Friday, December 29, 2017

गंगा मैली हो गई है ....

भोर की आहट भर थी ,
भोर नहीं हुई थी ,
मैंने माँ गंगे से पूछा  -
हे ! पतित पावनि ,
पापहारिणी ,
माँ गंगे !
शीतल , निर्मल
स्वच्छ धाराओं संग ,
छल - छल, कल - कल  कर
बहती रहती हो अनवरत , अबाध ,
कभी भगीरथ की प्रार्थना से
द्रवित हो ,
तुम धरती का उद्धार करने
अवतरित हो  ,
मौज में बहने लगीं ,
पर , अब सभी कहते हैं  , कि
गंगा मैली हो गई है  ......
और ,
इस मैली गंगा के आँचल की सफाई
वर्षों से हो रही है ,
करोड़ों खर्च हुए ,
करोड़ों खर्च हो रहे हैं ,
करोड़ों खर्च होंगे
पर , तुम्हारा आँचल
मैला का मैला ही रहा  ,
ऐसा क्यूँ  ?
माँ की अधरों पर
एक निश्छल मुस्कान उभरी ,
कहने लगीं  -
वत्स ! माँ का आँचल तो
कब से मैला ही है ,
मैं बार - बार धोती हूँ ,
बार - बार साफ करती हूँ
और तुम हो कि
इसे बार - बार मैला कर देते हो  ,
फिर पूछते भी हो !

अरे !
करोड़ों खर्च करो या अरबों  ,
रुपयों से भला माँ का आँचल
कैसे साफ होगा
जब, हमारे पुत्रों का
मन ही मैला हो   ?
यह आँचल धन से नहीं ,
मन और तन के श्रम से
साफ हो सकेगा  .......
मेरे जीर्ण - शीर्ण जीवन पर
कौन ध्यान देता है ,
सभी अपने नाम की
डुगडुगी पिटवाते हैं  ,
और ,
हमारे ही तट पर बैठ कर
सन्यासी बन जाते.हैं  ।

जब व्यवस्था में ही दोष हो
और , मन में भी खोट  हो  ,
तो ,
एक मेरा ही दामन क्या
सभी का दमन मैला ही रहेगा ,
चाहे जितनी चन्दन घिसो ,
चाहे जितना तिलक लगाओ ।
अब कोई भगीरथ नहीं ,
जिसने जनकल्याण के लिए
वर्षों तपस्या कर
मुझे इस धरा पर लाया।
अब तो
सभी शाशक
और
सभी शोषक बने हैं ,
जनकल्याण की भावना
विलुप्त हो गई है
और लक्ष्य
स्वकल्याण और स्वसत्ता पर
केंद्रित हो गई है
और मैं !
मैली की मैली
रह गई हूँ   ........
 
       ---- ( प्रकाशित )

Monday, December 18, 2017

अभिनन्दन

नूतन नवल बरस अभिनन्दन ,
तुमसे नई - नई आशायें ,
निष्कंटक हो पंथ हमारा ,
जीवन पथ पर बढ़ते जायें ।

फूलों सा जीवन यह महके ,
जग को भी महकाते जायें  ,
मन में हो सद्भाव सभी के ,
बैर भाव मन में ना आयें ।

अभ्युदय हो सकल विश्व का ,
मधुर सरस रस को बरसायें ,
प्यार के फूल खिले हर दिल ,
जग को अपना मीत बनायें ।

नित - नित नव सोपान चढ़ें हम ,
नित - नित , नव , नव संरचना हो ,
मानवता हो ध्येय हमारा ,
चहुँ विकास का लक्ष्य बनायें ।

चन्दन सम धरती की माटी ,
माथे इसका तिलक लगायें  ,
इस नव वर्ष करें कुछ ऐसा ,
जीवन कुसुमित सा मह्कायें ।

Sunday, December 17, 2017

राम राज्य

राम राज्य  ?
कौन राम  ?
कैसा राज्य  ?
त्रेता से लेकर
कलयुग तक
राम भटकते ही रहे हैं 
जीवन भर  ........
कभी कर्तव्य  ,  कभी धर्म  ,
कभी राजनीति के
चक्र्व्यूह में फँस कर
सन्यासी जीवन ही
जीते रहे हैं ,
कभी मर्यादाओं में बाँधा ,
कभी सीमाओं में ,
न उनको राज्य ही मिला ,
ना ही ,  अपना धाम ही ।
कभी म्यूजियम में आश्रय मिला ,
कभी टेंट में रखा ,
तो ,
कभी   " सरयू " के तट पर
बहलाने को
हजारों प्रज्वलित दीपों से
स्वागत किया  ,
' अतिथि देवो भव ' !
वस्तुत: , हम राम को
छलते ही तो रहे हैं  ,
और ,
राम ! भोले राम
छले जाते रहे ,
छले जाने पर भी
मुस्कुराते ही रहे  ....... .
वह नियति के नियंता ,
मानव के इस कौतिक क्रीड़ा को
देखते हैं , समझते हैं
और ,
मुस्कुरा भर देते हैं ,
वह जानते हैं  -
यह विश्व - यह जगत
विष - कुंभ है ,
सभी इस विष - कुंभ के विष को
पी रहे हैं ,
कुछ कम , कुछ ज्यादा ,
सभी आनंदमग्न हैं
अपने आपको  छलते हुए   !
सत्य से
सभी को डर लगता है
इसलिए , अपने मन के अन्दर
वे नहीं झांकते हैं ,
कहीं वहाँ से गिर न पड़ें  ........
हा राम !
तुमने ताड़का को मारा ,
मारीच को मारा ,
बाहू - सुबाहू ,मेघनाद को मारा ,
रावण को भी मार गिराया ,
पर अपने ही निर्मित मानव के
मन के अन्दर छिपे बैठे
स्वार्थ और दुर्भावनाओं के दानव को
नहीं मार सके ,
भले तुम्हे अपने सिंहासन पर
विराजित नहीं  किया जा सका है
परन्तु , आदि से अनादि तक
सत्ता पूजित और पोषित
होती रही है , होती रहेगी ,
और , तुम यूँ ही
कभी यहाँ  , कभी वहाँ
भटकते ही रहोगे ,
आखिर एक माँ का श्राप भी तो तुम्हे  है  ,
" श्रवण कुमार " की आत्मा
अब भी भटक रही है ,
भटक रही है , भटक रही है  .........
(  यह कविता मैंने 9 दिसम्बर 2017 को लिखी  )
        ---- ( प्रकाशित )