Monday, June 8, 2015

जब हमने कहा सूरज से ( बाल-गीत )

जब हमने कहा सूरज से
ज़रा अपना रूप दिखाओ ,
वह हँस कर बोला मुझसे -
तुम मेरे पास तो आओ।

मैंने तब बोला उससे -
मैं कैसे पास में आऊँ ,
तुम इतने दूर हो रहते
मैं पैदल न चल पाऊँ।

तब हँस कर बोला सूरज -
नित पास तेरे आता  हूँ ,
मैं कई रूपों का नटवर
नित संग तेरे रहता हूँ ।

शीत ,घाम वर्षा में ,
वह मैं ही तो रहता हूँ ,
ये तीनों ही ऋतुएँ हैं ,
जिसमें विचरण करता हूँ।

जाड़े में तुम मेरी
बाँहों में समा जाते हो ,
पर गर्मी जब है आती ,
तुम घर में छिप जाते हो।

बारिस के मौसम में
बादल बन कर हूँ आता ,
घनघोर घटा गर्जन कर ,
धरती पर जल बरसाता।

मैं  भी हूँ ख़ुशी मनाता ,
तुम भी हो ख़ुशी मनाते ,
पानी में छप - छप करते ,
कागज की  नाव चलाते।


एक थी अरुणा

एक थी अरुणा ,
उम्र भर झेलती रही ,
एक गुनहगार के गुनाह का  दंश।
न वो मर सकी ,
न वो जी सकी ;
जीवन भर का संताप दे ,
गुनहगार मौज करता रहा
शाशन की अकर्मण्यता पर।
उसने मौत माँगी ,
मौत न मिली ,
सजा मिली ,
उम्र भर दंश झेलने का  .... 
कौन देगा हिसाब
उसके टूटे सपनों का ?
उसके मन और तन पर
रेंगते , बिलबिलाते
असंख्य कीड़ों का ?
क़ानून के हाथ बँधे हैं ,
न्याय की तराजू में पासंग है।
उठो स्वयं खड़े हो ,
स्वयं ही लड़ना होगा ,
करना होगा हिसाब बराबर
इन आततायियों से  .......
                     
( श्रद्धांजलि कविता -  A tribute to Aruna shanbaug )
                                               

अभी बहुत है शेष

अरे ! रुको ,
मत बिको चंद डॉलर की खातिर ,
अभी देश की गरिमा पर
मत दॉँव लगाओ ,
अभी बहुत है शेष
तरुण की तरुणाई में ,
ढलने को है तिमिर निशा ,
आने में है नहीं देर ,
अब अरुणाई में  …....

अरे ! रुको ,
मत घुटने टेको किसी के आगे ,
अभी देश की महता पर
मत प्रश्न लगाओ ,
अभी बहुत है शेष
हमारी अँगड़ाई में ,
होने को है प्रात - पुञ्ज ,
कूक रही कोयलिया ,
है अमराई में  ……

             ------  ( प्रकाशित )