Thursday, November 17, 2022

स्त्री

पुरुष ने
स्त्री से कहा -                                                                                                                                           
मैं श्रेष्ठ हूँ
स्त्री ने  पूछा  -
वह कैसे ?
पुरुष बोला -
मैं समन्दर की छाती
चीर सकता हूँ ,
आकाश लाँघ सकता हूँ ,
पहाड़ तोड़ सकता हूँ ,
युद्ध ,  कोई  भी हो ,
जीत सकता हूँ ,
और  ...
और क्या - स्त्री  ने पूछा ?
मैं नदी मोड़ सकता हूँ ,
हवा का रुख बदल सकता हूँ ,
फौलादी हैं हमारी भुजायें ,
लोहे को भी तोड़ - मरोड़ सकता हूँ  .........
स्त्री बोली -
चलो , तुम जीते ,
मैं हारी ,
किन्तु !
पुरुष को ,जन्म तो ,
एक स्त्री ही देती है !
पुरुष चुप हो गया  .........
- विजय कुमार सिन्हा " तरुण " 

Thursday, October 20, 2022

एक परी चंचल

आज तुम्हारे दिल के आँगन ,खूब मची हलचल ,
चुपके-चुपके दिल रोया और आँखें पल ,हर -पल। 

लाख छुपाया हँस-हँस करके ,तुमने दिल के ज़ख्म ,
कर गई चुगली मुझसे, तुम्हारी , सांसों की उथल-पुथल। 

सुन सजनी मैं राग तुम्हारा , तुम हो रागिनी मेरी ,
तुम ही जीवन की खुशबू हो , तुम ही गीत - ग़ज़ल। 

जब - जब मैंने अधरों पर है गीत नया कोई छेड़ा ,
आँखों के अँगना मेरे  उतरी , एक परी चंचल। 

भावुक मन है , कोमल तन है , मोहक छवि तुम्हारी ,
जैसे अभी - अभी खिला हो , ताल में पुष्प कमल। 

चिकुर बादलों से निकला है , चंदा एक नवल ,
नीलकमल सी आँखें तुम्हारी , हिरणी सी चंचल।

Wednesday, August 31, 2022

"मेरा बचपन लौट आया है "

बाद मुद्दत के , लौट कर ,
अपने शहर आया ,
सब कुछ बदला -बदला पाया ,
वही रास्ते थे , गालियां वही थीं ,
पर अब वहाँ , वो रौनकें नहीं थीं।
घर - मकाँ ,जो खपरैले - छप्पर के थे ,
उन पर कंक्रीट के छत उग आये थे ,
खिड़कियां , पहले से कुछ बड़ी हो गई थीं ,
उन पर रंग - रंग के पर्दे झिलमिला रहे थे ,
पर उनमें वो मुस्कुराहटें नहीं थीं।
बचपन के अतीत के पन्नों को
एक एक कर पलटता गया ,
किन्तु ,
अब वो किलकारियां नहीं थीं ,
शरारतें नहीं थीं ,
अब , था , तो बस ,
यादों के रेत का सपाट मैदान ,
ना ही अब किशोरापन का वैभव था ,
ना ही वो आँखें थीं , जिनमें वो चमक थी ,
अपनापन था ,आकर्षण था, 
कशिश थी , पुकार था  .........
सब अनजाने लगे ,
कुछ जाने हुए से भी ,
जिनकी आँखें , झुर्रियों में खोई - खोई
कुछ याद करने की कोशिश !
अरे ! यह तो मुरली लगता है ,
तभी एक आवाज आती  है ,
पुकारती हुई
अरे मुरली ! ओ मुरली बेटा  .....
अरे काकी तुम !
तुम नहीं पुकारती , तो ,
मैं तुम्हे पहचान भी  नहीं पाता ,
कैसी हो काकी ?
आगे बढ़ कर,
काकी के चरण छूता हूँ ,
कैसी हो क्या बेटा ,
अब तो मेरी चलने की बारी है ,
अरे बेटा , कित्ते दिन बाद आया है ,
काकी को भी भुला बैठा !
उसकी आँखें भींग जाती है ,
नहीं काकी ,
भूल जाता तो फिर आता ही क्यों ,
आवाज भर्रा गई ,
आँखें छल - छला गईं ,
मैं काकी से पूछना चाहता था -
काकी वह रमिया कहाँ गई ,
और वह शिवचरण ?
पर पूछ नहीं पाया ,
बस , काकी के गले  लग कर
सुबकता रहा ,
लगा मेरा बचपन लौट आया है ,
मेरा बचपन लौट आया है  ........
मेरा बचपन लौट आया है। .....

विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
रचना तिथि  - 31 - 08 - 2022 

प्रकाशित - हलन्त -माह October 2022 

Tuesday, August 30, 2022

डाल पर बैठा परिंदा

सहमा - सहमा है ,
डाल पर बैठा परिंदा ,
डर  हवा में तैर रहा है ,
जाने कब,
कोई चील या कोई शिकारी पक्षी ,
झपट्टा मार जाये !
हर तरफ कोलाहल है ,
फिर भी,
मन के अन्दर सन्नाटा है ,
झूठी हँसी होठों पर है ,
लब खामोश है ,
श: ! श: !
कुछ मत बोलो  , चुप रहो !
बहकते हवाओं का कोई भरोसा नहीं ,
कब किधर से आ जाये ,
आँधी या तूफ़ान बन कर ,
कब उड़ा ले जाये !
यह घरौंदा तिनके का !
तिनके तो क्या,
बड़े -बड़े , ऊँचे - ऊँचे पेड़ ,
बड़ी -बड़ी आलीशान अट्टालिकायें भी  ........
डाल पर बैठा परिंदा ,
सहमा - सहमा है  .......

- विजय कुमार सिन्हा " तरुण "
   रचना तिथि :- 12. 03. 2021

Thursday, August 25, 2022

तपता हुआ शहर है

तपता हुआ शहर है , संभल कर पाँव रखना ,
जलता हुआ शहर है , घर अपना बचाये रखना।
जहरीली हो गई है , हवा भी इस शहर की ,
तुम पर नजर है सबकी ,मुँह -नाक बन्द रखना।
कानों को खुला रखना , हर पल सजग हो रहना ,
कोई राह में मिले तो , आँखों से बात करना।
गर्दिश का ये समय है , खुद को बचाये रखना ,
काजल उछाल रहा है , दामन बचा कर रखना।
सैयाद घूमता है , हर शै , हर इक गली में ,
परिन्दों ना शोर करना , " पर " अपने तौल रखना।
तैयार है कफ़स भी ,सोने की तीलियों के ,|
दानों की चाहतों के , लालच में तुम ना पड़ना। 

रचना तिथि -  19 -01 - 2021 

Wednesday, August 17, 2022

डॉक्टर माँ का बेटा

 वह अबोध,
थक - हार कर,
निराश हो कर ,
माँ का इन्तजार करते -करते ,
दादी की गोद में सो जाता है ,
वह , एक डॉक्टर माँ का बेटा है।
वह, महज तीन साल का है ,
पर उसे बोध है ,कि ,
उसकी माँ
एक बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर है ,
दूसरों की होठों पर
मुस्कान लाने के वास्ते ,
अपने , दुधमुँहे बच्चे को
घर पर छोड़ आती है।
बच्चा तो बच्चा ही है ,
उसे दादी की जरूरत है ,
पर ,
माँ की भी जरूरत है  ........
रचना तिथि :- 23 -05 -2022

Sunday, August 7, 2022

Wednesday, July 27, 2022

आज के इन्सान को क्या हो गया

ज़ुल्म की,हर हदों को लांघता,
आज के इन्सान को क्या हो गया ,
ईश ने तो,था बनाया आदमी ,
आदमी हैवान क्यों कर बन गया।
हो गई है चूक किस मुक़ाम पर,
इन्सानियत का खून क्यों कर हो गया ,
खून,काटो तन , तो सब का लाल है ,
क्या हुआ , जो आज विषधर हो गया।
जो यहाँ आया है , वह तो जायेगा
किस भ्रम में ,आदमी है खो गया।
-- विजय कुमार सिन्हा "तरुण"


योद्धा

 कोई यूँ ही
सिकन्दर सा योद्धा नहीं बन जाता ,
योद्धा बनने से पहले
लाशों पर चलना पड़ता है।

सोचा ना था

जिन्दगी कभी इतनी बेबस हो जायेगी ,
सोचा ना था ,
धरती के स्वयंभू भगवान् भी सो जायेंगे ,
सोचा ना था ,
बाड़ ही खेत को खा जायेगा ,
सोचा ना था।

Saturday, June 4, 2022

समन्दर की चीख

दिल के ज़ख्मों को
हम क्या गिनायें ,
एक हो तो कुछ बतायें ,
अपनों और गैरों ने ही नहीं ,
हवाओं ने भी
कुछ कम ज़ुल्म नहीं ढाये।
समन्दर चीखता रहा ,
लोग आनन्द उठाते रहे ,
किसी की चीख भी ,
किसी के लिये
आनन्द का पर्याय बन जाये !
इस दुनिया के भी
अजब तमाशे हैं ,
गिद्धों ने ययह बात , हमें
तरीके से समझाये   .....
-विजय कुमार सिन्हा " तरुण "

बारिस का कहर

आज फिर हवाओं ने
आसमान में साजिस की ,
बादलों ने जमकर उत्पात मचाया ,
कहर ढाती बारिस में ,
आज, फिर ,
एक पेड़ धराशायी हो गया ,
यानि कि
मौत की नींद सो गया ,
परिंदों का आशियाना उजड़ गया ।
टूटे ,झुके, डालों पर ,
बैठी है चिड़िया ,गुमसुम , उदास ।
नये ठिकाने की तलाश
फिर से करनी होगी ,
फिर ,
एक नया आशियाना बनाना होगा।
पागल हवाओं को कैसे बतायें , कि
एक घरौंदा बनाने में ,
कितनी परेशानियाँ आती हैं , उफ़ .... 
तमाम उम्र खप जाती है
तिनका - तिनका जोड़ने में। 

---विजय कुमार सिन्हा " तरुण "

प्रकाशित - नवम्बर -2022 ( हलन्त )