Thursday, January 23, 2014

कोरा - कोरा दिल है मेरा


कोरा - कोरा दिल है मेरा ,कोरा-कोरा गीत ,
ढूंढ रहा है यह दिल मेरा ,मन का कोई मीत।
किसे बताऊँ, किसे सुनाऊँ, दिल की  अपनी बात ,
दिन ढल जाता, शाम है आती, आ जाती फिर रात।
जब सागर के खुले वक्ष, छू लेता पूनो चाँद ,
मचल-मचल सागर की लहरें, चलीं चूमने चाँद ।

Wednesday, January 22, 2014

पहाड़ की नारी की व्यथा



बहुत दिनों पर चिट्ठी तेरी आन मिली है ,
पूछ रहे हो हाल हमारा क्या बतलाऊँ ,
जैसे  - तैसे कट जता है जीवन  मेरा ,
अपनी पीड़ा इस ख़त में कैसे जतलाऊँ।

जीवन कितना कठिन हो रहा है पहाड़ पर ,
पीने के पानी को मीलों चलना पड़ता ,
नहीं सड़क है यहाँ कोई कच्ची या पक्की ,
ऊबड -खाबड़ पथरीले पथ चढ़ना पड़ता  ।

मिलती नहीं है बाज़ारों में हरी सब्जियाँ ,
सब ही सब चट कर गईं सुना है बड़ी इल्लियाँ ,
नमक,दाल ,चावल,आटा का हाल बुरा है ,
इससे तो सस्ती बोतल की बन्द सुरा है।

सुना,कि पिट्रोल -डीजल का कुछ दाम बढ़ा है ,
फिर भी नहीं मँहगाई का बोझ बढ़ा है ,
बढ़ा- चढ़ा  है,तो केवल बस प्याज चढ़ा  है
संग टमाटर भी थोड़ा सा साथ बढ़ा है।

हैं बिजली के तार सजे खम्भों पर लेकिन ,
नहीं बल्ब है इन खम्भों पर कभी लटकता ,
नहीं सूझता यहाँ हाथ को हाथ रात में  ,
रह-रह कर अम्मा-बाबू का दिल घबड़ाता।

नहीं डाक्टर यहाँ कभी कोई मिलते हैं ,
ना ही मिलती दवा यहाँ की दूकानों पर ,
यदि तम्हें फुर्सत मिल जाए अपने काम से ,
कुछ दवाईयाँ भी तुम अपने साथ  ले आना।

जलती नहीं है गीली लकड़ी भी चूल्हे में ,
खाँस -खाँस कर मेरा दम घुटने लगता है,
नहीं मदद सरकारी कोई मिलती है ,
मौसम का भी कोप हमें सहना पड़ता है।
एक काम है और तम्हें कैसे बतलाऊँ ,
संभव हो तो तेल मिट्टी का भी ले आना 
चाँद तोड़ कर लाना ,चाहे न लाना ,
एक सिलेंडर साथअपने तू ले आना।

         ----  (  अभ्यर्थना शीर्षक से प्रकाशित )

Tuesday, January 21, 2014

उठाओ , मेरी जलती चिता से मशाल

मैं जीना चाहती थी ,
जीने कि जिजिविषा थी मुझ में ,
जीने कि लालसा में
मैं अपनी टूटती साँसों से
लगातार संघर्ष कर रही थी  ।
मेरी आँखों में ,
अब भी भय था ,संत्रास था ,
चिंदी - चिंदी हो रही थी  मेरी अस्मिता
मेरे बदन पर मानो
सहस्त्रों बिच्छुओं ने
एक साथ डंक चुभो दिये हों ,
मैं दर्द और पीड़ा से
चीखती रही , छटपटाती रही........
मेरा सम्पूर्ण शरीर ,जैसे सड़ गया,और
असंख्य कीड़े बिल - बिला रहे हैं ,
रेंग रहे हैं ,
मैं बेसुध हो गई,
जैसे ही होश आया
मैं पुन: संघर्षरत हो गई ।
मैं  नहीं हारी ,
हार कर   पिशाचों ने
मुझे खिड़की से बाहर फेंक दिया ,
फिर , मैं एक तमाशा बन गई............
सदियों से
यही होता चला आ रहा है ,
नारियाँ ,
जो संसार को चलातीं हैं ,
वही रौंदी जातीं हैं ,कुचली जातीं हैं ,
सताई जातीं हैं ,
काटी जातीं हैं ,
जलाई जातीं हैं।
नारियाँ ,
जो , कभी माँ , कभी बहन ,
कहीं पत्नी ,
कहीं नानी , दादी ,बुआ ,मौसी और
न जाने कितने रिश्तों को जोड़ कर
ममता और स्नेह से
पुरुष  को सींचतीं हैं,
वही पुरुष , कापुरुष,
नरपिशाच बन जाता है ,
कैसा अधम है यह पुरुष जो  ,
सम्पूर्ण नारी जाती को
अपमानित , कलंकित और
तिरस्कृत करता है ?
नारियों ,उठाओ ,
मेरी जलती चिता से मशाल
और
जला दो इस विश्व को ,
ऐसे विश्व का क्या करना
जो विषकुंभ बन गया हो ...........



 

Sunday, January 19, 2014

कुछ गीत लिखे अपने मन की




निज करतल में मैं प्रकृति का श्रृंगार लिए चलता हूँ  ,
मैं अपने उर में जीवन  का उद्गार लिए चलता हूँ    ।

मैं पथिक अकेला अपनी राह का, मस्ती में चलता हूँ ,
मैं अरमानों और भावों का उपहार लिए चलता हूँ    ।

तूफ़ानों - झंझावातों को मुट्ठी बाँध  लिए चलता हूँ     ,
सुख - दुःख के दोनों तीरों को अपने साथ लिए चलता हूँ  ।

निविड़ अंधकार  में भी , पथ , आलोकित कर के चलता हूँ ,
साहस के बल, हर मुश्किल ,हँस कर पार किये चलता हूँ    ।

नहीं संग कोई संगी साथी ,मन को साथ लिए चलता हूँ  ,
मैं मौजों में भी हिम्मत का पतवार लिए चलता हूँ   ।

मिले राह में काँटे भी ,  मैं , उनको प्यार किये  चलता हूँ   ,
कुछ गीत लिखे अपने मन की , वह गीत गाये चलता हूँ   ।





Saturday, January 18, 2014

ज़िंदगी के यारों ऐसे मजे कहाँ हैं


है आ गया बुढ़ापा यह हम भी जानते हैं
पर बोझ है बुढ़ापा यह हम न मानते हैं। 

हर रोज हर सुबह में  हम साथ बैठते हैं
पीते  हैं चाय मिलकर और टी वी देखते हैं।

तैयार होते - होते हो जाता दोपहर है
हो जाता जल्दी यारों , खाने का भी प्रहर है।

खाना बनाती मैडम , फिर साथ बैठ खाते ,
बस इस तरह ही दोनों हर दिन गुजारते हैं।

न शिक़वा कोई है मुझको, न उनको है शिकायत
हर रोज घूमने की  हमने लगाई आदत।

होती अगर इनायत कुछ दोस्त आ के मिलते
हम भी कभी-कभी ही , हैं उनके घर पहुँचते  ।

कुछ खाश हो खबर तो अखबार भी हैं पढ़ते
टी वी और रेडियो पर गाना - ग़ज़ल हैं सुनते।

तकलीफ है बुढ़ापा कहते सभी यहाँ हैं
पर ज़िंदगी के यारों ऐसे मजे कहाँ  हैं। 
रचना तिथि - मई , 2012 

लौट आओ















लौट आओ  तुम , (कि ) अब ये
दिल मेरा  लगता नहीं ,

नेह के इस पंथ को , न जाओ ,
तुम यूँ छोड़ कर  ,
जन्मों के बंधन हैं ये , न जाओ ,
तुम यूँ तोड़ कर ,
चुप न बैठो ,कुछ सुनाओ
दिल मेरा लगता नहीं..........

फूल संग काँटे रहें , या
संग काँटे फूल  के
संग ही हम तो खिले हैं
जग के इस दुकूल पे ,
रूठ कर तुम यूँ न जाओ
दिल मेरा लगता नहीं  ........

साथ ही जीवन मिला है
साथ ही हम  जाँयेंगे   ,
इस धरा पर प्यार का
संदेश दे कर जाँयेंगे  ,
तुम जरा सा मुस्कुराओ 
दिल मेरा लगता नहीं ..........

प्यार के जो क्षण मिले
आओ सजाएँ  प्यार से
बिन तुम्हारे प्यार के ,कोई
छंद बन पाता  नहीं  ,
गीत कोई गुन - गुनाओ
दिल मेरा लगता नहीं ........

अभिनन्दन नव वर्ष



नये वर्ष में मिलकर हम सब
नये - नये सपने बुन लें  ,
किस्म - किस्म के फूल यहाँ हैं  ,
उनमें से कुछ हम चुन लें  ।

आशाओं के नये पंख ले
जीवन- नभ में हम  उड़  लें  ,
नहीं करेंगे वैर किसी से
मन में यह निश्चय कर लें  ।

भ्रष्टाचार और कदाचार  का
साथ न देंगे जीवन में ,
अपने से छोटों की झोली
सदा प्यार से हम भर दें   ।

मातु - पिता गुरुजन की सेवा , का
व्रत हम धारण कर लें ,
हत्या कन्या - भ्रूण का ना हो
ठान के इसका प्रण कर लें  ।

ना जाने कि कौन सी कन्या
जग को तारने वाली हो ,
ऐसा ना हो अपने हाथों
नाश न अपना हम  कर लें  ।

नहीं गये गर मंदिर - मस्जिद
काज नये कुछ हम कर लें ,
किसी गरीब की कन्या को ही
हम थोड़ा शिक्षित कर लें  ।

हम मानव हैं मानव बन कर
जग में कुछ ऐसा कर लें
जिससे हो कल्याण विश्व का
इतिहास ऐसा रच लें  ।

अभिनन्दन नव वर्ष तुम्हारा
अमन चैन खुशहाली हो ,
विश्व के कोने - कोने में नित
ईद , होली ,दीवाली हो  ।
   
      -----  ( प्रकाशित )