है आ गया बुढ़ापा यह हम भी जानते हैं
पर बोझ है बुढ़ापा यह हम न मानते हैं।
हर रोज हर सुबह में हम साथ बैठते हैं
पीते हैं चाय मिलकर और टी वी देखते हैं।
तैयार होते - होते हो जाता दोपहर है
हो जाता जल्दी यारों , खाने का भी प्रहर है।
खाना बनाती मैडम , फिर साथ बैठ खाते ,
बस इस तरह ही दोनों हर दिन गुजारते हैं।
न शिक़वा कोई है मुझको, न उनको है शिकायत
हर रोज घूमने की हमने लगाई आदत।
होती अगर इनायत कुछ दोस्त आ के मिलते
हम भी कभी-कभी ही , हैं उनके घर पहुँचते ।
कुछ खाश हो खबर तो अखबार भी हैं पढ़ते
टी वी और रेडियो पर गाना - ग़ज़ल हैं सुनते।
तकलीफ है बुढ़ापा कहते सभी यहाँ हैं
पर ज़िंदगी के यारों ऐसे मजे कहाँ हैं।
रचना तिथि - मई , 2012
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