खेल के मैदान में ,
कार्यालय में ,
राजनीति के गलियारों में ,
और अपने ' मन ' में भी।

आज भी ' द्रोणाचार्य '
छल से
काट ले रहे हैं
' एकलव्य ' का अँगूठा।
आज भी
' अभिमन्यु ' घेर लिया जाता है
' कौरवों ' की सेना द्वारा।
                
' दुर्योधन  ' आज भी जीवित है ,
मरा नहीं है ,
' रक्तबीज ' की तरह
वह सम्पूर्ण पृथ्वी पर
छा रहा है।
आज भी , ' द्रौपदी '
भरे बाजार ,
विवस्त्र की जाती है ,
आज भी नारियों की  'अस्मिता '
दाँव पर लगी है।
' भीष्म ' विवेकशून्य हो गए हैं ,
महाराज  ' धृतराष्ट्र 'की आँखों पर
आज भी पट्टी पड़ी है।
महारानी  ' गांधारी ' ,
पुत्र विमोह में आसक्त
' उचित '- ' अनुचित ' का भेद
करना नहीं चाहती  ....... ।

' राम '  आज भी
वन-वन भटक रहा है।
' रावण ' आज भी
अट्टहास कर रहा है ।
आज भी
' सीता ' छली जा रही है ,
आज भी
अनगिन अग्नि परीक्षाएं
उसका इम्तिहान ले रही हैं।
आज का  ' राम '  विवश है ,
' लक्ष्मण ' के तूणीर में
तीर नहीं है ,
धनुष शांत पड़े हैं।

कौन होगा
युग-परिवर्तक ?
कौन बदलेगा इतिहास ?
कौन मेटेगा
इतिहास के पन्नों पर ,
उकेरे हुए,
त्रसित चेहरों के  ' अक्षर ' ?
कौन समेटेगा
जनमानस की आँखों में उठती ,
वितृष्णा और क्रोध की लहर ?
आखिर कौन ?
कौन ? कौन ? कौन ?

  (  नोट : - कोलकाता से प्रकाशित मासिक पत्रिका  " वागर्थ " दिसम्बर 2916 में यह कविता प्रकाशित हुई है  )

जाने कब तिलस्म टूटेगा ?

 जाने कब तिलस्म टूटेगा  ?
कब सपनों का महल बनेगा ?
कब मन की पीड़ा टूटेगी ?
मौन न जाने कब बोलेगा ?

इन्तजार में बीती घड़ियाँ ,
ढर -ढर , ढरके मोती लड़ियाँ।
धूप छिपी घर के पिछवाड़े ,
दौड़ के आयेंगे अँधियारे।
मन भी दूर चला जायेगा  ,
चल कर दूर भटक जायेगा .
जाने कब तिलस्म टूटेगा ?
कब सपनों का महल बनेगा ?

मौन हुई हैं सभी दिशायें ,
धूमिल सी हैं सब आशायें।
बस केवल झींगूर  स्वर है ,
मन के अन्दर ही खंजर है।
सन्नाटा भी नहीं बोलता ,
कैसे सन्नाटा टूटेगा ?
जाने कब तिलस्म टूटेगा ?
कब सपनों का महल बनेगा ?

अरे मनुज ! क्या सोच रहा है ?
प्रात क्षितिज रवि डोल  रहा है।
अँधियारा कब तक ठहरा है ,
यह भी दूर चला जायेगा।
मन की गाँठें खोल के रखना ,
देखो सूरज आ जायेगा।
शायद , तब तिलस्म टूटेगा ,
तब सपनों का महल बनेगा।