Sunday, May 22, 2016

खोया हुआ शहर - देहरादून

देहरादून की सुन्दरता को
लग गई है

' विकास ' की नजर,
सड़कें चौड़ी हो गईं हैं ,
सहस्रों पेड़ों , दरख़्तों ने
दिया है अपना बलिदान।
अब ,
देहरादून हरा - भरा  शहर नहीं ,
पत्थरों और कंक्रीट का
शहर हो गया है ,
ठंढी , मुलायम बहती
हवा का स्थान
तपती - झुलसती
हवाओं ने ले लिया है।
नहीं हैं ,
लीची व आम के वो बाग
जो कभी , देहरादून की
पहचान और शान
मानी जाती थीं।
कभी यहाँ तांगा चलता था
शहर में ,
तांगे की जगह
ऑटो और कारें चलने लगी हैं ,
कभी वह भी वक़्त था
जब गर्मी के दिनों में भी
घरों में सुराही या घड़ा
नहीं रखा जाता था ,
पानी, नलों में
वैसे ही ठंढा - ठंढा
अनवरत आता रहता था ,
अब , ए. सी और कूलर का
समय आ गया है
आज के विकासमय शहर के लिए ,
विकासमंद लोगों के लिए।
यह सब ऐशो - आराम के साथ - साथ
आज की जरूरत भी बन गई है।
उफ़ ! इतनी गर्मी !
इतनी तपिश !
इतनी उमस !
इतनी धूल !
सभी बेहाल हैं ,
पेड़ जो बचे हैं
उनके हलक सूख रहे हैं ,
पक्षी और मानव , सभी ,
इस विकास के मापदंड में
विवस हैं
ढोने को परेशानियाँ ,
खाने को धूल
और ,
गर्म - गर्म हवा। 

       ( 2  )
आज, आप जो देख रहे हैं
राजपुर रोड की चौड़ी सड़कें ,
सड़क के किनारे
सजी बड़ी - बड़ी बिल्डिंगे
मॉल और मकान
दिलाराम चौक से लेकर
जाखन - राजपुर तक ,
नहीं थे तब।
तब केवल
सड़क के दोनों ओर
सघन , लंबे - लंबे ,
बड़े - बड़े , ऊँचे - ऊँचे
चीड़ और साख के पेड़ और दरख़्त थे ,
घना जंगल था ,
शाम घिरते ही
स्याह अँधेरा ,
घोर सन्नाटा
घोर नीरवता ,
बीच - बीच में
यदि कुछ था , तो
एस.पी साहब की कोठी ,
नेवल ह्यड्रोग्राफिक ऑफिस ,
राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की
कोठी की दूर तक लंबी दीवार ,
राष्ट्रीय दृष्टि बाधित संस्थान ,
फिर , आगे वही वीरानगी ,
वही पेड़ , वही दरख़्त ,
वही जंगल।

      ( 3 )
शहर के बीचो - बीच
स्थित घंटा  घर ,
देहरादून की शान ,
इसके अहाते में खड़ा
विशाल पीपल का पेड़ ,
( जो आज भी है )
 इसके ठीक सामने
पलटन बाज़ार ,
मुख्य आकर्षण ,
( आज भी है ),
घंटा घर के पास ही
' दिग्विजय ' सिनेमा हॉल
जिसका दायीं ओर का कुछ हिस्सा
विकास की भेंट चढ़ गया है
( अपनी कहानी खुद बयां कर रहा है ),
इसके दाहिनी ओर
चकराता रोड ,
कभी बॉटल नेक के नाम से प्रसिद्ध ,
इन सब के अलावा
यहाँ की साफ - सफाई ,
साज - सज्जा ,
अमन - चैन , भाईचारा ,
सौहाद्रता ,
तहज़ीब , सब थे।
न बदन जलाने वाली गर्मी थी ,
न थी तपिश ,
बारिस तो ऐसी, कि
भींगना न चाहते हुए भी
भींग जाते आप ,
ठंढ , कड़ाके की ,
ठीक दशहरे के बाद
स्वेटर और शॉल
निकल आते थे।
दिसंबर के अंतिम सप्ताह
और ,
जनवरी के प्रथम सप्ताह
बारिस न हो , और मसूरी में
स्नो फॉल न हो ,
पहाड़ हिमाच्छादित न हो
ऐसा संभव न था।
कितना सुंदर नज़ारा
तब जो था ,
वह अब नहीं है ,
अब है , तो
बस भीड़ है ,
भागम - भाग है ,
रेलम - पेल है ,
सड़कें सभी क्षत - विक्षत ,
जगह - जगह खुदी हुईं ,
धूल और कीचड़ से भरी हुईं ,
हर ओर ,
हर सूँ , ऑटो - बाईक - कारों से
उत्सर्जित धुएँ , और
कान फाड़ू आवाजें,
मिल कर ही देहरादून है ,
अपने आप में
खोया हुआ शहर।


           ---------     ( प्रकाशित )

Saturday, May 21, 2016

रात और मैं

रात भी रोती है ,
रात भी हँसती है ,
रात भी जागती है ,
रात भी सोती है ,
मैं हँसा ,
रात हँसी ,
मैं रोया ,
रात रोई ,
मैं जागता रहा ,
रात भी जागती रही ,
मैं सोया ,
रात भी सो गई ,
रात और मैं ,
दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची।

समय की रेत पर

समय की रेत पर ,
लिखता हूँ
जीवन की कविता ,
लिखता हूँ गीत ,
गुनगुनाता हूँ ,
बुनता हूँ सपने
हवा के परों पर ,
तेज झकोरों के साथ
ले जाता है उड़ा कर ,
कविता गीत और सपने ,
विचारों की आँधी ।
फिर से वही शून्य ,
निहारता हूँ आकाश ,
फिर से दुहराता हूँ
वही सब ,
खोजता हुआ जीवन ,
जो खो गया है
कविता , गीत और सपनों में  .....

Monday, May 2, 2016

सुन लो शहीदों की

सुनो ऐ हिन्द के लोगों कहानी हम  सुनाते हैं ,
शहीदों की व्यथाओं की कथा तुमको सुनाते  हैं।
दिए सर्वस्व थे जिसने , बढ़ाया मान हमसब का ,
उसी की आत्मा की ये व्यथा तुमको सुनाते हैं।

हमारी भूमि  पर आकर , सिर को काट ले जाते ,
मगर हम हैं सियासत में अमन की संधि कर आते ,
न कुछ भी दर्द ही होता , न कुछ भी क्षोभ ही होते ,
अमन के शत्रु के घर बैठ दावत खूब कर आते ,
किये बलिदान जीवन के , थे हमने देश की खातिर ,
कभी पैंसठ - इकहत्तर और करगिल याद हैं आते।
मगर ये जो सियासत है...

कटा कर शीष को हमने , किया  माँ - कोख  को सूना ,
निछावर भी किया था माँग के सिन्दूर पत्नी का  ,
बहन मेरी बहुत रोई , मेरा बेटा बहुत रोया ,
पिता को बेसहारा करके मैं धरती में जा सोया ,
मगर जब देखता हूँ मैं अपने देश की हालत ,
हमारा दिल बहुत रोता है , आँसू आँख में आते।
 मगर ये जो सियासत है   .....

कभी कश्मीर है जलता , कभी बंगलोर जलता है ,
कभी दिल्ली सुलगती है , कभी आंध्रा सिसकता है ,
महज कुर्सी की ही खातिर , ये जनता को लड़ाते हैं ,
हमें तुमसे लड़ाते हैं , तुम्हें हमसे लड़ाते हैं ,
कभी मंदिर जलाते हैं , कभी मस्जिद जलाते हैं ,
कभी बस्ती जलाते हैं , कभी दंगा कराते हैं
मगर ये जो सियासत हो   ........

तिरंगा तीन रंगों का , शहीदों की निशानी है ,
नहीं दुनियाँ में दूजा कोई इसका और सानी है ,
तिरंगे के लिए जीना , तिरंगे के लिए मरना ,
तिरंगे के लिए हमको जनम सौ बेर है लेना ,
तिरंगा है वसन मेरा , तिरंगा हो कफ़न मेरा ,
तिरंगे के लिए हम तो ये जां कुर्बान कर जाते।
मगर ये जो सियासत है  .......