Monday, June 18, 2018

जब शाशन के नाक के नीचे

जहाँ मोल मानव जीवन का ,
कौड़ी सा आँका जाता है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

जहाँ धर्म के नाम कोई भी
कृत्य अधर्म कर जाता है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

कदम - कदम पर मुँह बाये ही ,
मिलती हो खड़ी अराजकता ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

जब शाशन के नाक के नीचे ,
अस्मत नारी की लुटती है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

जहाँ आदमी का जीवन ,
पशु से बदतर हो जाता है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

जहाँ शाशन भी आँख मूँद ,
बस दर्शक सा बन जाता है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

Friday, June 15, 2018

" गौरैया "

कहते हैं अब  नहीं दिखती है  गौरैया
जिसकी  चीं -चीं  की आवाज से
होती थी सुबह ,
वह अब कहीं खो गई है ,                  
जिसकी चहचहाहट से
घर - आँगन होता था गुलजार। 

गौरैया  शहरों में नहीं दिखती ,
दिखती है शहर की गलियों में ,
नहीं लगता है उसका दिल
कंक्रीट के महलों में ,
अट्टालिकायें  और फ्लैट
उसे पसंद नहीं ,
शहर के मकानों में आँगन नहीं होते ,
ना ही सुखाये जाते हैं
गेहूँ  - चावल जैसे अन्न।
शहर में लोग लाते हैं  , खाते हैं
पके - पकाये भोजन ,
गौरैया  चुगती है दाने ,
इसीलिये वह दिखती है
शहर की गलियों में ,
गली वाले घर में ,
जहाँ  उसको  मिलते हैं दाने ,
रहने को छोटी सी जगह ,
छप्पर - छाजन और ताखे ,     
आज भी दिखती है गौरैया  ,
गली  वाले घर के आँगन में ,
क्योंकि वह है आँगन की चिड़िया   ........
              --------   मंजु सिन्हा