Tuesday, January 21, 2014

उठाओ , मेरी जलती चिता से मशाल

मैं जीना चाहती थी ,
जीने कि जिजिविषा थी मुझ में ,
जीने कि लालसा में
मैं अपनी टूटती साँसों से
लगातार संघर्ष कर रही थी  ।
मेरी आँखों में ,
अब भी भय था ,संत्रास था ,
चिंदी - चिंदी हो रही थी  मेरी अस्मिता
मेरे बदन पर मानो
सहस्त्रों बिच्छुओं ने
एक साथ डंक चुभो दिये हों ,
मैं दर्द और पीड़ा से
चीखती रही , छटपटाती रही........
मेरा सम्पूर्ण शरीर ,जैसे सड़ गया,और
असंख्य कीड़े बिल - बिला रहे हैं ,
रेंग रहे हैं ,
मैं बेसुध हो गई,
जैसे ही होश आया
मैं पुन: संघर्षरत हो गई ।
मैं  नहीं हारी ,
हार कर   पिशाचों ने
मुझे खिड़की से बाहर फेंक दिया ,
फिर , मैं एक तमाशा बन गई............
सदियों से
यही होता चला आ रहा है ,
नारियाँ ,
जो संसार को चलातीं हैं ,
वही रौंदी जातीं हैं ,कुचली जातीं हैं ,
सताई जातीं हैं ,
काटी जातीं हैं ,
जलाई जातीं हैं।
नारियाँ ,
जो , कभी माँ , कभी बहन ,
कहीं पत्नी ,
कहीं नानी , दादी ,बुआ ,मौसी और
न जाने कितने रिश्तों को जोड़ कर
ममता और स्नेह से
पुरुष  को सींचतीं हैं,
वही पुरुष , कापुरुष,
नरपिशाच बन जाता है ,
कैसा अधम है यह पुरुष जो  ,
सम्पूर्ण नारी जाती को
अपमानित , कलंकित और
तिरस्कृत करता है ?
नारियों ,उठाओ ,
मेरी जलती चिता से मशाल
और
जला दो इस विश्व को ,
ऐसे विश्व का क्या करना
जो विषकुंभ बन गया हो ...........