धनि - धनि - धनि हैं नारि वै ,
जिनके साजन संग ,
बिन साजो - श्रृगार के ,
दमकत उनके अंग ।
गली - गली झूलन पड़ी ,
हरी - हरी डारि कदम्ब ,
राधा - मोहन झूलिहैं ,
बरसहीं नभ से अंभ ।
सावन कारी रात को ,
जियरा मोर डराहिं ,
चंचल , दुष्ट , बिजुरी चमक ,
गरजत हैं नभ माहिं ।
बरसत घर है फूस का ,
टपकात है चहुँ ओर ,
नैनन सावन देखि कै ,
अंग लागि चितचोर ।
सुख जो प्रिय के बांह में ,
कतहुं न मिलियै और ,
चित साजन बिन सून है ,
जइयौ कोऊ ठौर ।
( 16 - 7 - 2013 की रचना )
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