Monday, December 16, 2013

ओ पहरुए देश के


ओ पहरुए देश के तू जाग ,
तुझको दूर जाना है ,
 छोड़ दे आलस्य ,गर ,
मंजिल को पाना है।

उठाओ जाम अपने जोश का ,
हुँकार भरना है ,
वतन के दुश्मनों का तुम्हें  ,
संहार करना है ।

लगे न जंग हाथों को ,
उठा तलवार , चलना है ,
हम मरेंगे या जियेंगे ,
सोच कर विचलित न होना है।

छिपे गद्दार जो घर में ,
कलम सिर उनका करना है ,
वतन के दुश्मनों से
सदा हुशियार रहना है।

छिड़ा संग्राम सरहद पर ,
वतन के पाशवां जागो ,
उठी है आँख दुश्मन की ,
वतन के नौजवाँ जागो ,
जागो किसानों और
जन -जन देश के जागो  .............. 

ओ पहरुए देश के ............

Thursday, October 31, 2013

मैं हवा का एक झोंका

मैं हवा का एक झोंका
मुँह न मुझ से फेरो तुम ।

पल दो पल की  जिंदगी ,
पल दो पल का है मिलन ,
एक पल ठहरूं न ठहरूं
आ भी जा मेरे सनम  ।

चाँदनी कितनी सुहानी
आज पूनम रात की ,
एक पल बैठो मेरे संग
तुम ह्रदय की रागिनि ।

आज दिल की बात कह लो
आज दिल कि बात सुन लो ,
फिर न जाने आज का पल
लौट कर आये न कल  ।

है नहीं मनुहार का पल
बस यही एक प्यार का पल ,
आ गले मिल जाएँ हम - तुम
भूल कर सब द्वंद्व हम ।

Sunday, August 18, 2013

बाट ताकते दिन है बीता .........

बाट ताकते दिन है बीता  ,
करवट  लेते , बीती  रात  ,
तेरे आने की चाहत   में   ,
मैं तो जागी  सारी  रात   ।
सोचा था,तुम आ जाते , तो ,
तुमसे करती  ढ़ेरों बात ,
सूरज को मैं , बाँध गाँठ में ,
नहीं  बीतने  देती  रात ।
सूरज निकला , हुआ प्रभात ,
बीत  गई  यह  काली  रात   ,
ढल कर ओस-कणों में आँसू ,
ढलक रहे , छू नीरज - गात  ,

बाट ताकते दिन है बीता ,
करवट लेते बीती  रात  ।

Saturday, August 17, 2013

ये देहरादून का शहर ...........


ये देहरादून का  शहर ,
ये देहरादून का शहर ………

हरी- भरी  हैं वादियाँ ,
शांत इसकी घाटियाँ ,
सब को है यहाँ खबर ,
ये देहरादून का शहर  .........

है द्रोण की तपस्थली ,
है  देवभूमि  देव  की ,
है मातृ  शक्ति का नगर ,
ये देहरादून का शहर ...........

पेड़  देवदार के, खड़े हैं आन -बान से ,
ये तो बात करते है, सीधे आसमान से ,
दे रहे हैं सीख ये - न शीश तू कभी झुका ,
अपनी सरहदों पे तुझको रखनी है कड़ी नज़र ,
ये देहरादून का शहर …………

अगर हो शत्रु  सामने ,
तू शत्रुओं पे वार कर   ,
दुश्मनों पे टूट पड़ तू   ,
बन के काल  का कहर ,
ये देहरादून का शहर ………

यहाँ के वीर नौजवाँ ,
हैं करते प्यार देश से ,
शान तिरंगे की ये तो ,
रखते  अपनी जान पर ,
ये देहरादून का शहर ……।

यहाँ पर बढ़ के एक से एक स्कूल है ,
यहीं तो देश का प्रसिद्ध दून स्कूल है ,
यहीं पे सैन्य-संस्था है सैनिकों के वास्ते  ,
पढ़े -लिखों  का है शहर ,
ये देहरादून का शहर ………

हैं मन्दिरें और मस्जिदें  ,
गुरुद्वारा और चर्च हैं  ,
आवाम के लिये तो है  ,
प्यार का ही इक डगर
ये देहरादून का शहर ……….

गली - गली , डगर - डगर ,
बुजुर्गों का है आश्रय  ,
जिनकी सीख का यहाँ पे ,
हो रहा बड़ा असर ,
ये देहरादून का शहर ………. 

Wednesday, July 31, 2013

हमें ये गाँव बुलाते हैं



















ये गुनगुनाती सी हवा,
ये लहलहाते खेत,
ये गाँव  की पगडंडियाँ ,
ये टेढ़े - मेढ़े  मेड़ ,
हैं ,मेरे मन को हुलसाते ,
हमें , ये गाँव बुलाते हैं   ।
ये मीठी , धान की खुशबू,
लरजते , गेहूँ की बाली ,
वो नीले फूल तीसी के ,
वो पीले फूल सरसों के ,
इशारे  मुझको करते हैं ,
हमें ये गाँव बुलाते हैं   ।

जहाँ , रख कांधो पर , विश्वास का
हल , कृषक  चलते हैं ,
बुआई धान की करते जहाँ ,
गाती कृषक बाला ,
झमक  कर घन बरसते हैं ,
हमें ये गाँव बुलाते हैं  ।

यह बस्ती है किसानों की ,
यह सच्चों का बसेरा है ,
निकल सूरज लगाता है ,
जहाँ, नित रोज फेरा है ,
जहां , मिल प्यार बोते हैं ,
हमें ये गाँव बुलाते हैं  ।

( 21-3-2012 )



Wednesday, July 17, 2013

चित साजन बिन सून




धनि - धनि - धनि  हैं  नारि   वै   ,
जिनके    साजन      संग   ,
बिन       साजो   -  श्रृगार    के   ,
दमकत      उनके     अंग    ।

गली  -  गली   झूलन    पड़ी    ,
हरी  -  हरी   डारि    कदम्ब     ,
राधा  -  मोहन    झूलिहैं    ,
बरसहीं    नभ    से     अंभ      ।

सावन    कारी   रात     को     ,
जियरा     मोर     डराहिं   ,
चंचल , दुष्ट ,  बिजुरी   चमक   ,
गरजत   हैं   नभ   माहिं    ।

बरसत    घर  है   फूस     का  ,
टपकात    है   चहुँ   ओर   ,
नैनन    सावन    देखि    कै   ,
अंग   लागि    चितचोर     ।

सुख  जो   प्रिय  के   बांह   में    ,
कतहुं    न    मिलियै    और      ,
चित  साजन  बिन  सून   है      ,            
जइयौ     कोऊ        ठौर           ।
     

(    16 - 7 -  2013   की   रचना     )

   

Monday, July 15, 2013

देव भूमि की त्रासदी और पहाड़ की आवाज



                                
                                                                                  





















देव  भूमि पर आपदा आ गई थी ,
शिव ने अपनी जटा खोल  दिया   था ,
शिव का तीसरा  नेत्र  खुल  गया  था ,
पहाड़  हिल  गया  ,
पत्थरें  दरकने  लगीं  ,                     
गंगा  ने  विकराल  रूप
धारण  कर  लिया    ।                                                            
गाँव  के  गाँव  ,
भागीरथी  के  कुपित  शैलाब  में
तिनके  की  तरह  बह  गए ;
चारों  ओर  चीख  -  पुकार   ,
हर  और  तबाही  का  मंजर  ,
बड़े - बड़े  आलीशान   भवन  ,
होटल  धराशायी  हो  ,
जलविलीन  हो  रहे  थे  ,
त्राहि - त्राहि  का  शोर  ,
प्राण  बचाने  के  लिए  ,
जिसको जिधर रास्ता मिला ,
उधर  ही भागा   ।
प्रलय  ही  प्रलय   था  ,
क्या  आदमी ,  क्या  जानवर
 सभी  बह  रहे  थे
गंगा  की  लहरें  ,
अट्टहास  कर  रही  थीं  ,
पहाड़  टूट  कर
अपना  क्रोध  जता  रहे  थे
मानो  कह  रहे  हों -
तुमने  विकास  के  नाम पर  ,
मेरा  विनाश  ही किया  है ,
तुम्हारे  विकास   से
मेरा  दम  घुटने  लगा  है ,
डायानमाइट  की  चोट  से  ;
मेरे  सीने  में  दर्द  उठने  लगा   ।
तुमने  मुझे  कहाँ  से  नहीं  काटा  ?
हरे - भरे  पेड़ों   को  काट  कर  ,
मेरे  सीने  पर   हथौड़े  चला  कर ,
मेरा  सीना  छलनी   कर  दिया  है ,
पावन  गंगा  को  बाँध   कर   ,
इसकी अविरल  धारा  को  ,
गँदला  कर  दिया  है  ,
उसकी  पावनता  को  ,
नष्ट  कर  दिया  है ।
देव  और  देवर्षि  की  भूमि  को  ,
अपने  जूठन  और कचरे   से
अपावन  कर  दिया  है  ,
तुमने  अर्थोपार्जन  के  लिए  ,
मेरा  सर्वनाश  कर  दिया  है   ।
मैं  तिलमिला  उठा  ,
पहाड़  तिलमिला  उठा  ,
तब  ,
नदियों  ने  करबट  बदल  लिया  ......
अभी  तो  हमने  आधी  ही
करबट  लिया  है  ,
अब  भी  नहीं  चेत  पाए  , और  ,
मुझे  इसी  तरह  रौंदते  रहे  ,  तो  ,
मुझे  फिर  से  सबल  बनने   के  लिए  ,
 स्वयं  ही  रास्ता  बनाना  होगा ,
अपनी  मान  मर्यादा  ,प्रतिष्ठा के लिए ,
मुझे (इन ) स्वार्थी  इरादों  का ,
विनाश  करना  होगा । 









             


                                       
(    1 3 - 7 - 2 0 1 3  को  रचित    )

Sunday, June 30, 2013

हे ! पिता मेरे


हे   !  
पिता      मेरे     ,
तुम     गए     कहाँ      ?
मैं      भटक     गया      हूँ
इस     जग     में     ,
तुम    वापस      लौट      के     आ   जाओ      ,
है     व्यथित    ,   आकुलित      मन     मेरा    ,
इस    मन      को     आश     दिला     जाओ     ,
मैं       शैशवपन       साकार       करूँ     ,
कुछ    बीते    पल    को     याद     करूँ     ,
कहीं    खो    न    जाऊं    मैं    इस    जग    में   ,
तुम    मुझको       राह     दिखा     जाओ       ।

नहीं      बिसर     सका  
कुछ      भी    तो    मैं      ,
न       तेरा    स्नेह    ,    न    तेरा     प्यार     ,
कभी      रूठने       पर      मनुहार     ;
तेरी       गोद    में      आकर     मैं     तो
सब     कुछ     ही    था     पा       जाता     ,
तेरी      बाहों      में      घिर      कर      ,
सारा   आकाश      था     पा    लेता       ।

ऊँगली      पकड़   -  पकड़      मेरा
वह    ,   अ    ,    आ     ,     इ     ,   ई      सिखलाना     ,
रोज     सवेरे      गोद    में       लेकर      ,
भजन     भक्ति       का        सिखलाना      ,
यह      कल्ह     की    बात      ही      लगती       है        ,
यह     कसक       ह्रदय      को      मथती      है      ,
मन        सूना   -   सूना     रहता      है      ,
दृग     अश्रुपूर्ण       हो        जाता     है      ,
मन    दूर    बहुत     खो     जाता     है      -
तब      लगते      कितने     मेले      थे      ,
बहु     सर्कस      और      तमासे     थे       ,
अपनी     काँधों    पर     बिठला    कर      ,
तुम     सर्कस     दिखला     लाते     थे      ।

मीना    बाज़ार      का    क्या      कहना
जहाँ      बिकते    ढ़ेर      खिलौने      थे      ,
वह     घंटी    वाली     सायकिल      थी      ,
जिसमें    बस    एक    ही   पहिया   था      ,
लोहे    के   डंडे      से       बंध       कर     ,
वह    चलती      और    टुनकती    थी     ।

जब    हम      थोड़े      बड़े     हुए       ,
तब       स्कूल       मुझको      भिजवाया      ,
जब      स्कूल     से     पढ़कर      निकले      ,
तब       कॉलेज       मुझको     पिठवाया       ,
देकर       प्यार   -   दुलार    ढ़ेर       सा      
अपने     पैरों       खड़ा       किया     ,
जीवन    में    खुशियाँ     भर   कर     ,  फिर   ,
जीवन      मेरा     महकाया         ।

चन्दन     सम     ही पद - रज     पाकर     ,
जीवन   -  पथ      पर     चला       बढ़ा     ,
शुभ  आशीषों   के   ही  बल ,  मैं ,
उन्नति    के      सौपान      चढ़ा      ।

(   नोट  -  2 3 -  3  - 2 0 1 2   को   रचित   )

तेरी करूँ पूजा


जन्नत      से     भी     प्यारा       माँ     का     आँचल    लगता      है    ,
स्वर्ग    से    भी    ज्यादा     सुख   माँ     की   गोद   में   मिलता    है    ।   

माँ     की     ममता     के     आगे     पत्थर    भी       पिघलता      है     ,
माँ     की       छाती      से     केवल    अमृत     ही      छलकता      है      ।

माँ     की     बाहों      में    आकर      आकाश   भी       झुकता       है      ,
चाँद    और    सूरज    भी    माँ    की    आँखों     से    चमकता      है     ।

होंठों      पर      मुस्कान      सदा      मेरी   माँ     के    रहती         है       ,
उसकी     वाणी     में    तो      सदा     चन्दन      ही    महकता      है      ।

इस     दुनियाँ     में    माँ     मेरी     तुझ    सा     कोई   नहीं     दूजा       ,
भाग      हों     मेरे    ऐसे     कि     नित     दिन    तेरी    करूँ     पूजा      । 


Friday, June 28, 2013

लघु कथा - आदमी और जानवर

मालिक    की   मार     खा    कर    वह   घर    से   भाग   निकला   ।   इधर  -  उधर    घूमता    हुआ   ,  सड़क   के  अन्य    कुत्तों    से   ,  अपने   आपको   बचाता  ,   वह   एक  मैदान    में   पहुँच    गया    ।                                               
                         मैदान   के   ही    एक   सिरे   पर   ,  एक   घने   पेड़    के   नीचे      बैठ कर  वह   सुस्ताने    लगा    ।   वहाँ    बहुत    अच्छी     ठंडी     हवा    बह     रही   थी   ।  धीरे  -  धीरे   उसे   नींद   आ   गई  ।       वह वहीँ   सो   गया    ।              

                         जब   उसकी    आँख    खुली  ,   सवेरा     होने    को  ही  था  ।    उसे   रात  की   घटना    याद    आई   ।   अचानक   वह   उठा     ,   मैदान   के   चारों     ओर      दौड़ने     लगा   और   फिर    एक    ओर   दौड़   गया   ।   शायद   ,   उसे   याद   आया  ,     आज मालिक   को    अखबार    लाकर   कौन    देगा   ,  नींद   से   जागते   ही     मालिक     आवाज      लागायेगा   ,   मेरी    आवाज    नहीं    सुनकर    उनका    दिल   घबरायेगा ....................  वह    सरपट     दौड़ता     रहा    ।                                                                                                                      आखिरकार    वह   अपने   घर   पहुँच     गया   ।    पहले     उसने     घर  के   चारों     ओर   का चक्कर     लगाया    ,   फिर   दरवाजे    पर    आ   कर    रुका   ,  देखा   कि     आज    दरवाजा     खुला   ही  रह  गया     है   ,    उसका     मालिक     शांत     भाव     से    कुर्सी    पर     बैठा     है   ।

                         कुछ     क्षण     वह   भी    शांत    बैठा   रहा     ।   अचानक   वह     उठा   और    मालिक   की    गोद   में    आकर   ,  अपना    सिर     मालिक   की    छाती    से     सटा     लिया    ।     मालिक   ने   उसे  प्यार  किया    ,   उसके    सिर     पर    हाथ     फेरा    ,    उसकी    आँखे     भींगने     लगी    ,   मानो   वह   प्रायश्चित  कर   रहा   हो   और   कह   रहा  हो    -    मैं    जानवर   ही   सही   ,   अब    मैं    तुम्हे     अकेला     छोड़   कर    कभी    नहीं  जाऊँगा    ,   कहीं   नहीं    जाऊँगा .....................
           

Thursday, May 23, 2013

पहले तो हम ख़त लिखते थे


पहले     तो    हम    ख़त     लिखते     थे    ,
ख़त    में    अपना    दिल    रखते       थे    ,
हँसी   -   ख़ुशी   -   राजी      की       बातें    ,
सब   कुछ    हम   खुल  कर   लिखते   थे    ,
शिकवे      और     शिकायत     को     भी    ,
प्यार    के     लफ़्ज़ों     में     लिखते    थे   ।

बहुत    दिनों   पर    ख़त    मिलता    था    ,
ख़त    पाकर     धड़कन     बढ़ता       था    ,
फिर     कोने    में      बैठ     शान्ति    से    ,
ख़त   के    हरफ़   -  हरफ़    पढ़ता     था    ,
जैसे   -   जैसे      ख़त       पढ़ता       था    ,
दिल     भावुक      होता      जाता      था    ।

माँ     का     प्यार     भरा     होता     था     ,
बहनों       का      राखी        होता     था     ,
भैया       का      मनुहार      होता     था     ,
भाभी      का       दुलार       होता     था     ,
बाबू      जी       के        आशीषों       से     ,
पूरा      ख़त      भींगा        होता      था    ।

घरवाली       की       चिठ्ठी          आती     ,
दो    शब्दों    में    सब      कह     जाती    ,
बच्चों       की      शैतानी         लिखती    ,
उनकी      मधुर     ठिठोली      लिखती    ,
कुछ      अपनी      परेशानी     लिखती    ,
कुछ     घर     की   परेशानी    लिखती     ।

सालों    -   सालों      बीत      गये     हैं     ,
अब    तो   ख़त    कोई    ना   लिखता     , 
सुना      तरक्की     हुई      देश       की    ,
घर -  घर     टेलेफोन       लग      गया    ,
टेलेफोन     लगा     क्या      घर       में    ,
ख़त   का   तो    मजमून     खो    गया    ।

ख़त     छोड़     हम    फोन    पर     बैठे    ,
पहले      कुछ      बातें       करते       थे    ,
कुछ    अपने     दिल    की    कहते    थे    ,
कुछ    सब   के    मन   की   सुनते    थे    ,
बारी    -    बारी       एक      दूजे       से     ,
बातें      खूब      किया      करते       थे     ।

हुई     तरक्की      बहुत      देश      की     ,
चुपके       से        मोबाइल         आया     ,  
इसने      सब    का     मन      बहलाया    ,
हर     हाथों     में         यह      लहराया     ,
उन्नति     की     इस    चकाचोंध     में     ,
एस   एम्    एस      ने     है     भरमाया     ।

छूट       गए       सब        रिश्ते  -  नाते     ,
टूट      गए     वो     प्यार     के     बंधन     ,
नहीं      कशिश       रिश्तों     में      पाते     ,
नहीं      जुड़न         रिश्तों     में      पाते      ,
तल्ख़        हो      गए     वाणी      सबके      ,
अपनी       डफली         आप       बजाते      ।


Sunday, May 5, 2013

भारत की वह नारी थी

खूब    लड़ी    थी    लड़की    वह   तो
सचमुच       झाँसी       रानी        थी    ,
हमने    सर्द     हवाओं      के    मुख 
उसकी      सुनी       कहानी       थी      ।

एक    अकेली     लड़ी    आठ     से
फिर    भी    सब   पर    भारी    थी     ,
थी    साहस   व   शौर्य   की    देवी 
भारत     की     वह     नारी      थी     ।   

गली   -  गली  ,  हर    सड़कों    पर  
चौक        और        चौराहों       पर      ,
दुर्योधन      सम      अधम      खड़े
यहाँ      मिलते     हर    राहों    पर       ।

युग -   युग   से    ही  सदा   द्रौपदी
सड़क   बीच   विवस्त्र    की   जाती     ,
ध्रितराष्ट्र    सब     बन     जाते   हैं
धर्मराज      की   हार    ही      होती     ।

शाशन     गूंगा     हो     जाता    है 
न्याय   देर  का   बिक  जाता    है       ,
जनता   की     परवाह    किसे   है
सत्ता    सुख    भोगा    जाता   है     ।

इन     भोगी      सत्ताधारी      के
मृत     हो    चुके    आत्मा       के      ,
दिल    में    आग    जलाना      है
नैतिक       पाठ      पढ़ाना       है     ।   

Saturday, May 4, 2013

नारी




       अबला  कह  करके  नारी  का , मत  करना  अपमान  कभी ,
       बिन नारी के जग  में  नर की , है  कोई  भी  पहचान   नहीं  ।

      नारी बिन तो नर  आधा  है , नारी  ने  नर  को  साधा   है     , 
       त्याग , तपस्या और प्यार  की , वह तो मोहन की राधा है     ।

      गंगा सी  निर्मल  है नारी , और  वज्र  की  भाँती  कठोर    ,
      दिल में ममता की सरिता  है , प्रीति  बाँटती  है चहुँओर   ।

      चाहे वह मजदूरिन हो,  या, हो तोड़ती पत्थर नारी ,
      ममता की मूरत है , पर है , नहीं किसी से कमतर नारी।

      चीड़ हवा के सीने को ,नभ में उड़ान भरती है नारी ,
      साहस , शौर्य , पराक्रम की भी , देवी होती है यह नारी।

       दुश्मन भी  गर आन पड़े , बन जाती तलवार है नारी ,
       लाँघ पहाड़ों की चोटी , छू लेती आकाश है नारी।

       नर का सृजन  वही  करती  है, है पयपान  कराती  नारी   ,
       पाल  पोस कर बड़ा बना कर , साहस  ऊर्जा भरती  नारी  ।

       देख- देख निज  सृजन सदा  ही , मुग्ध  हुआ  करती  है नारी  ,
       जीवन  में इक नेह  छोड़  कर , नहीं   माँगती  कुछ  भी  नारी  ।
  
       छूता  है अभिमान न उसको , न्योछावर  जीवन  कर  जाती   ,
       देश  प्रेम , परिवार प्रेम में , सब  कुछ त्याग अमर  हो जाती ।

      अति कोमल है , भावप्रवण  है , करुणा  का  सागर  है  नारी  ,
      जब  रक्षा का  प्रश्न  खड़ा हो , बन जाती असि धार है  नारी  ।

      देवी  भी है , दुर्गा  भी  है ,  है  रणचंडी  भी    यह     नारी   ,
      सरस्वती  सी वाणी इसकी , प्रकृति  का  सौंदर्य है  नारी   ।

      नहीं सबल नारी  के जैसा , जग  में  कोई  सबल  हुआ   है  ,
      दानशील नारी  के  जैसा  , जग  में  कोई   नहीं    हुआ   है ।

      नारी ने निज कोख  से  सदा , वीरों को  ही जन्म  दिया   है  ,
      हँसते - हँसते देश के लिये , सुत सरहद पर भेज  दिया    है  ।  

      न्योछावर कर पूत देश हित , नहीं कभी भी विचलित  होती  ,
      बलि वेदी  पर भेज तनय  को , नहीं  वीर  माता  है  रोती   ।

     निज  अदम्य  साहस  के , इतिहास  अमर  रचती  है  नारी   ,
      कभी टेरेसा , निवेदिता  व  कभी   लक्ष्मी  बन  जाती  नारी  ।

     कहीं  कोकिला  बन जाती  है , कहीं  लता  बन   झूमे  नारी  ,
     कहीं " कल्पना " की पाँखो  पर , छू लेती आकाश  है  नारी  ।

    होती  नहीं  अगर  नारी  तो ,  प्रकृति   का   श्रृंगार  न   होता ,
    होता  नहीं  असीम  गगन  यह  , वैभवपूर्ण संसार न  होता ।

    झील और  नदियाँ  ना  होतीं ,  ना  यह  पर्वतराज  ही   होता  ,
    हिम शिखरों पर रजत - पुंज से , हिम  का यह अंबार न होता  ।

    होती  नहीं  अगर  नारी   तो   ,  पुष्पों   में   सौरभ   न   होता    ,
    नंदन   कानन  कहीं  न  होता ,  शीतल  मंद  समीर  न  होता    ।

    नारी अगर नहीं  होती  तो , धर्म - अधर्म  का  मर्म  न होता  ,
    नहीं जन्म  का , नहीं मरण  का ,जीवन  कोई  कर्म न होता ।

    नारी भोग्या नहीं अरे ! यह  ,  पूज्या  है  जग - जननी   नारी   ,
    दिव्य अप्सरा देव लोक की   ,  मनोहारिणी   है    यह     नारी   ।

     नारी  है  तो  घर  देवालय  , घर  की  लक्ष्मी  होती   नारी    ,
     केवल  आदर , प्यार  और , सम्मान चाहती  है  हर  नारी   ।

     पत्नी  बन  अपने  प्रियतम  पर  , संचित  प्यार लुटाती नारी  ,
     आत्मशक्ति से हो परिपूरित  ,  है  हर  संबंध  निभाती   नारी  ।

     नानी , दादी , माता , बहना  , बन  कर स्नेह  लुटाती   नारी  ,
     मौसी, मामी , ताई  , चाची  ,  बन  कर  गले  लगाती   नारी  ।

     सच  है यह  इस जग  में  नर का , भाग्य , नारी ही लिखती  है ,
     नहीं  चाँदनी  बिना  चाँद  की , कोई , काया   ही  होती   है  ।

     नारी  ही  वह  शक्ति - पुंज  है , नर  में  साहस  भर  देती  है  ,
     चाहे तो दे भेज  नरक  , या  ,  चन्दन  सा  महका   देती    है ।

     नारी अगर नहीं  होती  तो , महापुरुष  कोई  ना  होता  ,
     होता ना कोई वीर  यहाँ , न , इतिहास  वीरों  का  होता ।

     अमर त्याग हाड़ा  रानी  का ,  चूड़ावत  का  नाम  न  होता   ,
      ना  होती  ज्वाला  जौहर  की , राजस्थान  सुधाम  न  होता  ।

     गर  ना होती  वह  शकुन्तला ,  भारत  वीर  भरत  ना   होता  ,
     त्यागमयी  वह  माँ  ना  होती , चन्द्रगुप्त  सम्राट  ना  होता  ।

     पन्ना  धाई  ना  होती  गर ,  ' राणा ' का यशगान न  होता   ,(  उदय सिंह राणा )
     जीजाबाई न होती गर , वीर शिवा का नाम न होता   ।

      यशोधरा का त्याग  ना होता , तो सिद्धार्थ ' बुद्ध ' न होते ,
      ' उर्मि ' का जो त्याग ना होता , ' लक्ष्मण ' फिर ' लक्ष्मण ' ना होते ।

       नहीं सुजाता खीर खिलाती , नहीं बुद्ध को सिद्धी मिलती ,
       ना ही बिना आम्रपाली के ,  जग में नाम अमर हो पाते  ।

       विद्यावती  नहीं  होती  तो , भगत  सिंह  फौलाद ना  होता   ,
        ना   होती  जगरानी  देवी    , चन्द्रशेखर   आज़ाद  न   होता  ।

        होती  यदि  मुमताज़  नहीं   तो  , शाहज़हाँ  का ताज़  न  होता   ,
        शरद  चन्द्र  इर्ष्या  करता  क्यों  , ताज़महल विख्यात  न होता  ।

         रत्ना  जैसी  नारि  न  होती  ,  तुलसीदास अमर  ना  होते   ,
         ना  तो मिलते राम  ही उन्हें , ना  ही  वे रामायण लिखते  ।

         कौशल्या , कैकेई  न  होती ,    और    सुमित्रा  जैसी    माता   ,
         राम लखन ना होते  जग  में , भाई ,  भरत  समान  न  होता  ।

         जनक  दुलारी सिया न  होती , रावण अजर - अमर हो जाता  ,
         होती नहीं यशोदा यदि  तो  ,  कभी  कंस  का  अंत   न   होता  ।

         न  होती  यदि  देवकी  माता  , वंशीधर  का  जन्म  ना  होता   ,
         ना  होती  देवी - दुर्गा  ही  , कंसों  का  फिर  अंत  न   होता   ।  

         कुंती होती  नहीं  धरा  पर  , पार्थ-कर्ण  का  नाम  ना  होता   ,
         द्रुपद- पुत्रि  का जन्म  ना  होता , कौरव  का संहार ना होता  ।

         पुतलीबाई अगर न  होती  ,  मोहनदास   प्रगट   ना   होते  ,
         कस्तूरबा  नहीं  होती  तो  ,   बापू  फिर    बापू    ना   होते  ।

         होती  नहीं  अगर  सावित्री  ,  सत्यवान  फिर  लौट  न  आता   ,
         नारी के तप-त्याग शक्ति  का , इस  जग में आभास न  होता  ।

         ये  तो  सभी  नारियां  ही  थीं  , रत्नों को  ही  जन्म  दिया   है  ,
         क्यों  करता अपमान नारि  का , जिसने  इतना  मान दिया है ।
  
         नारि  अग्नि है , ज्वाला भी  है , दीप - स्तम्भ   भी  है यह नारी   ,
         यह शीतल चन्द्र किरण सी है , जब  जाग जाय  है चिनगारी   ।

         मूरख  मन  तू  मत  कुरेद  उन  , ठंढी  राख  की  ढेरों   को   ,
         जल  जाएगा  सब  कुछ   तेरा  ,  तू , दे  न हवा अंगारों  को  ।

         मत कर  ह्त्या  कन्या  भ्रूण  की , अपना भाग्य ना  खोटा  कर   ,
         फूल हैं  ये , खिलने  दे  इनको    , जीवन  इनका  तू  नष्ट  न  कर  ।

         नर  है नहीं , नराधम   है , जो  , नारी  को   सम्मान   न   देता  ,
         नारी का अपमान  जो  करता   , किस्मत उसका साथ न  देता  ।

         नारी  गंगा  सम  निर्मल  है , सब  पापों   को   धो   देती    है  ,
         क्षण  में  वही  उठा  देती  है  , क्षण  में   वही  गिरा  देती    है ।  

         त्याग , तपस्या , बलिदानों की , अमर कहानी है यह नारी ,
        सकल विश्व की सृष्टी रूपा , पूजित होती है यह नारी ।
           

Wednesday, May 1, 2013

मैं बबूल का फूल



                          

 जाने     क्यों      जग       मुझ       से      रूठा       ही       रहता     ,
जाने     क्यों       मुझसे       कोई       प्यार        नहीं      करता     ।
कलि    गुलाब     की     नहीं   ,    मैं    बेनी    में     गुँथ     जाऊं     ,
चम्पा     या     चमेली      बेली   ,    गजरों     में    बिंध     जाऊं     ।
है    सुगंध    भी    नहीं   ,   किसी    करतल   पर    बिछ    जाऊं     ,
ना    ही    ऐसे    अधर   ,    सुघर     अधरों    से     लग     जाऊं     ।  
मैं       बबूल       का       फूल     सदा     काँटे      रहा      चुभाता    ,
संभव     है    कि     इसी     वजह   से   जग     मुझसे   कतराता    ।
इस     जग     के     हर    फूलों     को   ,    हमने     देखा    हँसते    ,
अपनी      ही     आँखों       में      मैंने      देखा     आँसू     तरते    
फिर   जन्म   न   हो   धरती   पर   ,   ईश    दया    तुम    करना    ,
जीवन     ही     देना     हो     तो     ,    काँटे    तुम    ना       देना    ।
देवों    के    सिर    चढूं    ,   और    गजरों      में      बिंध     जाऊं     ,
या    नन्हे    कोमल     हथेलियों     पर    चढ़     कर     मुस्काऊं    ।
काँटे     ही    देना    हो     तो   ,    यूँ      ही     फेंक     न     देना      ,
अरि    आयें     जिस    ओर    ,   वहीं  ,  मुझको    बिखरा   देना     ।
जहाँ    देश    की     रक्षा    हित   ,   नौजवान      लड़ते          हों       ,
माँ   के   दूध   की   रक्षा   हित    ,   जीवन   अर्पित    करते     हों       ,
जहाँ    गोलियां   चलती   हों   ,   तोप   गरजते   हों   पल  -  पल     ,
ओढ़    धूल    का    कफ़न   , वहीँ  ,   मुझको    सो   जाने     देना    ।   

(     1966    की     रचना       )


                              
 

Tuesday, April 30, 2013

यमुना की फुफकार

ताज    है    मुमताज़       का       साज    ,
ताज    है      शाहजहाँ       का       नाज    ,
ताज    में     शाहजहाँ       का      प्यार     ,
अमर     यह       प्यार      का    उपहार    ।

ताज      में     जीवित      है    मुमताज    ,
ताज      में      जीवित           शाहजहाँ    ,
ताज      के      पत्थर    में    है     प्राण    ,
ताज       दो     प्राणों    का    है     प्राण    ।

बाहें       हैं       इसके      खम्भे     चार     ,
दो     बदन     मिले  ,   हो      एकाकार    ,
है    अनुपम    यह    कृति   प्यार    की    ,
प्यार       हुआ      सचमुच        साकार    ।

प्यार     के     जल     से    वर्षों     सींच    ,
रखा    है     जनमानस      के        बीच    ,

रूक      कर      दुहरा    लो     इतिहास     ,
प्यार    की    ऐसी        होती      प्यास     ,
न     बुझती       पीने   से    एक    घूँट      ,
प्यार     का    बंधन       बहुत    अटूट       । 

शरद     के    नभ     का     पूरा    चाँद      ,
उतर     जब      आता       छूने    ताज      , 
उर्वसी       को     भी     आती      लाज      ,
देवगण       जलने      लगते       आज      ।

अलौकिक     किसका     है   यह    रूप      ,
अलौकिक     किसकी    यह    पहचान      ,
कौन     मलिका      सोई     है     आज       , 
ताज    के    नीचे     सब    कुछ    भूल       ।
            *         *         *          *
पास      यमुना     की      चंचल    धार     ,
वक्र     सी    चलती    जिसकी     चाल     ,
सुरा     पा     लेने        को       व्याकुल    ,
छोड़    कर    बढ़    आती    तट  -  मूल    ।

उफनाती       हुई       यमुना        धार      ,
है    करती      नागिन    सी    फुफकार     ,

बहूंगी      सतत       तुम्हारे         कूल     ,
खोखला      कर   दूँगी     तेरा      मूल      ,
जहाँ     पर      इठलाता      है     आज      ,
वहाँ      पर       उड़वा      दूँगी     धूल      ।
           *       *        *        *
अरुण     के   किरणों     के   ही    संग     ,
शाख      पर       मुसकातीं     कलियाँ     ,
पवन    निज   अंक    पाश   में   बाँध      ,
झुलाता     रहता     है     पल   -  पल      ।

रवि    जब    जाता    नभ    को   छोड़    ,
शाख   से   कलि   को    तोड़  -  मरोड़    ,
गिरा     देता     चुपके      से       हाय     ,
धरा    पर    रौंदी     जाती    है    हाय     ।

कौन      सुनता      उसका       क्रंदन     ,
कौन    सुनता    है    उसकी      हाय     ,
समय   तो   जाता   सब   कुछ   भूल    ,
समय      जाएगा     तुझको       भूल   ।

(     23   -   3   -    68    की    रचना       )