Wednesday, January 22, 2014

पहाड़ की नारी की व्यथा



बहुत दिनों पर चिट्ठी तेरी आन मिली है ,
पूछ रहे हो हाल हमारा क्या बतलाऊँ ,
जैसे  - तैसे कट जता है जीवन  मेरा ,
अपनी पीड़ा इस ख़त में कैसे जतलाऊँ।

जीवन कितना कठिन हो रहा है पहाड़ पर ,
पीने के पानी को मीलों चलना पड़ता ,
नहीं सड़क है यहाँ कोई कच्ची या पक्की ,
ऊबड -खाबड़ पथरीले पथ चढ़ना पड़ता  ।

मिलती नहीं है बाज़ारों में हरी सब्जियाँ ,
सब ही सब चट कर गईं सुना है बड़ी इल्लियाँ ,
नमक,दाल ,चावल,आटा का हाल बुरा है ,
इससे तो सस्ती बोतल की बन्द सुरा है।

सुना,कि पिट्रोल -डीजल का कुछ दाम बढ़ा है ,
फिर भी नहीं मँहगाई का बोझ बढ़ा है ,
बढ़ा- चढ़ा  है,तो केवल बस प्याज चढ़ा  है
संग टमाटर भी थोड़ा सा साथ बढ़ा है।

हैं बिजली के तार सजे खम्भों पर लेकिन ,
नहीं बल्ब है इन खम्भों पर कभी लटकता ,
नहीं सूझता यहाँ हाथ को हाथ रात में  ,
रह-रह कर अम्मा-बाबू का दिल घबड़ाता।

नहीं डाक्टर यहाँ कभी कोई मिलते हैं ,
ना ही मिलती दवा यहाँ की दूकानों पर ,
यदि तम्हें फुर्सत मिल जाए अपने काम से ,
कुछ दवाईयाँ भी तुम अपने साथ  ले आना।

जलती नहीं है गीली लकड़ी भी चूल्हे में ,
खाँस -खाँस कर मेरा दम घुटने लगता है,
नहीं मदद सरकारी कोई मिलती है ,
मौसम का भी कोप हमें सहना पड़ता है।
एक काम है और तम्हें कैसे बतलाऊँ ,
संभव हो तो तेल मिट्टी का भी ले आना 
चाँद तोड़ कर लाना ,चाहे न लाना ,
एक सिलेंडर साथअपने तू ले आना।

         ----  (  अभ्यर्थना शीर्षक से प्रकाशित )