राम राज्य ?
कौन राम ?
कैसा राज्य ?
त्रेता से लेकर
कलयुग तक
राम भटकते ही रहे हैं
जीवन भर ........
कभी कर्तव्य , कभी धर्म ,
कभी राजनीति के
चक्र्व्यूह में फँस कर
सन्यासी जीवन ही
जीते रहे हैं ,
कभी मर्यादाओं में बाँधा ,
कभी सीमाओं में ,
न उनको राज्य ही मिला ,
ना ही , अपना धाम ही ।
कभी म्यूजियम में आश्रय मिला ,
कभी टेंट में रखा ,
तो ,
कभी " सरयू " के तट पर
बहलाने को
हजारों प्रज्वलित दीपों से
स्वागत किया ,
' अतिथि देवो भव ' !
वस्तुत: , हम राम को
छलते ही तो रहे हैं ,
और ,
राम ! भोले राम
छले जाते रहे ,
छले जाने पर भी
मुस्कुराते ही रहे ....... .
वह नियति के नियंता ,
मानव के इस कौतिक क्रीड़ा को
देखते हैं , समझते हैं
और ,
मुस्कुरा भर देते हैं ,
वह जानते हैं -
यह विश्व - यह जगत
विष - कुंभ है ,
सभी इस विष - कुंभ के विष को
पी रहे हैं ,
कुछ कम , कुछ ज्यादा ,
सभी आनंदमग्न हैं
अपने आपको छलते हुए !
सत्य से
सभी को डर लगता है
इसलिए , अपने मन के अन्दर
वे नहीं झांकते हैं ,
कहीं वहाँ से गिर न पड़ें ........
हा राम !
तुमने ताड़का को मारा ,
मारीच को मारा ,
बाहू - सुबाहू ,मेघनाद को मारा ,
रावण को भी मार गिराया ,
पर अपने ही निर्मित मानव के
मन के अन्दर छिपे बैठे
स्वार्थ और दुर्भावनाओं के दानव को
नहीं मार सके ,
भले तुम्हे अपने सिंहासन पर
विराजित नहीं किया जा सका है
परन्तु , आदि से अनादि तक
सत्ता पूजित और पोषित
होती रही है , होती रहेगी ,
और , तुम यूँ ही
कभी यहाँ , कभी वहाँ
भटकते ही रहोगे ,
आखिर एक माँ का श्राप भी तो तुम्हे है ,
" श्रवण कुमार " की आत्मा
अब भी भटक रही है ,
भटक रही है , भटक रही है .........
( यह कविता मैंने 9 दिसम्बर 2017 को लिखी )
---- ( प्रकाशित )
कौन राम ?
कैसा राज्य ?
त्रेता से लेकर
कलयुग तक
राम भटकते ही रहे हैं
जीवन भर ........
कभी कर्तव्य , कभी धर्म ,
कभी राजनीति के
चक्र्व्यूह में फँस कर
सन्यासी जीवन ही
जीते रहे हैं ,
कभी मर्यादाओं में बाँधा ,
कभी सीमाओं में ,
न उनको राज्य ही मिला ,
ना ही , अपना धाम ही ।
कभी म्यूजियम में आश्रय मिला ,
कभी टेंट में रखा ,
तो ,
कभी " सरयू " के तट पर
बहलाने को
हजारों प्रज्वलित दीपों से
स्वागत किया ,
' अतिथि देवो भव ' !
वस्तुत: , हम राम को
छलते ही तो रहे हैं ,
और ,
राम ! भोले राम
छले जाते रहे ,
छले जाने पर भी
मुस्कुराते ही रहे ....... .
वह नियति के नियंता ,
मानव के इस कौतिक क्रीड़ा को
देखते हैं , समझते हैं
और ,
मुस्कुरा भर देते हैं ,
वह जानते हैं -
यह विश्व - यह जगत
विष - कुंभ है ,
सभी इस विष - कुंभ के विष को
पी रहे हैं ,
कुछ कम , कुछ ज्यादा ,
सभी आनंदमग्न हैं
अपने आपको छलते हुए !
सत्य से
सभी को डर लगता है
इसलिए , अपने मन के अन्दर
वे नहीं झांकते हैं ,
कहीं वहाँ से गिर न पड़ें ........
हा राम !
तुमने ताड़का को मारा ,
मारीच को मारा ,
बाहू - सुबाहू ,मेघनाद को मारा ,
रावण को भी मार गिराया ,
पर अपने ही निर्मित मानव के
मन के अन्दर छिपे बैठे
स्वार्थ और दुर्भावनाओं के दानव को
नहीं मार सके ,
भले तुम्हे अपने सिंहासन पर
विराजित नहीं किया जा सका है
परन्तु , आदि से अनादि तक
सत्ता पूजित और पोषित
होती रही है , होती रहेगी ,
और , तुम यूँ ही
कभी यहाँ , कभी वहाँ
भटकते ही रहोगे ,
आखिर एक माँ का श्राप भी तो तुम्हे है ,
" श्रवण कुमार " की आत्मा
अब भी भटक रही है ,
भटक रही है , भटक रही है .........
( यह कविता मैंने 9 दिसम्बर 2017 को लिखी )
---- ( प्रकाशित )
No comments:
Post a Comment