Saturday, December 3, 2016

" मरी खाल की साँस सों

अपनी सत्ता और पुत्रों के प्रति मोह ने
आज फिर ,
धृतराष्ट्र को अंधा बना दिया है ,
उसके चारों ओर खड़े
जनतंत्र के पुजारी
दुश्मन  दीख रहे हैं,
अपने अजेय किले
और ,
पुत्रों - बान्धवों की कतार  देख
वह कुटिल मुस्कराहट
और ,
विद्रूप हँसी से
सबका उपहास मना रहा है।
फिर एक महाभारत की तैयारी
कलियुग ने कर ली है।
फैली हुई अव्यवस्थायें
 उसे नहीं दीखतीं ,
उसकी अट्टहास में
गिरते - पड़ते - मरते जन
नहीं दीखते ,
उसकी आँखों पर
अहंकार का पर्दा पड़ गया है।
इतिहास अपने आपको दुहराता है ,
वही चौकड़ी है ,
शकुनि  भी है , गुरु द्रोण  भी ,
वृद्ध भीष्म पितामह भी ,
जिन्हें अब
एक बगल खड़ा कर दिया गया है ,
वह भी वही बोलते हैं ,
जो , धृतराष्ट्र  बुलबाना चाहते हैं।
अरे ! ओ धृतराष्ट्र
काल का पहिया घूमता है,
भूल मत , यहाँ सब नश्वर है ,
न तू रहेगा , न तेरी सत्ता ,
न तेरे पुत्रों - बान्धवों की फ़ौज ,
जो बच जाएंगे तेरे परिजन
तब वही तेरा उपहास करेंगे।
कहाँ खोया है ?
मन की आँखें खोल ,
" मरी खाल की साँस  सों
   लौह भस्म हो जाय " ।
मत ले आह ,
दुनियाँ ने पत्थरों को पूजा है
तो , ठोकरें भी लगाई हैं।
दर्प की अग्नि में ,
जल जाता है सब कुछ ,
न तख्त ही रहता ,
न ताज ही रहता ,
एक प्यार के ही न्याय का
बस राज है रहता।