शायद तुम लौट आओगे अपनी भूल जान कर ,
शायद मेरा ख्याल आ गया होगा किसी मोड़ पर ,
पर तुम नहीं आये , बीत गया उदासा पहर ,
पाँव मेरे ठिठके , लौटा न सकी तुम्हें घर ।
शायद तुम लौट आओगे बच्चों के पास ,
उन्हें फिर से प्यार करने , उन्हें याद कर ,
तुम नहीं आये , मैं लौट आई , पिता के घर ,
एक बार फिर वृद्ध पिता के कमजोर कंधो पर।
तुम ,वही रंभा , मेनका , उर्वशी में लिपटे रहे ,
छोड़ नहीं पाए तुम अँगूर की बेटी का साथ ,
मैं रोज तुम्हें समझाती , गिड़गिड़ाती ,
पर , नहीं हुआ कभी भी तुम पर कोई असर।
रोज रात को देर से घर आना , लड़ना - झगड़ना ,
फिर वही तमाशा , मुझे बेधती पड़ोसियों की नजर ,
उस रात तो हद हो गई , जब तुमने मेरे साथ - साथ ,
कर दिया अपने ही बच्चों को भी घर से बाहर।
मैं अब भी तुम्हारे नाम का सिन्दूर ,
माँग में सजाये लड़ रही अपने आप से ,
शायद तुम्हारा ज़मीर लौट आये कभी ,
मुझे मुक्ति मिल जाए इस काले अभिशाप से।
तुम्हारी बेटी अब बहुत बड़ी हो गई है ,
ताड़ सी लंबी और ताड़ सी ही पतली ,
बेटे के मन में है क्षोभ और आक्रोश भी ,
नहीं बोलता है वह कुछ ,कहता चुप ही भली।
नहीं होने दिया है उजागर अपने दर्द को ,
ज़माना पढ़ ना ले चेहरा ,मुस्कुराती हूँ ,
शायद लौट आओ तुम उस गली को छोड़ कर ,
इसीलिये अँधेरी राह पर दिये जलाती हूँ।
बावजूद इसके , मैं खड़ी हूँ अडिगता से ,
हार गई है तुम्हारी पुरुषात्मक सत्ता ,
इसी हार की खीज से तुम बर्बर हो गए हो ,
करते , अँधेरे में , अकेले में छिप कर घात।
मैंने तोड़ दी हैं तमाम वर्जनाओं को ,
लाँघ लिया है मैंने आकाश , परबत , नदियाँ ,
तुम भले ठुकराते रहो , मैं नहीं हारूँगी ,
किसी भी डगर , किसी भी मोड़ , किसी सरहद पर।
शायद मेरा ख्याल आ गया होगा किसी मोड़ पर ,
पर तुम नहीं आये , बीत गया उदासा पहर ,
पाँव मेरे ठिठके , लौटा न सकी तुम्हें घर ।
शायद तुम लौट आओगे बच्चों के पास ,
उन्हें फिर से प्यार करने , उन्हें याद कर ,
तुम नहीं आये , मैं लौट आई , पिता के घर ,
एक बार फिर वृद्ध पिता के कमजोर कंधो पर।
तुम ,वही रंभा , मेनका , उर्वशी में लिपटे रहे ,
छोड़ नहीं पाए तुम अँगूर की बेटी का साथ ,
मैं रोज तुम्हें समझाती , गिड़गिड़ाती ,
पर , नहीं हुआ कभी भी तुम पर कोई असर।
रोज रात को देर से घर आना , लड़ना - झगड़ना ,
फिर वही तमाशा , मुझे बेधती पड़ोसियों की नजर ,
उस रात तो हद हो गई , जब तुमने मेरे साथ - साथ ,
कर दिया अपने ही बच्चों को भी घर से बाहर।
मैं अब भी तुम्हारे नाम का सिन्दूर ,
माँग में सजाये लड़ रही अपने आप से ,
शायद तुम्हारा ज़मीर लौट आये कभी ,
मुझे मुक्ति मिल जाए इस काले अभिशाप से।
तुम्हारी बेटी अब बहुत बड़ी हो गई है ,
ताड़ सी लंबी और ताड़ सी ही पतली ,
बेटे के मन में है क्षोभ और आक्रोश भी ,
नहीं बोलता है वह कुछ ,कहता चुप ही भली।
नहीं होने दिया है उजागर अपने दर्द को ,
ज़माना पढ़ ना ले चेहरा ,मुस्कुराती हूँ ,
शायद लौट आओ तुम उस गली को छोड़ कर ,
इसीलिये अँधेरी राह पर दिये जलाती हूँ।
बावजूद इसके , मैं खड़ी हूँ अडिगता से ,
हार गई है तुम्हारी पुरुषात्मक सत्ता ,
इसी हार की खीज से तुम बर्बर हो गए हो ,
करते , अँधेरे में , अकेले में छिप कर घात।
मैंने तोड़ दी हैं तमाम वर्जनाओं को ,
लाँघ लिया है मैंने आकाश , परबत , नदियाँ ,
तुम भले ठुकराते रहो , मैं नहीं हारूँगी ,
किसी भी डगर , किसी भी मोड़ , किसी सरहद पर।
No comments:
Post a Comment