Saturday, January 18, 2014

ज़िंदगी के यारों ऐसे मजे कहाँ हैं


है आ गया बुढ़ापा यह हम भी जानते हैं
पर बोझ है बुढ़ापा यह हम न मानते हैं। 

हर रोज हर सुबह में  हम साथ बैठते हैं
पीते  हैं चाय मिलकर और टी वी देखते हैं।

तैयार होते - होते हो जाता दोपहर है
हो जाता जल्दी यारों , खाने का भी प्रहर है।

खाना बनाती मैडम , फिर साथ बैठ खाते ,
बस इस तरह ही दोनों हर दिन गुजारते हैं।

न शिक़वा कोई है मुझको, न उनको है शिकायत
हर रोज घूमने की  हमने लगाई आदत।

होती अगर इनायत कुछ दोस्त आ के मिलते
हम भी कभी-कभी ही , हैं उनके घर पहुँचते  ।

कुछ खाश हो खबर तो अखबार भी हैं पढ़ते
टी वी और रेडियो पर गाना - ग़ज़ल हैं सुनते।

तकलीफ है बुढ़ापा कहते सभी यहाँ हैं
पर ज़िंदगी के यारों ऐसे मजे कहाँ  हैं। 
रचना तिथि - मई , 2012 

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