Friday, February 7, 2014

सच्ची -सच्ची कहता हूँ

नहीं जँचेगी बात तुम्हें ,पर सच्ची -सच्ची कहता हूँ ,
मैं झूठ नहीं कुछ कहता हूँ ,मैं आँखों देखी कहता हूँ ।

बातों की खेती होती है ,लाशों की खेती होती है ,
जिसे  काटते - बोते हैं कुछ खाश किस्म के लोग यहाँ ,
हैं लोग बड़े ही भले यहाँ।

देख खेत में लाशों को ,गिद्धोँ के बिचरण बढ़ जाते ,
हैं इनमें से कुछ बड़े -बड़े , कुछ छोटे और मँझोले हैं ,
पर पर सब के सब ही भोले हैं।

सुन कर अटपटा लगा होगा , मुझ पर विश्वास घटा होगा ,
पर बात सुनाता खरी - खरी , है सोलह आने बात  सही।

मनुज यहाँ बिक जाता है , कफ़न यहाँ बिक जाता है ,
खड़े - खड़े ही लोगों का ईमान यहाँ बिक जाता है।

गोदामों में पड़े - पड़े ही ,अन्न यहाँ सड़ जाता है ,
किन्तु ,बचपन रोता - रोता ,भूखा ही मर जाता है।

मनरेगा में मजदूरों का , श्रम यहाँ बिक जाता है   ,
मिड -डे मील का खाना भी भी , प्रबंधक ही खा जाता है।

 कहने को तो स्कूलों में खाना पोषक ही मिलता ,
उनसे भी जाकर पूछो , जिनका सड़ांध से नाता है।

वो अक्षर ज्ञान को क्या बांचे , है जिनका पेट नहीं भरता ,
पर नेताओं के दावत में , मुर्गा हलाल हो जाता है। 

( 13- 7 - 2013 की रचना  )




Monday, February 3, 2014

आयल बसंत बहार













 आयल बसंत बहार
सखी री , मोरा पिया  नहीं आयल  ।
सावन मास वाणिज को गयल पिया ,
नहीं लीनी सुधि भी हमार
सखी री,मोरा पिया नहीं आयल ।
कही के गयल पिया अबहुँ लौं आवति ,
बीत गयल दिन-मास
सखी री मोरा पिया नहीं आयल ।
नहीं कोउ पतिया , न कोउ खबरिया ,
कासे पठावउँ सन्देश
सखी री मोरा पिया नहीं आयल  ।
डारि-डारि बिहुँसहिं कलियाँ निगोरी ,
भँवरा करत गुँजार
सखी री  मोरा पिया नहीं आयल ।
महकै जो बौरना तो हिया बौराबै ,
महुआ पकहिं वन माहिं
सखी री मोरा पिया नहीं आयल  ।
चहुँ ओर कूजत कोयलिया कारी ,
उठत करेजवा में पीड़
सखी री मोरा पिया नहीं आयल  ।
साँझ भये जोहूँ बाट - डगरिया ,
जोबना भयल मोर उदास
सखी री मोरा पिया  नहीं आयल  ।
आयल बसंत बहार ,
सखी री मोरा पिया नहीं आयल  ।