देव भूमि पर आपदा आ गई थी ,
शिव ने अपनी जटा खोल दिया था ,
शिव का तीसरा नेत्र खुल गया था ,
पहाड़ हिल गया ,
पत्थरें दरकने लगीं ,
गंगा ने विकराल रूप
धारण कर लिया ।
गाँव के गाँव ,
भागीरथी के कुपित शैलाब में
तिनके की तरह बह गए ;
चारों ओर चीख - पुकार ,
हर और तबाही का मंजर ,
बड़े - बड़े आलीशान भवन ,
होटल धराशायी हो ,
जलविलीन हो रहे थे ,
त्राहि - त्राहि का शोर ,
प्राण बचाने के लिए ,
जिसको जिधर रास्ता मिला ,
उधर ही भागा ।
प्रलय ही प्रलय था ,
क्या आदमी , क्या जानवर
सभी बह रहे थे
गंगा की लहरें ,
अट्टहास कर रही थीं ,
पहाड़ टूट कर
अपना क्रोध जता रहे थे
मानो कह रहे हों -
तुमने विकास के नाम पर ,
मेरा विनाश ही किया है ,
तुम्हारे विकास से
मेरा दम घुटने लगा है ,
डायानमाइट की चोट से ;
मेरे सीने में दर्द उठने लगा ।
तुमने मुझे कहाँ से नहीं काटा ?
हरे - भरे पेड़ों को काट कर ,
मेरे सीने पर हथौड़े चला कर ,
मेरा सीना छलनी कर दिया है ,
पावन गंगा को बाँध कर ,
इसकी अविरल धारा को ,
गँदला कर दिया है ,
उसकी पावनता को ,
नष्ट कर दिया है ।
देव और देवर्षि की भूमि को ,
अपने जूठन और कचरे से
अपावन कर दिया है ,
तुमने अर्थोपार्जन के लिए ,
मेरा सर्वनाश कर दिया है ।
मैं तिलमिला उठा ,
पहाड़ तिलमिला उठा ,
तब ,
नदियों ने करबट बदल लिया ......
अभी तो हमने आधी ही
करबट लिया है ,
अब भी नहीं चेत पाए , और ,
मुझे इसी तरह रौंदते रहे , तो ,
मुझे फिर से सबल बनने के लिए ,
स्वयं ही रास्ता बनाना होगा ,
अपनी मान मर्यादा ,प्रतिष्ठा के लिए ,
मुझे (इन ) स्वार्थी इरादों का ,
विनाश करना होगा ।
( 1 3 - 7 - 2 0 1 3 को रचित )
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