Sunday, July 29, 2012

गाँव को गाँव ही रहने दो




गाँव    को  गाँव    ही  रहने   दो
मत   बदलो   इसे   शहर    में   ।
गाँव       की   गोरी    का  ,
पनघट  की   छोरी    का  ,
निश्छल    मुस्कान
कहीं  खो  न    जाये  ,
शहर   की  तंग  गालियों  में  ,
इसलिये  ,
गाँव    को   गाँव  ही  रहने  दो
मत   बदलो   इसे   शहर   में    ।

पूर्बी   सूरज   की   लाली   में  ,
कांधे  पे  हल  ले  जाता   किसान  ,
खेतों  की   सँकरी    , टेढ़ी - मेंढी   
पगडंडियों  -  मेड़ों    पर   ,
उन्मुक्त   छलांगे  लगाते  ,
मेमनों   की    उन्मुक्तता  ,
कहीं    खो  न   जाये  ,
इसलिये  ,
गाँव   को  गाँव   ही  रहने    दो
मत   बदलो  इसे   शहर    में     ।

खेतों   में  उगे  फसलों  की  गंध
चुराये  , भागता  , सर - सर  पवन ,
रोटी और  दाल   की  पोटली  ,
सिर  पर  ले  जातीं  कृषक  बालायें  ,
बैलों   के   गले   में   बजतीं  ,
टुन - टुन   घंटियों   की  आवाज  ,
कहीं    खो  न    जाये  ,
इसलिए  ,
गाँव   को  गाँव   ही  रहने    दो
मत  बदलो   इसे   शहर     में      ।

 


Thursday, July 26, 2012

झरोखा

मैं    झरोखा    हूँ  ,
जिससे  झांकते  हैं  लोग  ,
मेरे  अन्दर  का   आदमी  ,
जिसमें  समाया  है
पूरा  रेल   समाज    ।
लोग  मुझमें  ही  ढूंढते  हैं
आस्था  ,  सौम्यता  ,
शीलता  और  विनम्रता  ,
और
एक   छवि   बनाते   हैं
सिर्फ  मुझमें   देखकर    ।

"एक   ही   मछली   ,
तालाब   गंदा   करती  है  "
यह   कहावत   चरितार्थ   न  हो
इस   भारतीय  रेल  पर  ,
इसलिये  ,
आओ     हम  करें  प्रतिकार
अपने  अन्दर  के  दुर्गुणों   का
और  करें  विस्तार
अपने  हृदय   के  उद्गार   ,
सहज  में   जीत  लेंगे
प्यार  से   प्यार   को         ।

हम   हिमालय  से   अडिग  ,
सत्य   की  राह  पर   ,
कर्मठ  , कर्मयोगी   की  तरह  ,
" बुद्ध "  के  अनुयायी   रहे   हैं  ,
हमें  प्रलोभन   और   आशक्तियाँ
डिगा   नहीं  सकतीं     ,
हमने  क्रोध   को  जीत  लिया  है  ,
जिस  तरह  "अंगुलीमाल  " को
जीता  था  हमने
प्यार  से  , मृदुलता  से  , नम्रता   से   ।

आओ  , आज   हम   ,
इस   प्रांगन   में   प्रतिज्ञा    करें    -
अपने  मृदुल   व्यवहार   और  आचार  से  ,
नम्रता  और  विनम्रता   से
जीत  लेंगे  ,  इस  विश्व   को  ;
फिर  कोई  अंगुलिमाल  पैदा  न  हो  ,
जो  ,  चुपके  से  मेरी  उंगलियाँ   काटे
या  घाव  कर  दे   मेरी  उंगलियों     में ,
अत:   आओ    ,
इस   " झरोखे  "  को  सजायें
मृदुलता   और  नम्रता  की  बेल     से      ।

(  नोट  -   वर्ष  1988  में  तत्कालीन   वरिष्ठ   मंडल   वाणिज्य   अधीक्षक  , उत्तर   रेलवे  , मुरादाबाद
    द्वारा   पुरष्कृत   )







Thursday, July 19, 2012

वक्त

हमने  तो  सूरज  को  धरा  पर
लुंठित  होते  देखा  है  ,
चांदी  से चमकते  चाँद  को भी
धरती  पर  झुकते  देखा  है       ।

है  वक्त  वक्त  की  बात  ,
न  करना गर्व  कभी अपने पर तुम  ,
हमने  राजा  से  रंक ,
रंक से राजा बनते  देखा  है        ।

जो  खड़ा   रहा  वह टूट  गया  ,
जो झुका रहा    वह जीत गया ,
इस जीत हार  के  द्वंदों  में  ,
अपनापन  खोते  देखा    है         ।

वक्त  की आंधी  में  हमने  ,
पर्वत  को  मिटते  देखा  है ,
हमने परवाज  के  पर को  भी ,
तिनके  सा  बिखरते  देखा है        ।

भाल  भरोसे  बैठ न   तू  ,
श्रम कर  जितनी  कर  सकता है ,
हमने तद्वीरों   के  हाथों  ,
तकदीर   बदलते  देखा  है             ।