Saturday, December 24, 2016

बड़ी ठंढक सी लगती है

बड़ी ठंढक सी लगती है
तुम्हारे गेसू  में आ कर ।
तुम्हारे पास होता हूँ ,
सुकूँ इस दिल को मिलता है ,
तुम्हारी साँसों की खुशबू से ,
मेरा ये  दिल धड़कता है। 

छू कर नर्म  होठों को
पवन भी गुनगुनाता है ,
चुरा कर आँख का काजल
ये बादल भी मचलता  है।

गिरा जो शानो से आँचल
ये मौसम भी बहकता  है ,
तुम्हारी ही हँसी से तो
चमन भी खिल - खिलाता है।

घटाओं को शिकायत है
तेरी ज़ुल्फ़ों में ख़म क्यों है ,
जो तुमने ख़म को खोला तो
झमक कर घन बरसता है। 
 
ब्लॉग तिथि - 24 - 12 - 2016


Wednesday, December 14, 2016

काले धन वाले

नोट की लाइन लगने वाले ही , काले धन वाले हैं ,
जो काले धन वाले हैं , लाइन में लगने वाले हैं। 
करैं किसानी हाथ हो काला , मजदूरी में हाथ हो काला ,   
करैं पढ़ाई हाथ हो काला , करैं चाकरी हाथ हो काला ,
ये काले धन वाले हैं हैं , लाइन में लगने वाले हैं ,                             
नोट की लाइन लगने वाले  ही , काले धन वाले हैं। ( 1 )

अम्मा - बाबू , दादा - दादी , रोज ही लाइन लगते हैं ,
फिर भी नोट हाथ न आते , खाली हाथ घर आते हैं ,
पी कर पानी विस्तर में वे , भूखे पेट सो जाते हैं ,
यही तो हैं काले  धन वाले , लाइन में लगने वाले हैं।
नोट की लाइन लगने वाले ही , काले धन वाले हैं।( 2 )

खाते जो ईमानदारी की , नित विदेश को जाते हैं ,
लंबी - लंबी गप्पें  हाँकै , भाषण यही तो देते हैं ,
बड़े - बड़े  महलों में रहते , नित दिन पार्टी करते हैं ,
ये मौज मनाने वाले हैं , गुलछर्रे उड़ाने वाले हैं।
नोट की लाइन लगने वाले ही , काले धन वाले हैं।(3 )

जिनके पास नहीं काला धन , सुख की नींद वो  सोते हैं ,
बैंक के पीछे दरवज्जे से , नोट बटोर ले आते हैं ,
ये  सफ़ेद धन वाले  हैं , सब नेता जी के साले हैं ,
जो काले धन वाले हैं , लाइन में लगने वाले हैं।
नोट की लाइन लगने वाले ही काले धन वाले हैं।( 4 )

अंधे हाथ बटेर लगी है , स्वाद भुनाने वाले हैं ,
लूट - लाट कर , गठरी बाँध , रफूचक्कर होने वाले हैं
ख़्वाब दिखाने वाले , लॉलीपाप थमाने वाले हैं ,
भीख माँगने को ये भैया , पात्र थमाने वाले हैं ,
जो काले धन वाले हैं , लाइन में लगने वाले हैं ,
नोट की लाइन लगने वाले ही काले धन वाले हैं।( 5 )


 रचना तिथि / माह -दिसंबर 2016 
ब्लॉगड - 16 -12 -2016 




Saturday, December 3, 2016

" मरी खाल की साँस सों

अपनी सत्ता और पुत्रों के प्रति मोह ने
आज फिर ,
धृतराष्ट्र को अंधा बना दिया है ,
उसके चारों ओर खड़े
जनतंत्र के पुजारी
दुश्मन  दीख रहे हैं,
अपने अजेय किले
और ,
पुत्रों - बान्धवों की कतार  देख
वह कुटिल मुस्कराहट
और ,
विद्रूप हँसी से
सबका उपहास मना रहा है।
फिर एक महाभारत की तैयारी
कलियुग ने कर ली है।
फैली हुई अव्यवस्थायें
 उसे नहीं दीखतीं ,
उसकी अट्टहास में
गिरते - पड़ते - मरते जन
नहीं दीखते ,
उसकी आँखों पर
अहंकार का पर्दा पड़ गया है।
इतिहास अपने आपको दुहराता है ,
वही चौकड़ी है ,
शकुनि  भी है , गुरु द्रोण  भी ,
वृद्ध भीष्म पितामह भी ,
जिन्हें अब
एक बगल खड़ा कर दिया गया है ,
वह भी वही बोलते हैं ,
जो , धृतराष्ट्र  बुलबाना चाहते हैं।
अरे ! ओ धृतराष्ट्र
काल का पहिया घूमता है,
भूल मत , यहाँ सब नश्वर है ,
न तू रहेगा , न तेरी सत्ता ,
न तेरे पुत्रों - बान्धवों की फ़ौज ,
जो बच जाएंगे तेरे परिजन
तब वही तेरा उपहास करेंगे।
कहाँ खोया है ?
मन की आँखें खोल ,
" मरी खाल की साँस  सों
   लौह भस्म हो जाय " ।
मत ले आह ,
दुनियाँ ने पत्थरों को पूजा है
तो , ठोकरें भी लगाई हैं।
दर्प की अग्नि में ,
जल जाता है सब कुछ ,
न तख्त ही रहता ,
न ताज ही रहता ,
एक प्यार के ही न्याय का
बस राज है रहता।

Monday, November 7, 2016

नेह की बाती

शीत अधरों पर शिखा रख ,
जलन का मत हाल पूछो ,
प्रीत में जलते शलभ से ,
 ह्रदय का मत हाल पूछो।

नेह की बाती संजोये ,
दीप जलते हैं हजारों ,
हार कर बैठे तमस से ,
हार का मत हाल पूछो।

अविरल तमस को भेद कर ,
लघु दीप वह जलता रहा ,
मोम से उसके ह्रदय के ,
ताप का मत हाल पूछो।

प्रेम का विश्वास था यह ,
वा प्रीति का उल्लास था  ,
इस गहनतम प्यार के ,
उल्लास का मत हाल पूछो।

Friday, October 21, 2016

ऐसी प्रीति न चाहिये

भँवरा बोला कली से , सुनो हमारी बात ,
शाख झुलाता है तुम्हें , दुलराती है रात।

तेरा मेरा प्रेम तो जग में है विख्यात  ,
झूठ नहीं मैं बोलता , सच्ची है यह बात।

आ लग जा मेरे गले चूमू तेरा माथ ,
नतमस्तक भँवरा हुआ, ले आँसू की सौगात ।

है बेला यह प्रेम का , करो प्रेम की बात ,
बीत न जाए समय यह , बीत ना जाए रात।

आया है मधुमास यह , करो प्रीति की बात,
अंग - अंग में रंग भरूँ , जो छू लूँ तेरे गात।

कहा कली ने भँवर से , तू भी सुन एक बात ,
दिन भर फिरता बाबरा , कहाँ बितायी रात ?

डाली - डाली जा मिले , बुझी न दिल की प्यास ,
तू आवारा शूल है , कर सकता है घात।

मैं हूँ कोमल सी कली , मखमल जैसे गात ,
जो छू लेगा तू मुझे , जल जायेगी गात।

ऐसी प्रीति न चाहिये , जा सौतन के पास ,
रंग उन्हीं पर डारियो , जहाँ बिताई रात।

रख अधरों पर हास अलि , गया कली के पास ,
सुनो सुनाता हूँ कथा , जहाँ बिताई रात।

शाम ढले मैं घूमता  , पहुँचा सरवर पास ,
बैठा सरसिज पंखुरी , बिना विचारे बात।

शतदल ने छल से मुझे , लिया पाश  में बांध ,
कैद रहा मैं अंक में , बीत गयी यह रात।

प्रात काल सूरज जगा , जग में हुआ प्रभात ,
मुक्त हुआ मैं कैद से ,खुले कमल के पात।

मैं कुरूप हूँ रंग से , और न दूजा खोट ,
तन व मन मेरा है शुचि , जैसे कदली पात।

है कोमल सा दिल  मेरा , करो नहीं आघात ,
हँस कर देवी ग्रहण करो , प्रीत भरा सौगात।




Thursday, October 6, 2016

विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून
( उत्तराखण्ड )- 248001

गूँजा शंखनाद आज

ज्यों उठा उदधि में ज्वार ,जगा शौर्य जन - जन में ,
गूँजा शंखनाद आज , है भारत के प्रांगण में।

मोल लहू से कम ना हो , मातृभूमि  पर हुए शहीद ,
जीवन जिसने वार दिया , सरहद पर अरिमर्दन में।

कर हुँकार गर्जना सिंह सा , अरि दल पर जब टूट पड़े ,
मानो काल - कराल आज , खड़ा शत्रु  के आँगन में।

गुह्य गढ़ को भेद अरि के , पहुँच गया वह अरि गढ़ में ,
जैसे मद से मत्त शत्रि , जा पहुँचा कदलीवन में।

अरि पर कर भीषण प्रहार , घाट मौत के सुला दिया ,
तहस - नहस कर शत्रु शिविर ,  जग को नव संदेश दिया।

देख पराक्रम के वैभव को , जग ने जयजयकार किया ,
माँ के वीर सपूतों को ,देवों ने भी नमन किया।

Friday, September 30, 2016

शीश को मैं वार दूँ

धरा क्या , आकाश क्या , पाताल को भी लाँघ लूँ ,
हूँ शिवा मैं हिन्द का , मैं काल को भी बाँध लूँ।
सिंधु की मैं गर्जना हूँ , अनल दावानल का हूँ ,
नागवन के व्याल भी उंगलियों  पर साध लूँ।

दशों दिशाएँ थर्राती , हुँकार भरता जब कभी ,
इस गगन से उस गगन तक , शत्रु को मैं नाध लूँ।
हैं नहीं हम पालते निज , शत्रुता बेकार की ,
पर नहीं ललकार को सुन मौनता को साध लूँ।

कृष्ण की है देवभूमि , हैं कुचलते नाग को ,
फैलते फण विषधरों के बाँसुरी से नाथ लूँ।
हम नहीं रणक्षेत्र में हैं पीठ दिखलाते कभी ,
मातृभूमि की चरण में शीश भी मैं वार दूँ।

है विजय के गीत का परचम हमारे हाथ में ,
मैं तिरंगे को सदा ही अपने काँधे काँध लूँ।

                    ------ -  (  प्रकाशित )

Friday, September 23, 2016

स्वर्गीय पिता के नाम

उस दिन
वर्ष का आखिरी दिन था ,
पुराने वर्ष की विदाई
और
नए वर्ष के स्वागत में
चारों ओर खुशियाँ
तैर रही थीं  ,
शरीक था मैं भी ,
मन से नहीं ,
तन से।
तभी ,अचानक फोन आया-
" पिता जी नहीं रहे "
रोते - रोते ,
उसने भरे गले से बताया ,
पर मैं नहीं रो पाया ,
धैर्य !
विपत में धैर्य ,
तुमने ही तो सिखलाया था।
मुझे कुछ दिन पहले ही
आभास हो गया था ,
जब एक दिन
तुमने मुझसे फोन पर
बात किया था ,
घर में नया - नया फोन लगा था ,
जाने क्यों कर मेरे मन में
तब एक कोहराम मच गया था ,
पर मैं मूढ़ मति , कायर ,
अपनी विवशता में ,
कुछ सरकारी नौकरी की परेशानी में ,
तुम तक नहीं आ पाया
तुम्हारी मृत्यु से पहले ,
तुम्हारी चरण रज लेने।
पश्चात ,
मैं सम्पूर्ण श्राद्ध खत्म होने तक
नहीं रोया , या , चुपके - चुपके रोया ,
जाने लोगों ने क्या - क्या कहा ,
अपने भी , पराये भी ।
मैं लौट आया वापस
नौकरी की ठौर।
पर , मैं एक दिन रोया ,
जार - जार रोया ,
जोर - जोर से रोया ,
वहाँ कोई नहीं था
मेरा रुदन सुनने वाला ,
वह था एक सपाट मैदान ,
निपट निर्जन ,
शाम का धुँधलका ,
टिमटिमाते जुगनू  ,
पर ,
तुम थे मेरे पास , तब ,
जब मैं सचमुच रोया।
तुम अब भी मेरे पास हो ,
नहीं हो मेरे सामने ,
किन्तु , मेरी आँखों में ,
मेरे मन में ,
मेरे ह्रदय में।
तुम कब हुए जुदा मुझसे !
मैं नहीं जान पाया ,
मुझे अब भी
महसूस होता है
तुम्हारा स्पर्श ,
तुम्हारे गोद की खुशबू
अब भी मेरी श्वासों में है ,
नहीं भूल पाया मैं
तुम्हारा प्यार ,
तुम्हारा दुलार ,
मेरा मचलना ,
" ठीक होली के दिन
मेरे लिए ,
वह पीतल की पिचकारी
ला कर देना ,
जिससे एक ही बार में
सहस्त्रों धाराओं के
फव्वारों का निकलना ,
कितनी यादें
साथ - साथ चलती हैं मेरे ,
तुम हो ,
क्योंकि , तुम अब भी
मेरे साथ हो ,
पल , हर पल ,
कदम दर कदम।


 

Monday, August 29, 2016

शायद तुम लौट आओगे

शायद तुम लौट आओगे अपनी भूल जान कर ,
शायद मेरा ख्याल आ गया होगा किसी मोड़ पर ,
पर तुम नहीं आये , बीत गया उदासा पहर ,
पाँव मेरे  ठिठके , लौटा न सकी  तुम्हें घर ।

शायद तुम लौट आओगे बच्चों के पास ,
उन्हें फिर से प्यार करने , उन्हें याद कर ,
तुम नहीं आये , मैं लौट आई , पिता के घर ,
एक बार फिर वृद्ध पिता के कमजोर कंधो पर।

तुम ,वही  रंभा , मेनका , उर्वशी में लिपटे रहे ,
छोड़ नहीं पाए तुम अँगूर की बेटी का साथ ,
मैं रोज तुम्हें समझाती , गिड़गिड़ाती ,
पर , नहीं हुआ कभी भी तुम पर कोई असर।

रोज रात को देर से घर आना , लड़ना - झगड़ना  ,
फिर वही तमाशा , मुझे बेधती पड़ोसियों की नजर ,
उस रात  तो हद हो गई , जब तुमने मेरे साथ - साथ ,
कर दिया अपने ही बच्चों  को भी घर से बाहर।

मैं अब भी तुम्हारे नाम का सिन्दूर ,
माँग में सजाये लड़ रही अपने आप से ,
शायद तुम्हारा ज़मीर लौट आये कभी  ,
मुझे मुक्ति मिल जाए इस काले अभिशाप से।

तुम्हारी बेटी अब बहुत बड़ी हो गई है ,
ताड़ सी लंबी और ताड़ सी ही पतली ,
बेटे के मन में है क्षोभ और आक्रोश भी ,
नहीं बोलता है वह कुछ ,कहता चुप ही भली।

नहीं होने दिया है उजागर अपने दर्द को ,
ज़माना पढ़ ना ले चेहरा ,मुस्कुराती हूँ ,
शायद लौट आओ तुम उस गली को छोड़ कर ,
इसीलिये अँधेरी राह पर दिये जलाती हूँ।

बावजूद इसके , मैं खड़ी हूँ अडिगता से ,
हार गई है तुम्हारी पुरुषात्मक सत्ता ,
इसी हार की खीज से तुम बर्बर हो गए हो ,
करते , अँधेरे में , अकेले में छिप कर घात।

मैंने तोड़ दी हैं तमाम वर्जनाओं को ,
लाँघ लिया है मैंने आकाश , परबत , नदियाँ ,
तुम भले ठुकराते रहो , मैं नहीं हारूँगी ,
किसी भी डगर , किसी भी मोड़ , किसी सरहद पर।








Monday, August 15, 2016

बड़ों का सम्मान

हे प्रभु !हमको दो ऐसा वरदान ,
हम कर सकें बुजुर्गों का सम्मान।

पकड़ ऊँगली चलना सिखलाया ,
गलत  सही का , है भेद बताया ,
अपनी सारी शक्ति जिन्होंने ,
हम सब के हित में है लगाया ,
अपनी बुद्धि , कला , कौशल से ,
देश , समाज , परिवार सजाया।
गरीब , अमीर  , शिक्षित , अशिक्षित ,
सब ने मिल कर यह देश बनाया।

ऐसे माननीय लोगों का ,
करें ना हम अपमान कभी ,
ना हो कष्ट इनको कोई भी ,
इनका रखें  ध्यान सभी ,
सम्मान करेंगे यदि बड़ों का ,
पायेंगे हम आशीष सभी ,
नींव सहेज कर यदि रखेंगे ,
सुन्दर  दिखेगा भवन तभी।

Saturday, August 6, 2016

" शर्म " - ' बेशर्म '

भाई , आप मुझ कविता सुनाने कहते हैं ,
कविता सुनना मुझे अच्छा लगता है ,
लोग कविता सुनाते हैं ,
लोग ताली बजाते हैं ,
हम भी कविता सुनते हैं ,
सब को देख कर ,
हम भी ताली बजाते हैं ,
वैसे ताली बजाने में कुछ भी नहीं रखा है ,
बोर कविता पर भी ,
कवियों को ताली बजाते देखा है।

मुझे कविता नहीं आती ,
न लिखना , न पढ़ना ,
गो  कि , काला अक्षर भैंस बराबर ,
लेकिन , चूंकि आप कह रहे हैं ,
कुछ जिद भी कर रहे हैं ,
तो , आईये , मैं कविता तो नहीं ,
एक वाकया सुनाता हूँ ,
और इसे ही ,
अपनी कविता बताना चाहता हूँ।
ताली बजाना कोई जरूरी नहीं है ,
क्योंकि यह एक किस्सा है ,
जीवन का एक हिस्सा है।
एक दिन मेरे एक प्रिय मित्र ने
मुझ से पूछा -
भाई ,  ' शर्म ' क्या होता है ?
और
" बेशर्मी " क्या होती है ?

प्रश्न सुनकर मैं  अचकचाया ,
पहले तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया ,
दिमाग पर जोर लगाया ,
अपनी भैंस वाली बुद्धी में
जो कुछ आया , उन्हें बताया ,
और एक ज्वलंत किस्सा सुनाया।
किस्सा यूँ है कि
तमाम अखबारों और न्यूज़चैनलों में
एक दिन एक समाचार आया -
एक शहर के जनपथ  ( हाईवे ) पर
अपहरण और फिर
माँ - बेटी के साथ  ....... 
दूसरे दिन एक मंत्री जी का बयान आया -
" राजनितिक साजिस "
तीसरे दिन फिर
एक अन्य मंत्री जी ने फरमाया -
यही घटना पहले वाले मंत्री जी के
घरवालों के साथ होती तो  ?
 ' अमर्यादित भाषा ' ।

भाई , हाईवे पर जो कुछ हुआ
वह है  " शर्म "
और , बाद में जो कुछ हुआ ,
वह है  " बेशर्मी "
अमर्यादित भाषाएँ भी
 ' बेशर्म ' की श्रेणी में होती हैं।
' शर्म ' और  ' बेशर्म ' की तमीज
अब किसी में नहीं रह गई है ,
क्या पढ़े , क्या अनपढ़े ,
क्या बड़े क्या छोटे ,
क्या संतरी क्या मन्त्री ,
इस कुकृत्य में शामिल हो
केवल  " गंगा  "  को ही नहीं
अपितु , सम्पूर्ण वातावरण को
प्रदूषित कर रहे हैं ,
ऐसे में  " गंगा  " की सफाई क्या ख़ाक होगी ?

स्कूल हो या कॉलेज , होटल हो या घर ,
बाजार या मॉल ,
खेल का मैदान हो या दफ्तर ,
ट्रेन हो  या हवाई जहाज ,
हर रोज चीखें उठती हैं ,
गाँव -गली , हर घर - हर शहर ,
सभी सहमें हैं ,
कोई  ' गौ रक्षा ' के नाम पर ,
तो कहीं जातिवाद के नाम पर ,
अमानवीय यातनाएं दे रहा है ,
जिन्हें आप देख - सुन कर भी
नहीं देखते ,
कहीं नंगा कर उनके खुले जिस्म पर
सोटियां बरसाते हैं ,
कहीं नंगे कोमल तलवों पर
प्रहार करते हैं ,
मानो
मरे हुए मवेशियों के खाल उतारने के
काम का जिम्मा  जिनका था
उनसे , उनका हक़ छीन कर
ये धर्म और समाज के तथाकथित उद्धारक,
जीवित लोगों की चमड़ी उधेरने में लग गए हैं।

यह शर्म ही नहीं , अति शर्म की बात है
और उससे भी इतर
इन दुर्घटनाओं पर राजनीति
' बेशर्मी ' की हद की  बात है।
ऐसी हर वीभत्स
घटनाओं - दुर्घटनाओं पर
सभी राजनीतिक पार्टियों का,
पीड़ितास्थल पर,
एक - एक कर जमावड़ा,
और पीड़ित -पीड़िता के
अस्मत को तार -तार करते ,
उसके दग्ध ह्रदय के
जख्मकी धधकती आग पर ,
अपनी - अपनी
राजनितिक रोटियाँ सेंकना भी
बेशर्मी की पराकाष्ठा नहीं , तो
और क्या है ?
अन्यथा , नहीं तो ,
ऐसी घटनाओं की पुनरावृति नहीं होती।

भाई ,यहाँ तो , न उम्र देखते , न जाति ,
सभी एक ही जूठन पर पिल पड़ते हैं।
कानून भी कभी - कभी
उघेड़ती है बखिया ,
इन दग्ध पीड़ितों की ,
जो , रहा - सहा कसर बाँकी रह जाता है ,
उसे पूरी करता है  ' मानवाधिकार आयोग  ' ,
पीड़ितों का मानसिक शल्य - क्रिया कर ,
जो जख़्म सूखने को है ,
उसमें वे  " स्पीरिट " डाल  कर रखते हैं जिन्दा ,
ताकि वे  , कह सकें  -
हमने भी काम किया है।
क्या ये  कानूनी प्रक्रियायें  
बिना शोर - शराबे के नहीं हो सकतीं ?

मेरी समझ में  ' शर्म ' और बेशर्मी को
किसी और तरीके से
परिभाषित नहीं किया जा सकता।
आप ही बताइये -
 क्या आपके पास भी
कोई नई परिभाषा है क्या ?
किस्सा यहीं करते हैं समाप्त ,
आप ताली बजाइये या नहीं ,
पर यह तो सोचिये
समाज कहाँ जा रहा है ?
और ,
जहाँ  जिस गर्त में जा रहा है
उससे उबरने का रास्ता बताइये।
उससे उबरने का   ........

                 विजय कुमार सिन्हा  " तरुण "
                 डी - 40 , रेस कोर्स , देहरादून।
                 (  उत्तराखण्ड  )
                 पिन  - 248001


















                 

Thursday, July 28, 2016

चलो चलो हम पेड़ लगायें

चलो चलो हम पेड़ लगायें ,
हरा - भरा संसार बनायें ,
कुसुम खिले पर्वत पर्वत पर ,
नदियाँ सब जल से भर जायें।

जब वर्षा की ऋतु आ जाये ,
घन भी बरस - बरस कर जाये ,
खेत और खलिहानों में अब  ,
पौध धान की हैं  मुस्काये।

खुशहाली जग में छा जाये ,
तुम मुस्काओ , हम मुस्कायें ,
शुद्ध हवा में साँस ले सकें ,
पेड़ लगायें , पेड़ लगायें।

चलो चलो हम पेड़ लगायें,
हरा - भरा संसार बनायें।

Saturday, July 23, 2016

जब से सावन

जब से सावन उमड़ के आया है ,
रूप धरती का है सँवरने लगा ,
हर तरफ छा रही है हरियाली ,
जैसे बादल से अप्सरा आई।

साल सोलहवाँ जो लगा आकर ,
रंग गोरी का है निखरने लगा ,
जैसे सावन के चाँदनी की हँसी ,
तन-वदन गोरी का है हँसने लगा।

रूपसी भी हैं अब लगी सजने ,
हाथ में मेंहदियाँ लगी रचने ,
लग गए डालियों पे झूले हैं ,
कृष्ण की बाँसुरी लगी बजने।

मोर भी हैं नाचने लगे वन में
जब से काली घटाएँ छाईं हैं ,
बज उठी घंटियाँ हैं मन्दिर में ,
भोले बाबा की याद आई है ।

Saturday, July 16, 2016

तिरंगा न झुकने देंगे

एक पत्थर तो हवा में उछाल कर देखो ,
कहर बन कर दुश्मन पर बरस कर देखो ,
हो नाम शहीदों में तुम्हारा भी कहीं ,
अपने सिर पर कफ़न बाँध कर देखो।

वतन के वास्ते जीने का फन सीख लो ,
कुर्बानी का जज्वये हुनर तो सीख लो ,
दे देंगे जां , तिरंगा न झुकने देंगे ,
कलम को तलवार बनाना तो सीख लो।

आज़ादी के शोलों को जला कर रखो ,
दुश्मन से गुलिश्तां को बचा कर रखो ,
कोई नापाक निगाहें न वतन पर उठे ,
आँखों में चिंगारी सजा कर रखो। 




Saturday, July 2, 2016

किसान

आँधी हो , तूफान हो ,
बारिस हो या झंझावात ,
किसान नहीं रुकता ,
वह नंगे बदन
घुटने तक की धोती पहिरे ,
कादो - कीचड में धँसे
पूरे मनोवेग से
खेतों में काम करता रहता है।
जब हम सब
बारिस में भींजने के डर से ,
सर्दी और बुखार के डर से
घरों में दुबके रहते हैं
वह खेतों में
वैसे ही मुस्तैद रहता है
जैसे सरहद पर जवान ,
जीवट प्राणी है किसान  !

वह  हम सब का अन्नदाता
अभाव में जीता है ,
खुद भूखा रहता है ,
बच्चों को भूखा रखता है
पर ,औरों की भूख मिटाने
हाड़ तोड़ श्रम करता है ,
खुद कच्चे खपरैले मकान में रहता है
हम सब के लिए
अन्न का भण्डार लगा देता है ,
है न जीवट प्राणी ?
जीवट लोग जीते हैं , मरते नहीं ,
उसे मारती हैं हमारी उपेक्षाएं।

अपने लहलहाते ,
लहराते खेत को देख कर
खुश होता है किसान
ठीक वैसे ही
जैसे, कोई खुश होता है
अपने बढ़ते बच्चों को देख कर  ,
बच्चों से भी ज्यादा प्यार करता है
वह अपने उगे फसलों को ,
 पूरा जीवन खपा देता है
फसलों की परवरिस में ,
किसान कभी मरता नहीं ,
उसे मारती हैं
हमारी असंवेदनायें।

नहीं रोता वह
घड़ियाली आँसू  ,
जैसे रोते हैं
कुछ विशिष्ट जन ,
उसे आस्था है ईश में ,
उसे भरोसा है
अपने श्रम पर ,
वह कोरे वादे नहीं करता ,
श्रम करता ,
श्रम के वादे करता।
श्रम की मिठास
किसान को जीवित रखता है ,
किसान स्वयं नहीं मरता ,
उसे मारते हैं झूठे वादे ,
उसे मारती है तंत्र व्यवस्था ,
उसे मारती है झूठी संवेदनायें।

              ------- ( प्रकाशित )

Friday, June 10, 2016

आर्तनाद

पहाड़ का दर्द
पहाड़ सा दर्द ,
 रात सोता है
सुबह रोता है
यह पहाड़ ,
अपने छाती पर होते
अतिक्रमण को देख कर ,
अपने विद्रूप होते
स्वरूप को देख कर ।

दरकता है चट्टान
दरकता है पहाड़ का सीना ,
दम घुटता है
फैलाये गये
प्रदूषण से
जो छोड़ गये हैं
पहाड़ की छाती पर ,
ढ़ेर सारा  कचरा ,
जूठन ,अपशिष्ट ,
मल और  मूत्र ।

वो गाते  हैं गीत
लहराते हैं पताका
" विजय " का
सुनते नहीं
मेरा आर्तनाद।
जिस  दिन
मिट जाएगा
मेरा अस्तित्व
मिट जाएगा
जंगल और कानन
सूख जायेंगी नदियां
मिट जायेगी
यह धरा।

         -------   (  पहाड़ का दर्द  शीर्षक से प्रकाशित )

Saturday, June 4, 2016

पाई यह कैसी आजादी ?

जहाँ बोली पर पहरा रहता ,
अभिव्यक्ति पर हो पाबंदी ,
कदम- कदम पर झूठ का फंडा  ,
सच कहने पर काराबन्दी ,
पाई यह कैसी आजादी  ?

कहते हमने की है तरक्की ,
टुकड़े में परिवार बँटा है ,
चचा , बुआ ,ताया - ताई ,
वृद्धाश्रम में दादा -दादी ,
पाई यह कैसी आजादी  ?

आरक्षण की भीत डाल कर ,
नफ़रत दिल में जगा रहे हैं ,
सत्ता की खातिर करते हैं ,
जनता के धन की बर्बादी ,
पाई यह कैसी आजादी  ?

किस माँ के हैं बेटे ऐसे ,
इतिहास के आखर मेटे ,
महापुरूषों के मुख्य पर कालिख ,
पोत रहे ये अवसरवादी ,
पाई यह कैसी आजादी  ?

Sunday, May 22, 2016

खोया हुआ शहर - देहरादून

देहरादून की सुन्दरता को
लग गई है

' विकास ' की नजर,
सड़कें चौड़ी हो गईं हैं ,
सहस्रों पेड़ों , दरख़्तों ने
दिया है अपना बलिदान।
अब ,
देहरादून हरा - भरा  शहर नहीं ,
पत्थरों और कंक्रीट का
शहर हो गया है ,
ठंढी , मुलायम बहती
हवा का स्थान
तपती - झुलसती
हवाओं ने ले लिया है।
नहीं हैं ,
लीची व आम के वो बाग
जो कभी , देहरादून की
पहचान और शान
मानी जाती थीं।
कभी यहाँ तांगा चलता था
शहर में ,
तांगे की जगह
ऑटो और कारें चलने लगी हैं ,
कभी वह भी वक़्त था
जब गर्मी के दिनों में भी
घरों में सुराही या घड़ा
नहीं रखा जाता था ,
पानी, नलों में
वैसे ही ठंढा - ठंढा
अनवरत आता रहता था ,
अब , ए. सी और कूलर का
समय आ गया है
आज के विकासमय शहर के लिए ,
विकासमंद लोगों के लिए।
यह सब ऐशो - आराम के साथ - साथ
आज की जरूरत भी बन गई है।
उफ़ ! इतनी गर्मी !
इतनी तपिश !
इतनी उमस !
इतनी धूल !
सभी बेहाल हैं ,
पेड़ जो बचे हैं
उनके हलक सूख रहे हैं ,
पक्षी और मानव , सभी ,
इस विकास के मापदंड में
विवस हैं
ढोने को परेशानियाँ ,
खाने को धूल
और ,
गर्म - गर्म हवा। 

       ( 2  )
आज, आप जो देख रहे हैं
राजपुर रोड की चौड़ी सड़कें ,
सड़क के किनारे
सजी बड़ी - बड़ी बिल्डिंगे
मॉल और मकान
दिलाराम चौक से लेकर
जाखन - राजपुर तक ,
नहीं थे तब।
तब केवल
सड़क के दोनों ओर
सघन , लंबे - लंबे ,
बड़े - बड़े , ऊँचे - ऊँचे
चीड़ और साख के पेड़ और दरख़्त थे ,
घना जंगल था ,
शाम घिरते ही
स्याह अँधेरा ,
घोर सन्नाटा
घोर नीरवता ,
बीच - बीच में
यदि कुछ था , तो
एस.पी साहब की कोठी ,
नेवल ह्यड्रोग्राफिक ऑफिस ,
राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की
कोठी की दूर तक लंबी दीवार ,
राष्ट्रीय दृष्टि बाधित संस्थान ,
फिर , आगे वही वीरानगी ,
वही पेड़ , वही दरख़्त ,
वही जंगल।

      ( 3 )
शहर के बीचो - बीच
स्थित घंटा  घर ,
देहरादून की शान ,
इसके अहाते में खड़ा
विशाल पीपल का पेड़ ,
( जो आज भी है )
 इसके ठीक सामने
पलटन बाज़ार ,
मुख्य आकर्षण ,
( आज भी है ),
घंटा घर के पास ही
' दिग्विजय ' सिनेमा हॉल
जिसका दायीं ओर का कुछ हिस्सा
विकास की भेंट चढ़ गया है
( अपनी कहानी खुद बयां कर रहा है ),
इसके दाहिनी ओर
चकराता रोड ,
कभी बॉटल नेक के नाम से प्रसिद्ध ,
इन सब के अलावा
यहाँ की साफ - सफाई ,
साज - सज्जा ,
अमन - चैन , भाईचारा ,
सौहाद्रता ,
तहज़ीब , सब थे।
न बदन जलाने वाली गर्मी थी ,
न थी तपिश ,
बारिस तो ऐसी, कि
भींगना न चाहते हुए भी
भींग जाते आप ,
ठंढ , कड़ाके की ,
ठीक दशहरे के बाद
स्वेटर और शॉल
निकल आते थे।
दिसंबर के अंतिम सप्ताह
और ,
जनवरी के प्रथम सप्ताह
बारिस न हो , और मसूरी में
स्नो फॉल न हो ,
पहाड़ हिमाच्छादित न हो
ऐसा संभव न था।
कितना सुंदर नज़ारा
तब जो था ,
वह अब नहीं है ,
अब है , तो
बस भीड़ है ,
भागम - भाग है ,
रेलम - पेल है ,
सड़कें सभी क्षत - विक्षत ,
जगह - जगह खुदी हुईं ,
धूल और कीचड़ से भरी हुईं ,
हर ओर ,
हर सूँ , ऑटो - बाईक - कारों से
उत्सर्जित धुएँ , और
कान फाड़ू आवाजें,
मिल कर ही देहरादून है ,
अपने आप में
खोया हुआ शहर।


           ---------     ( प्रकाशित )

Saturday, May 21, 2016

रात और मैं

रात भी रोती है ,
रात भी हँसती है ,
रात भी जागती है ,
रात भी सोती है ,
मैं हँसा ,
रात हँसी ,
मैं रोया ,
रात रोई ,
मैं जागता रहा ,
रात भी जागती रही ,
मैं सोया ,
रात भी सो गई ,
रात और मैं ,
दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची।

समय की रेत पर

समय की रेत पर ,
लिखता हूँ
जीवन की कविता ,
लिखता हूँ गीत ,
गुनगुनाता हूँ ,
बुनता हूँ सपने
हवा के परों पर ,
तेज झकोरों के साथ
ले जाता है उड़ा कर ,
कविता गीत और सपने ,
विचारों की आँधी ।
फिर से वही शून्य ,
निहारता हूँ आकाश ,
फिर से दुहराता हूँ
वही सब ,
खोजता हुआ जीवन ,
जो खो गया है
कविता , गीत और सपनों में  .....

Monday, May 2, 2016

सुन लो शहीदों की

सुनो ऐ हिन्द के लोगों कहानी हम  सुनाते हैं ,
शहीदों की व्यथाओं की कथा तुमको सुनाते  हैं।
दिए सर्वस्व थे जिसने , बढ़ाया मान हमसब का ,
उसी की आत्मा की ये व्यथा तुमको सुनाते हैं।

हमारी भूमि  पर आकर , सिर को काट ले जाते ,
मगर हम हैं सियासत में अमन की संधि कर आते ,
न कुछ भी दर्द ही होता , न कुछ भी क्षोभ ही होते ,
अमन के शत्रु के घर बैठ दावत खूब कर आते ,
किये बलिदान जीवन के , थे हमने देश की खातिर ,
कभी पैंसठ - इकहत्तर और करगिल याद हैं आते।
मगर ये जो सियासत है...

कटा कर शीष को हमने , किया  माँ - कोख  को सूना ,
निछावर भी किया था माँग के सिन्दूर पत्नी का  ,
बहन मेरी बहुत रोई , मेरा बेटा बहुत रोया ,
पिता को बेसहारा करके मैं धरती में जा सोया ,
मगर जब देखता हूँ मैं अपने देश की हालत ,
हमारा दिल बहुत रोता है , आँसू आँख में आते।
 मगर ये जो सियासत है   .....

कभी कश्मीर है जलता , कभी बंगलोर जलता है ,
कभी दिल्ली सुलगती है , कभी आंध्रा सिसकता है ,
महज कुर्सी की ही खातिर , ये जनता को लड़ाते हैं ,
हमें तुमसे लड़ाते हैं , तुम्हें हमसे लड़ाते हैं ,
कभी मंदिर जलाते हैं , कभी मस्जिद जलाते हैं ,
कभी बस्ती जलाते हैं , कभी दंगा कराते हैं
मगर ये जो सियासत हो   ........

तिरंगा तीन रंगों का , शहीदों की निशानी है ,
नहीं दुनियाँ में दूजा कोई इसका और सानी है ,
तिरंगे के लिए जीना , तिरंगे के लिए मरना ,
तिरंगे के लिए हमको जनम सौ बेर है लेना ,
तिरंगा है वसन मेरा , तिरंगा हो कफ़न मेरा ,
तिरंगे के लिए हम तो ये जां कुर्बान कर जाते।
मगर ये जो सियासत है  .......
  

Friday, April 15, 2016

श्रद्धांजलि

शब्दों का जादूगर सोया ,
कौन रचे शब्दों से गीत ,
दूर देश को चला गया वह ,
बन बैठा तारों का मीत।

हँसते- हँसते अभी मिला था ,
करता था वह सबसे प्रीत ,
क्या बच्चे ,क्या बूढ़े ,युवा ,
सब के दिल को लिया था जीत।

आज विदा हो गया जगत से ,
छोड़ गया जग के सब रीत ,
होंठ तुम्हारे बंद  गये ,
पर मुखरित हैं तेरे गीत।

यही हमारी श्रद्धांजलि है , तुमको मेरे मीत ,
सदा गूँजता रहे विश्व में ,तेरा सुन्दर गीत।

(  स्वo  श्री चिन्मय ' सायर ' को श्रद्धांजलि  )
        -----   ( प्रकाशित )

Tuesday, March 8, 2016

गरमी आई , गरमी आई

सूरज लाल हुआ है भाई ,
गरमी  आई , गरमी  आई।
जाड़ा भाग गया है डर से ,
गई रजाई ,गई रजाई।
मुझको प्यारी लगती गरमी ,
आइसक्रीम व कुल्फी लाई।
गरमी ने उपहार हैं लाये ,
खरबूजे ,तरबूजे लाई।
मधुर, रसीले आम भी लाया ,
शर्बत खूब पियो तुम भाई।
ठंढे - ठंढे जल से नित दिन ,
मल - मल बदन नहाओ भाई।

Tuesday, February 23, 2016

जंगल ही अच्छा है

जंगल में बहुत अमन चैन था ,
सभी जानवर मिल - जुल कर रहते थे ,
कोई किसी को बेवज़ह नहीं सताता था ,
बहुत शान्ति थी ,
अब कुशाशन फैल गया ,
जंगल कटने लगे , कट गए ,
जंगल का अमन - चैन खो गया ,
मानो , वहाँ का लोकतंत्र खो गया।
सभी   ' जंगली जानवर ' शांति की खोज में
शहर की ओर भागे ,
स्कूलों में आने लगे ,
ताकि , कुछ नैतिक शिक्षा प्राप्त कर सकें ,
मनुष्यों से मानवता सीखें ,
सभ्य बन सकें ,
पर , वह बहुत निराश हुआ ,
देखा ,यहाँ तो आदमी
आदमी को काट रहा है ,
बात - बात पर
बन्दूकें निकाल रहा है ,
शहर - शहर
बलात्कार हो रहा है ,
वृद्धाओं और बच्चियों से
दुर्व्यवहार हो रहा है ,
कोई तेंदुआ या भालू दिख गया , तो
उसे घेर कर मार रहा है ,
कहीं -कहीं तो
उसे पेड़ से उलटा लटकाया जा रहा है ,
सच मानो
यहाँ आदमी जंगली हो गया है ,
बात - बात पर हिंसक हो गया है ,
इतने स्कूल - कॉलेज हैं ,
पर नैतिकता नहीं है ,
उसने मन में सोचा ,
अपना जंगल ही अच्छा है।

नोट :-- रचना तिथि / माह - फरवरी  2016 
ब्लॉग्ड - 23 फेरवारी -2016  
 

जंगली आदमी

हमने , बचपन में सुना था ,
किताबों में पढ़ा था ,
बड़ों ने भी बताया था - ( कि )
शेर , बाघ , तेंदुआ
जंगली जानवर हैं ,
जंगलों में रहते हैं ,
अब , जंगल में आदमी रहते हैं
और ,
शेर , बाघ , तेंदुआ
शहर में रहने लगे हैं ,
आज का आदमी जंगली हो गया है। 
 
          ---- ( प्रकाशित )

Wednesday, February 17, 2016

माँ की पुकार

जिस
माँ ने सींच कर
हमारी धरती को ,
लगाया अन्न का अंबार ,
भर कर पेट
कोटि - कोटि संतानों का ,
किया रक्त संचार ,
अपने निर्मल ,स्वच्छ
जल पिला कर
उन्हें पाला - पोषा ,
बड़ा किया ,
वही माँ ,
आज ' कृशकाय ' हो गई ,
हो गई है बीमार।
क्या उसकी करोड़ों संतान
उसको देंगे नया जीवनदान  ?
ताकि ,
वह पुन: स्वस्थ्य हो कर
कर सके ,
आने वाली पीढ़ी का भरण - पोषण ,
दे सके उन्हें , अमृतदान  ?
            -----   मंजु सिन्हा

कागजी आदमी


खो गई है पहचान
आज के आदमी की ,
ढूढ़ रहा है
अपना आधार ,
बिना  ' आधार '
नहीं है उसका वज़ूद ,
गो कि ,
वह जिन्दा है ,
पर कागजों में नहीं है ,
नहीं है उसका अस्तित्व ,
आदमी  ' कागजी ' हो गया है।

           -------    ( प्रकाशित )

Saturday, February 13, 2016

कूड़ा बीनती लड़की

बिखरे - बिखरे से हैं बाल ,
उलझे - उलझे से हैं बाल ,
कोमल काया जीर्ण -शीर्ण है ,
वस्त्र भी तन का अति विदीर्ण है ,
यौवन झाँक रहा है जिससे ,
पर बेपरवा इन  बातों से ,
रोज सवेरे , बड़े अँधेरे ,
काँधो पर रख थैली - बोरे ,
कूड़ा बीनने घर से आती ,
नहीं कभी वह नागा करती ।
झटपट कुछ कूड़े में  चुनती ,
चुन- चुन कर थैले में रखती ,
पॉलिथीन -प्लास्टिक के साथ ,
लोहा , कागज़ , टूटे काँच ,
और न जाने क्या - क्या चुनती ,
इनमें ही वह सपने बुनती ,
सँभल - सँभल कर वह है चलती ,
आवारा कुत्तों से डरती ,
फिर भी कुछ पीछे लग जाते ,
सूँघ -सूँघ कर उसे डराते ,
सहमी - सिकुड़ी चलती रहती ,
मुँह से कभी न कुछ वह कहती ,
उसे पता है ,गर उलझेगी ,
दण्ड भी वह  उसका भोगेगी ,
यही सोच आगे बढ़ जाती ,
लोग करेंगे सौ - सौ बात ,
यहाँ भेड़िये घूमते रहते ,
लोलुप , लंपट करने घात।                                                                                                                 

रोज सवेरे वह तकती है                                                                                     
स्कूल को जाते बच्चे ,
सजे - सजीले , नीले - पीले ,
कितने प्यारे , कितने सच्चे ,
मन ही मन सोचा करती वह ,
काश  कि वह भी कुछ पढ़ जाती ,
इन बच्चों के संग - संग वह ,
पढ़ने को स्कूल को जाती ,
पढ़ कर खूब कमाती नाम ,
बड़े - बड़े करती वह काम ,
पर निर्धन घर की वह बेटी ,
कैसे दिखलाये यह हेठी ?
बूढ़े और अशक्त पिता की ,
कैसे वह सेवा कर पाती ,
साधनहीन नहीं होती गर ,
क्यों कर वह नित कूड़ा चुनती।
क्षुधामयी इस पापी पेट को ,
सबको ही पड़ता है भरना ,
भीख माँगने से तो अच्छा ,
लगता उसको कूड़ा चुनना।

प्रकाशित - हलन्त ( जुलाई 2023 )

Wednesday, February 10, 2016

बाट जोहती माँ

कभी बच्चे के स्कूल से
आने का बाट जोहती है माँ ,
उसके आने के समय से पहले ,
दरवाजे पर खड़ी दिखती है माँ ।

फिर , उसकी नौकरी का
इंतजार करती है माँ ,
और ,
जब नौकरी मिल जाती है -
बच्चे चले जाते हैं
दूसरे शहर , देश ।
माँ फिर तकती है राह ,
जोहती है बाट ,
उसके आने की ।

इसी क्रम में ,
पथरा जाती हैं उसकी आँखें ।
और अब वह ,
' दिल ' से जोहती है बाट ।

      -------    मंजु  सिन्हा
             
 

Friday, January 22, 2016

रोटी का स्वाद

रोटी का स्वाद  अमीर से नहीं ,
मजदूरों से पूछो ,
जो हाड़ - तोड़ मेहनत  के बाद ,
' नंगे ' बदन 
टपकते  ' स्वेद ' कणों में भींगा,
रोटी का  टुकड़ा ,
आँखें बन्द कर
अपने मुँह में डाल रहा है   .......

      ------- ( प्रकाशित )

       

Tuesday, January 19, 2016

दो कवितायें

         ( एक )

    औद्दोगिक शहर

कारखानों की चिमनी से
निकलता है धुआँ ,
भर जाता है
फेफड़ों में ,
एक से निकलता है
दूसरे में समा जाता है ,
यह औद्दोगिक शहर
कहलाताहै ।
           (  दो   )
      विकसित शहर

जंगल काट दिए गए हैं ,
सड़क किनारे लगे
फलदार पेड़ों पर
चली हैं आरियाँ ,
सड़कें चौड़ी हो गई हैं ,
दौड़ती हैं ढेर सारी
मोटर गाड़ियाँ ,
छोड़ती हैं धुआँ ,
नथनों में समाते हैं ,
बचे पेड़ों पर
हवा गुमसुम है ,
खामोश है चिड़ियाँ ,
घोंसले बिखर गये  हैं ,
तपता है धूप ,
तपता है -
पत्थर का शहर ,
दोपहरी को
नदी प्यासी
खोज रही
अपना ही अस्तित्व ,
लोग कहते हैं -
यहाँ बहुत
विकास हुआ है ,
यह है विकसित शहर।
           



Saturday, January 16, 2016

रणभेरी बजा दो

सरहद के पार देश के दुश्मन को जाता दो ,
जो देश के दुश्मन हैं , उन्हें आज बता दो ,
क्या होता है अंजाम समर का ये दिखा दो ,
नामो-निशान  दुनिया से दुश्मन का मिटा दो।

इस देश के हर वासी को है नाज हिन्द पर ,
गद्दारे वतन जो भी हों सूली पर चढ़ा दो ,
हम एक हैं, हम एक हैं, हम एक-एक,एक रहेंगे ,
संदेश हमारा है ये , दुनियाँ को बता दो।

है नहीं पसंद गर , उनको अमन की बात ,
छोड़ो अमन की बात , अब रणभूमि सजा दो ,
चन्दन है माटी देश की , माथे पर लगा  लो ,
आया है यह समय कि अब रणभेरी बजा दो।

                    

Friday, January 15, 2016

मेरा गाँव

काश !
तुम आ जाते ,
देखते मेरा गाँव।
माना कि नहीं हैं सड़कें ,
है नहीं जल व्यवस्था ,
किन्तु ,
नहीं है प्यार का अभाव ,
हमारी आँखों में
बहुत पानी है।
गो कि ,
बिजली भी नहीं है ,
गाँव में होता है
स्याह अन्धेरा ,
पर , हमारे ह्रदय में है -
प्रकाश - पुंज
प्यार का।
ये टेढ़ी - मेढ़ी
पगडंडियाँ , हैं
सिरायें और धमनियाँ ,
खेतों में
उगती फसलें हैं
पूरे देश के दिल की धड़कन।
कैसे समझाऊँ मैं
तुम्हें ,
गाँव , नहीं होता है
केवल गाँव ,
वह है
हमारी जननी ,
तुम्हारी जननी ,
सब की जननी ,
करती है पोषण ,
सहती है
सब व्यथा ,
ताकि ,
तुम सजे रहो ,
सुन्दर रहो ,
भव्य रहो
और
सदैव खुश रहो   ..... ...

Sunday, January 10, 2016

विडंबना

         
बच्चों को खिलौनों में देते हैं
बंदूक ,तीर और कमान ,
उम्मीद यह रखते हैं ( कि )
बनेंगे अच्छे और महान।
            
बेटियों को देते हैं शिक्षा ,सिखलाते हैं -
तुम हो आजाद , करते हैं प्यार ,
बहुओं पर रखते हैं कड़ी नजर ,
( और ) करते हैं अत्याचार।
              
दाल-रोटी का रोना रोते,
खाते  बर्गर , चाउमिन ,
सुबह - सवेरे दौड़ लगाते ,
शाम को जाते जिम।
              
तीर्थ के नाम पर दौड़ लगाते ,
बच्चे , बूढ़े और जवान ,
धर्म नगरी बदल गई है ,
हो गई है - पिकनिक स्थान।
           
देश में बढ़ रही है - बुजुर्गों की तादाद ,
पर नहीं दिखते, कोई बुजुर्ग ,
क्योंकि रंग लिये हैं
सभी ने अपने बाल।
          
घर में भी अब नहीं सुरक्षित
वृद्ध और लाचार ,
बहुएँ उन पर कर रहीं
लात - घूँसों की बौछार।
         ---- रचयिता - मंजु सिन्हा

नोट  : - हलन्त  ( फरवरी  २०१६ के अंक ) में प्रकाशित।