Thursday, July 28, 2016

चलो चलो हम पेड़ लगायें

चलो चलो हम पेड़ लगायें ,
हरा - भरा संसार बनायें ,
कुसुम खिले पर्वत पर्वत पर ,
नदियाँ सब जल से भर जायें।

जब वर्षा की ऋतु आ जाये ,
घन भी बरस - बरस कर जाये ,
खेत और खलिहानों में अब  ,
पौध धान की हैं  मुस्काये।

खुशहाली जग में छा जाये ,
तुम मुस्काओ , हम मुस्कायें ,
शुद्ध हवा में साँस ले सकें ,
पेड़ लगायें , पेड़ लगायें।

चलो चलो हम पेड़ लगायें,
हरा - भरा संसार बनायें।

Saturday, July 23, 2016

जब से सावन

जब से सावन उमड़ के आया है ,
रूप धरती का है सँवरने लगा ,
हर तरफ छा रही है हरियाली ,
जैसे बादल से अप्सरा आई।

साल सोलहवाँ जो लगा आकर ,
रंग गोरी का है निखरने लगा ,
जैसे सावन के चाँदनी की हँसी ,
तन-वदन गोरी का है हँसने लगा।

रूपसी भी हैं अब लगी सजने ,
हाथ में मेंहदियाँ लगी रचने ,
लग गए डालियों पे झूले हैं ,
कृष्ण की बाँसुरी लगी बजने।

मोर भी हैं नाचने लगे वन में
जब से काली घटाएँ छाईं हैं ,
बज उठी घंटियाँ हैं मन्दिर में ,
भोले बाबा की याद आई है ।

Saturday, July 16, 2016

तिरंगा न झुकने देंगे

एक पत्थर तो हवा में उछाल कर देखो ,
कहर बन कर दुश्मन पर बरस कर देखो ,
हो नाम शहीदों में तुम्हारा भी कहीं ,
अपने सिर पर कफ़न बाँध कर देखो।

वतन के वास्ते जीने का फन सीख लो ,
कुर्बानी का जज्वये हुनर तो सीख लो ,
दे देंगे जां , तिरंगा न झुकने देंगे ,
कलम को तलवार बनाना तो सीख लो।

आज़ादी के शोलों को जला कर रखो ,
दुश्मन से गुलिश्तां को बचा कर रखो ,
कोई नापाक निगाहें न वतन पर उठे ,
आँखों में चिंगारी सजा कर रखो। 




Saturday, July 2, 2016

किसान

आँधी हो , तूफान हो ,
बारिस हो या झंझावात ,
किसान नहीं रुकता ,
वह नंगे बदन
घुटने तक की धोती पहिरे ,
कादो - कीचड में धँसे
पूरे मनोवेग से
खेतों में काम करता रहता है।
जब हम सब
बारिस में भींजने के डर से ,
सर्दी और बुखार के डर से
घरों में दुबके रहते हैं
वह खेतों में
वैसे ही मुस्तैद रहता है
जैसे सरहद पर जवान ,
जीवट प्राणी है किसान  !

वह  हम सब का अन्नदाता
अभाव में जीता है ,
खुद भूखा रहता है ,
बच्चों को भूखा रखता है
पर ,औरों की भूख मिटाने
हाड़ तोड़ श्रम करता है ,
खुद कच्चे खपरैले मकान में रहता है
हम सब के लिए
अन्न का भण्डार लगा देता है ,
है न जीवट प्राणी ?
जीवट लोग जीते हैं , मरते नहीं ,
उसे मारती हैं हमारी उपेक्षाएं।

अपने लहलहाते ,
लहराते खेत को देख कर
खुश होता है किसान
ठीक वैसे ही
जैसे, कोई खुश होता है
अपने बढ़ते बच्चों को देख कर  ,
बच्चों से भी ज्यादा प्यार करता है
वह अपने उगे फसलों को ,
 पूरा जीवन खपा देता है
फसलों की परवरिस में ,
किसान कभी मरता नहीं ,
उसे मारती हैं
हमारी असंवेदनायें।

नहीं रोता वह
घड़ियाली आँसू  ,
जैसे रोते हैं
कुछ विशिष्ट जन ,
उसे आस्था है ईश में ,
उसे भरोसा है
अपने श्रम पर ,
वह कोरे वादे नहीं करता ,
श्रम करता ,
श्रम के वादे करता।
श्रम की मिठास
किसान को जीवित रखता है ,
किसान स्वयं नहीं मरता ,
उसे मारते हैं झूठे वादे ,
उसे मारती है तंत्र व्यवस्था ,
उसे मारती है झूठी संवेदनायें।

              ------- ( प्रकाशित )