आँधी हो , तूफान हो ,
बारिस हो या झंझावात ,
किसान नहीं रुकता ,
वह नंगे बदन
घुटने तक की धोती पहिरे ,
कादो - कीचड में धँसे
पूरे मनोवेग से
खेतों में काम करता रहता है।
जब हम सब
बारिस में भींजने के डर से ,
सर्दी और बुखार के डर से
घरों में दुबके रहते हैं
वह खेतों में
वैसे ही मुस्तैद रहता है
जैसे सरहद पर जवान ,
जीवट प्राणी है किसान !
वह हम सब का अन्नदाता
अभाव में जीता है ,
खुद भूखा रहता है ,
बच्चों को भूखा रखता है
पर ,औरों की भूख मिटाने
हाड़ तोड़ श्रम करता है ,
खुद कच्चे खपरैले मकान में रहता है
हम सब के लिए
अन्न का भण्डार लगा देता है ,
है न जीवट प्राणी ?
जीवट लोग जीते हैं , मरते नहीं ,
उसे मारती हैं हमारी उपेक्षाएं।
अपने लहलहाते ,
लहराते खेत को देख कर
खुश होता है किसान
ठीक वैसे ही
जैसे, कोई खुश होता है
अपने बढ़ते बच्चों को देख कर ,
बच्चों से भी ज्यादा प्यार करता है
वह अपने उगे फसलों को ,
पूरा जीवन खपा देता है
फसलों की परवरिस में ,
किसान कभी मरता नहीं ,
उसे मारती हैं
हमारी असंवेदनायें।
नहीं रोता वह
घड़ियाली आँसू ,
जैसे रोते हैं
कुछ विशिष्ट जन ,
उसे आस्था है ईश में ,
उसे भरोसा है
अपने श्रम पर ,
वह कोरे वादे नहीं करता ,
श्रम करता ,
श्रम के वादे करता।
श्रम की मिठास
किसान को जीवित रखता है ,
किसान स्वयं नहीं मरता ,
उसे मारते हैं झूठे वादे ,
उसे मारती है तंत्र व्यवस्था ,
उसे मारती है झूठी संवेदनायें।
------- ( प्रकाशित )
बारिस हो या झंझावात ,
किसान नहीं रुकता ,
वह नंगे बदन
घुटने तक की धोती पहिरे ,
कादो - कीचड में धँसे
पूरे मनोवेग से
खेतों में काम करता रहता है।
जब हम सब
बारिस में भींजने के डर से ,
सर्दी और बुखार के डर से
घरों में दुबके रहते हैं
वह खेतों में
वैसे ही मुस्तैद रहता है
जैसे सरहद पर जवान ,
जीवट प्राणी है किसान !
वह हम सब का अन्नदाता
अभाव में जीता है ,
खुद भूखा रहता है ,
बच्चों को भूखा रखता है
पर ,औरों की भूख मिटाने
हाड़ तोड़ श्रम करता है ,
खुद कच्चे खपरैले मकान में रहता है
हम सब के लिए
अन्न का भण्डार लगा देता है ,
है न जीवट प्राणी ?
जीवट लोग जीते हैं , मरते नहीं ,
उसे मारती हैं हमारी उपेक्षाएं।
अपने लहलहाते ,
लहराते खेत को देख कर
खुश होता है किसान
ठीक वैसे ही
जैसे, कोई खुश होता है
अपने बढ़ते बच्चों को देख कर ,
बच्चों से भी ज्यादा प्यार करता है
वह अपने उगे फसलों को ,
पूरा जीवन खपा देता है
फसलों की परवरिस में ,
किसान कभी मरता नहीं ,
उसे मारती हैं
हमारी असंवेदनायें।
नहीं रोता वह
घड़ियाली आँसू ,
जैसे रोते हैं
कुछ विशिष्ट जन ,
उसे आस्था है ईश में ,
उसे भरोसा है
अपने श्रम पर ,
वह कोरे वादे नहीं करता ,
श्रम करता ,
श्रम के वादे करता।
श्रम की मिठास
किसान को जीवित रखता है ,
किसान स्वयं नहीं मरता ,
उसे मारते हैं झूठे वादे ,
उसे मारती है तंत्र व्यवस्था ,
उसे मारती है झूठी संवेदनायें।
------- ( प्रकाशित )
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