Monday, July 16, 2018

विवश पाँचाली

दिल के दर्द उकेरूँ कैसे 
इस कागज़ के टुकड़े पर ,
मन की व्यथा बताऊँ कैसे
काँप रहे सुकुमार अधर ।

जिधर - जिधर दृष्टि करता हूँ ,
विवश पाँचाली दिखती है  ,
बीच सड़क पर दुर्योधन की
फ़ौज खड़ी दिखती   है ।

विज्ञापन के नारों में बस
है सु:शाशन का नारा ,
राजनीति के चक्र्व्यूह में
अभिमन्यु सदा ही हारा।

हर दिन , हर शै  ,गली - गली में ,
है चीत्कार बेटी का ,
सुनकर भी है नहीं टूटता ,
तुला यहाँ पर न्याय का।

जाने कितनी निर्भया रोज
हा ! निरपराध मरती है ,
जाने कितनी बिटियों के तन ,
नित ही विदीर्ण होती है।

है बड़े सुनहरे पट्टी पर ,
बेटी बचाव का नारा ,
कैसे पढ़ पाएगी बेटी ,
शाशन - समाज नक्कारा।

Friday, July 13, 2018

पेड़ का बलिदान

एक शाम मेरे जेहन में
एक प्रश्न उभर आया ,
भेड़ और पेड़ में क्या अंतर है  ?
भेड़ों के भाग्य में लिखा है कटना ,
भेड़  कटते हैं , रोज कटते हैं ,
पेड़ों के भाग्य में लिखा है कटना ,
पेड़ कटते हैं , रोज  काटे जाते हैं। 
क्या फर्क पड़ता है -  भेड़ छोटा है या बड़ा ,
पेड़ सूखा है या हरा - भरा  ?

जिह्वा की संतुष्टि के लिए  ,
भेड़ बलिदान हो जाते हैं ,
शहर के विकास के लिए
पेड़ बलिदान हो जाते हैं।

किसी के विकास के लिए जरूरी है
किसी का बलिदान हो जाना  ,
पेड़ बलिदान हो जाते हैं ,
मानव के विकास के लिए ,
बन जाती हैं चौड़ी - चौड़ी सड़कें ,
आलीशान इमारतें ,
मजबूत दरवाजे , खिड़कियाँ ,
टेबल - कुर्सी  , फर्नीचर ,
और न जाने क्या - क्या।
पेड़ बलिदान देकर भी
अमर हो जाते हैं ,
कट कर भी
अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं पेड़ ,
एक हम हैं - मानव  ,
उसके बलिदान को ,
उसके त्याग को , उसके दर्द को
भुला देते हैं  ,
और ,
चलाते हैं  आरियां , पेड़ों पर ,
अनवरत - लगातार    .......
(  10 - 07  - 2018  )

Tuesday, July 10, 2018

मरी खाल की साँस सों

अपनी सत्ता और पुत्रों के प्रति मोह ने
धृतराष्ट्र को अंधा बना दिया है ,
उसके चारों ओर खड़े
जान - गण - मन  की भीड़ ,
उसे दुश्मन से प्रतीत हो रहे हैं   ......

अपने अजेय किले , और
बंधु - बान्धवों की
अपार कतार को देख ,
वह कुटिल मुस्कुराहट
और विद्रूप हँसी से
सब का उपहास मना रहा है ,
फिर एक महाभारत की तैयारी
कलियुग ने कर ली है  ........

फैली हुई अव्यवस्थायें
उसे नहीं दीखती ,
उसके अपने अट्टहास में
गिरते - पड़ते - मरते जन
नहीं दीखते ,
उसकी आँखों पर
अहंकार का पर्दा पड़ गया है  ......

इतिहास अपने - आपको दुहराता है ,
वही चौकड़ी है ,
शकुनि भी है , गुरु  द्रोण भी ,
वृद्ध भीष्म पितामह भी
( जिन्हें अब एक बगल खड़ा कर दिया गया है  )   ......

अरे ! ओ धृतराष्ट्र !
काल का पहिया घूमता है ,
भूल मत , यहाँ सब नश्वर है ,
न तू रहेगा , न तेरी सत्ता ,,
न तेरे पुत्रों - बंधु - बांधवों की फ़ौज ,
जो बच जायेंगे तेरे परिजन ,
तब वही तेरा उपहास करेंगे   .......

मन की आँखें खोल ,
और देख  -
" मरी खाल की साँस सों  ,
लौह भस्म हो जाय "
मत ले आह ,
दुनिया ने पत्थरों को पूजा है
तो , ठोकरें भी लगाई है ,
दर्प की अग्नि में
जल जाता है सब कुछ ,
न तख़्त ही रहता ,
न ताज ही रहता ,
प्यार के ही न्याय का  ,
बस , राज  है रहता  ,