Thursday, May 23, 2013

पहले तो हम ख़त लिखते थे


पहले     तो    हम    ख़त     लिखते     थे    ,
ख़त    में    अपना    दिल    रखते       थे    ,
हँसी   -   ख़ुशी   -   राजी      की       बातें    ,
सब   कुछ    हम   खुल  कर   लिखते   थे    ,
शिकवे      और     शिकायत     को     भी    ,
प्यार    के     लफ़्ज़ों     में     लिखते    थे   ।

बहुत    दिनों   पर    ख़त    मिलता    था    ,
ख़त    पाकर     धड़कन     बढ़ता       था    ,
फिर     कोने    में      बैठ     शान्ति    से    ,
ख़त   के    हरफ़   -  हरफ़    पढ़ता     था    ,
जैसे   -   जैसे      ख़त       पढ़ता       था    ,
दिल     भावुक      होता      जाता      था    ।

माँ     का     प्यार     भरा     होता     था     ,
बहनों       का      राखी        होता     था     ,
भैया       का      मनुहार      होता     था     ,
भाभी      का       दुलार       होता     था     ,
बाबू      जी       के        आशीषों       से     ,
पूरा      ख़त      भींगा        होता      था    ।

घरवाली       की       चिठ्ठी          आती     ,
दो    शब्दों    में    सब      कह     जाती    ,
बच्चों       की      शैतानी         लिखती    ,
उनकी      मधुर     ठिठोली      लिखती    ,
कुछ      अपनी      परेशानी     लिखती    ,
कुछ     घर     की   परेशानी    लिखती     ।

सालों    -   सालों      बीत      गये     हैं     ,
अब    तो   ख़त    कोई    ना   लिखता     , 
सुना      तरक्की     हुई      देश       की    ,
घर -  घर     टेलेफोन       लग      गया    ,
टेलेफोन     लगा     क्या      घर       में    ,
ख़त   का   तो    मजमून     खो    गया    ।

ख़त     छोड़     हम    फोन    पर     बैठे    ,
पहले      कुछ      बातें       करते       थे    ,
कुछ    अपने     दिल    की    कहते    थे    ,
कुछ    सब   के    मन   की   सुनते    थे    ,
बारी    -    बारी       एक      दूजे       से     ,
बातें      खूब      किया      करते       थे     ।

हुई     तरक्की      बहुत      देश      की     ,
चुपके       से        मोबाइल         आया     ,  
इसने      सब    का     मन      बहलाया    ,
हर     हाथों     में         यह      लहराया     ,
उन्नति     की     इस    चकाचोंध     में     ,
एस   एम्    एस      ने     है     भरमाया     ।

छूट       गए       सब        रिश्ते  -  नाते     ,
टूट      गए     वो     प्यार     के     बंधन     ,
नहीं      कशिश       रिश्तों     में      पाते     ,
नहीं      जुड़न         रिश्तों     में      पाते      ,
तल्ख़        हो      गए     वाणी      सबके      ,
अपनी       डफली         आप       बजाते      ।


Sunday, May 5, 2013

भारत की वह नारी थी

खूब    लड़ी    थी    लड़की    वह   तो
सचमुच       झाँसी       रानी        थी    ,
हमने    सर्द     हवाओं      के    मुख 
उसकी      सुनी       कहानी       थी      ।

एक    अकेली     लड़ी    आठ     से
फिर    भी    सब   पर    भारी    थी     ,
थी    साहस   व   शौर्य   की    देवी 
भारत     की     वह     नारी      थी     ।   

गली   -  गली  ,  हर    सड़कों    पर  
चौक        और        चौराहों       पर      ,
दुर्योधन      सम      अधम      खड़े
यहाँ      मिलते     हर    राहों    पर       ।

युग -   युग   से    ही  सदा   द्रौपदी
सड़क   बीच   विवस्त्र    की   जाती     ,
ध्रितराष्ट्र    सब     बन     जाते   हैं
धर्मराज      की   हार    ही      होती     ।

शाशन     गूंगा     हो     जाता    है 
न्याय   देर  का   बिक  जाता    है       ,
जनता   की     परवाह    किसे   है
सत्ता    सुख    भोगा    जाता   है     ।

इन     भोगी      सत्ताधारी      के
मृत     हो    चुके    आत्मा       के      ,
दिल    में    आग    जलाना      है
नैतिक       पाठ      पढ़ाना       है     ।   

Saturday, May 4, 2013

नारी




       अबला  कह  करके  नारी  का , मत  करना  अपमान  कभी ,
       बिन नारी के जग  में  नर की , है  कोई  भी  पहचान   नहीं  ।

      नारी बिन तो नर  आधा  है , नारी  ने  नर  को  साधा   है     , 
       त्याग , तपस्या और प्यार  की , वह तो मोहन की राधा है     ।

      गंगा सी  निर्मल  है नारी , और  वज्र  की  भाँती  कठोर    ,
      दिल में ममता की सरिता  है , प्रीति  बाँटती  है चहुँओर   ।

      चाहे वह मजदूरिन हो,  या, हो तोड़ती पत्थर नारी ,
      ममता की मूरत है , पर है , नहीं किसी से कमतर नारी।

      चीड़ हवा के सीने को ,नभ में उड़ान भरती है नारी ,
      साहस , शौर्य , पराक्रम की भी , देवी होती है यह नारी।

       दुश्मन भी  गर आन पड़े , बन जाती तलवार है नारी ,
       लाँघ पहाड़ों की चोटी , छू लेती आकाश है नारी।

       नर का सृजन  वही  करती  है, है पयपान  कराती  नारी   ,
       पाल  पोस कर बड़ा बना कर , साहस  ऊर्जा भरती  नारी  ।

       देख- देख निज  सृजन सदा  ही , मुग्ध  हुआ  करती  है नारी  ,
       जीवन  में इक नेह  छोड़  कर , नहीं   माँगती  कुछ  भी  नारी  ।
  
       छूता  है अभिमान न उसको , न्योछावर  जीवन  कर  जाती   ,
       देश  प्रेम , परिवार प्रेम में , सब  कुछ त्याग अमर  हो जाती ।

      अति कोमल है , भावप्रवण  है , करुणा  का  सागर  है  नारी  ,
      जब  रक्षा का  प्रश्न  खड़ा हो , बन जाती असि धार है  नारी  ।

      देवी  भी है , दुर्गा  भी  है ,  है  रणचंडी  भी    यह     नारी   ,
      सरस्वती  सी वाणी इसकी , प्रकृति  का  सौंदर्य है  नारी   ।

      नहीं सबल नारी  के जैसा , जग  में  कोई  सबल  हुआ   है  ,
      दानशील नारी  के  जैसा  , जग  में  कोई   नहीं    हुआ   है ।

      नारी ने निज कोख  से  सदा , वीरों को  ही जन्म  दिया   है  ,
      हँसते - हँसते देश के लिये , सुत सरहद पर भेज  दिया    है  ।  

      न्योछावर कर पूत देश हित , नहीं कभी भी विचलित  होती  ,
      बलि वेदी  पर भेज तनय  को , नहीं  वीर  माता  है  रोती   ।

     निज  अदम्य  साहस  के , इतिहास  अमर  रचती  है  नारी   ,
      कभी टेरेसा , निवेदिता  व  कभी   लक्ष्मी  बन  जाती  नारी  ।

     कहीं  कोकिला  बन जाती  है , कहीं  लता  बन   झूमे  नारी  ,
     कहीं " कल्पना " की पाँखो  पर , छू लेती आकाश  है  नारी  ।

    होती  नहीं  अगर  नारी  तो ,  प्रकृति   का   श्रृंगार  न   होता ,
    होता  नहीं  असीम  गगन  यह  , वैभवपूर्ण संसार न  होता ।

    झील और  नदियाँ  ना  होतीं ,  ना  यह  पर्वतराज  ही   होता  ,
    हिम शिखरों पर रजत - पुंज से , हिम  का यह अंबार न होता  ।

    होती  नहीं  अगर  नारी   तो   ,  पुष्पों   में   सौरभ   न   होता    ,
    नंदन   कानन  कहीं  न  होता ,  शीतल  मंद  समीर  न  होता    ।

    नारी अगर नहीं  होती  तो , धर्म - अधर्म  का  मर्म  न होता  ,
    नहीं जन्म  का , नहीं मरण  का ,जीवन  कोई  कर्म न होता ।

    नारी भोग्या नहीं अरे ! यह  ,  पूज्या  है  जग - जननी   नारी   ,
    दिव्य अप्सरा देव लोक की   ,  मनोहारिणी   है    यह     नारी   ।

     नारी  है  तो  घर  देवालय  , घर  की  लक्ष्मी  होती   नारी    ,
     केवल  आदर , प्यार  और , सम्मान चाहती  है  हर  नारी   ।

     पत्नी  बन  अपने  प्रियतम  पर  , संचित  प्यार लुटाती नारी  ,
     आत्मशक्ति से हो परिपूरित  ,  है  हर  संबंध  निभाती   नारी  ।

     नानी , दादी , माता , बहना  , बन  कर स्नेह  लुटाती   नारी  ,
     मौसी, मामी , ताई  , चाची  ,  बन  कर  गले  लगाती   नारी  ।

     सच  है यह  इस जग  में  नर का , भाग्य , नारी ही लिखती  है ,
     नहीं  चाँदनी  बिना  चाँद  की , कोई , काया   ही  होती   है  ।

     नारी  ही  वह  शक्ति - पुंज  है , नर  में  साहस  भर  देती  है  ,
     चाहे तो दे भेज  नरक  , या  ,  चन्दन  सा  महका   देती    है ।

     नारी अगर नहीं  होती  तो , महापुरुष  कोई  ना  होता  ,
     होता ना कोई वीर  यहाँ , न , इतिहास  वीरों  का  होता ।

     अमर त्याग हाड़ा  रानी  का ,  चूड़ावत  का  नाम  न  होता   ,
      ना  होती  ज्वाला  जौहर  की , राजस्थान  सुधाम  न  होता  ।

     गर  ना होती  वह  शकुन्तला ,  भारत  वीर  भरत  ना   होता  ,
     त्यागमयी  वह  माँ  ना  होती , चन्द्रगुप्त  सम्राट  ना  होता  ।

     पन्ना  धाई  ना  होती  गर ,  ' राणा ' का यशगान न  होता   ,(  उदय सिंह राणा )
     जीजाबाई न होती गर , वीर शिवा का नाम न होता   ।

      यशोधरा का त्याग  ना होता , तो सिद्धार्थ ' बुद्ध ' न होते ,
      ' उर्मि ' का जो त्याग ना होता , ' लक्ष्मण ' फिर ' लक्ष्मण ' ना होते ।

       नहीं सुजाता खीर खिलाती , नहीं बुद्ध को सिद्धी मिलती ,
       ना ही बिना आम्रपाली के ,  जग में नाम अमर हो पाते  ।

       विद्यावती  नहीं  होती  तो , भगत  सिंह  फौलाद ना  होता   ,
        ना   होती  जगरानी  देवी    , चन्द्रशेखर   आज़ाद  न   होता  ।

        होती  यदि  मुमताज़  नहीं   तो  , शाहज़हाँ  का ताज़  न  होता   ,
        शरद  चन्द्र  इर्ष्या  करता  क्यों  , ताज़महल विख्यात  न होता  ।

         रत्ना  जैसी  नारि  न  होती  ,  तुलसीदास अमर  ना  होते   ,
         ना  तो मिलते राम  ही उन्हें , ना  ही  वे रामायण लिखते  ।

         कौशल्या , कैकेई  न  होती ,    और    सुमित्रा  जैसी    माता   ,
         राम लखन ना होते  जग  में , भाई ,  भरत  समान  न  होता  ।

         जनक  दुलारी सिया न  होती , रावण अजर - अमर हो जाता  ,
         होती नहीं यशोदा यदि  तो  ,  कभी  कंस  का  अंत   न   होता  ।

         न  होती  यदि  देवकी  माता  , वंशीधर  का  जन्म  ना  होता   ,
         ना  होती  देवी - दुर्गा  ही  , कंसों  का  फिर  अंत  न   होता   ।  

         कुंती होती  नहीं  धरा  पर  , पार्थ-कर्ण  का  नाम  ना  होता   ,
         द्रुपद- पुत्रि  का जन्म  ना  होता , कौरव  का संहार ना होता  ।

         पुतलीबाई अगर न  होती  ,  मोहनदास   प्रगट   ना   होते  ,
         कस्तूरबा  नहीं  होती  तो  ,   बापू  फिर    बापू    ना   होते  ।

         होती  नहीं  अगर  सावित्री  ,  सत्यवान  फिर  लौट  न  आता   ,
         नारी के तप-त्याग शक्ति  का , इस  जग में आभास न  होता  ।

         ये  तो  सभी  नारियां  ही  थीं  , रत्नों को  ही  जन्म  दिया   है  ,
         क्यों  करता अपमान नारि  का , जिसने  इतना  मान दिया है ।
  
         नारि  अग्नि है , ज्वाला भी  है , दीप - स्तम्भ   भी  है यह नारी   ,
         यह शीतल चन्द्र किरण सी है , जब  जाग जाय  है चिनगारी   ।

         मूरख  मन  तू  मत  कुरेद  उन  , ठंढी  राख  की  ढेरों   को   ,
         जल  जाएगा  सब  कुछ   तेरा  ,  तू , दे  न हवा अंगारों  को  ।

         मत कर  ह्त्या  कन्या  भ्रूण  की , अपना भाग्य ना  खोटा  कर   ,
         फूल हैं  ये , खिलने  दे  इनको    , जीवन  इनका  तू  नष्ट  न  कर  ।

         नर  है नहीं , नराधम   है , जो  , नारी  को   सम्मान   न   देता  ,
         नारी का अपमान  जो  करता   , किस्मत उसका साथ न  देता  ।

         नारी  गंगा  सम  निर्मल  है , सब  पापों   को   धो   देती    है  ,
         क्षण  में  वही  उठा  देती  है  , क्षण  में   वही  गिरा  देती    है ।  

         त्याग , तपस्या , बलिदानों की , अमर कहानी है यह नारी ,
        सकल विश्व की सृष्टी रूपा , पूजित होती है यह नारी ।
           

Wednesday, May 1, 2013

मैं बबूल का फूल



                          

 जाने     क्यों      जग       मुझ       से      रूठा       ही       रहता     ,
जाने     क्यों       मुझसे       कोई       प्यार        नहीं      करता     ।
कलि    गुलाब     की     नहीं   ,    मैं    बेनी    में     गुँथ     जाऊं     ,
चम्पा     या     चमेली      बेली   ,    गजरों     में    बिंध     जाऊं     ।
है    सुगंध    भी    नहीं   ,   किसी    करतल   पर    बिछ    जाऊं     ,
ना    ही    ऐसे    अधर   ,    सुघर     अधरों    से     लग     जाऊं     ।  
मैं       बबूल       का       फूल     सदा     काँटे      रहा      चुभाता    ,
संभव     है    कि     इसी     वजह   से   जग     मुझसे   कतराता    ।
इस     जग     के     हर    फूलों     को   ,    हमने     देखा    हँसते    ,
अपनी      ही     आँखों       में      मैंने      देखा     आँसू     तरते    
फिर   जन्म   न   हो   धरती   पर   ,   ईश    दया    तुम    करना    ,
जीवन     ही     देना     हो     तो     ,    काँटे    तुम    ना       देना    ।
देवों    के    सिर    चढूं    ,   और    गजरों      में      बिंध     जाऊं     ,
या    नन्हे    कोमल     हथेलियों     पर    चढ़     कर     मुस्काऊं    ।
काँटे     ही    देना    हो     तो   ,    यूँ      ही     फेंक     न     देना      ,
अरि    आयें     जिस    ओर    ,   वहीं  ,  मुझको    बिखरा   देना     ।
जहाँ    देश    की     रक्षा    हित   ,   नौजवान      लड़ते          हों       ,
माँ   के   दूध   की   रक्षा   हित    ,   जीवन   अर्पित    करते     हों       ,
जहाँ    गोलियां   चलती   हों   ,   तोप   गरजते   हों   पल  -  पल     ,
ओढ़    धूल    का    कफ़न   , वहीँ  ,   मुझको    सो   जाने     देना    ।   

(     1966    की     रचना       )