हे !
पिता मेरे ,
तुम गए कहाँ ?
मैं भटक गया हूँ
इस जग में ,
तुम वापस लौट के आ जाओ ,
है व्यथित , आकुलित मन मेरा ,
इस मन को आश दिला जाओ ,
मैं शैशवपन साकार करूँ ,
कुछ बीते पल को याद करूँ ,
कहीं खो न जाऊं मैं इस जग में ,
तुम मुझको राह दिखा जाओ ।
नहीं बिसर सका
कुछ भी तो मैं ,
न तेरा स्नेह , न तेरा प्यार ,
कभी रूठने पर मनुहार ;
तेरी गोद में आकर मैं तो
सब कुछ ही था पा जाता ,
तेरी बाहों में घिर कर ,
सारा आकाश था पा लेता ।
ऊँगली पकड़ - पकड़ मेरा
वह , अ , आ , इ , ई सिखलाना ,
रोज सवेरे गोद में लेकर ,
भजन भक्ति का सिखलाना ,
यह कल्ह की बात ही लगती है ,
यह कसक ह्रदय को मथती है ,
मन सूना - सूना रहता है ,
दृग अश्रुपूर्ण हो जाता है ,
मन दूर बहुत खो जाता है -
तब लगते कितने मेले थे ,
बहु सर्कस और तमासे थे ,
अपनी काँधों पर बिठला कर ,
तुम सर्कस दिखला लाते थे ।
मीना बाज़ार का क्या कहना
जहाँ बिकते ढ़ेर खिलौने थे ,
वह घंटी वाली सायकिल थी ,
जिसमें बस एक ही पहिया था ,
लोहे के डंडे से बंध कर ,
वह चलती और टुनकती थी ।
जब हम थोड़े बड़े हुए ,
तब स्कूल मुझको भिजवाया ,
जब स्कूल से पढ़कर निकले ,
तब कॉलेज मुझको पिठवाया ,
देकर प्यार - दुलार ढ़ेर सा
अपने पैरों खड़ा किया ,
जीवन में खुशियाँ भर कर , फिर ,
जीवन मेरा महकाया ।
चन्दन सम ही पद - रज पाकर ,
जीवन - पथ पर चला बढ़ा ,
शुभ आशीषों के ही बल , मैं ,
उन्नति के सौपान चढ़ा ।
( नोट - 2 3 - 3 - 2 0 1 2 को रचित )
उन्नति के सौपान चढ़ा ।
( नोट - 2 3 - 3 - 2 0 1 2 को रचित )
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