Friday, December 21, 2018

नया वर्ष आने वाला है

नया वर्ष  आने वाला है ,
धूम - धड़ाका होने वाला है ,
वर्ष 2019  आने वाला है ,
फिर से चुनाव आने वाला है।
फिर धर्म - जाति के बीज ,
जनता की छाती पर बोयेंगे ,
हमको तुमसे , तुमको हमसे ,
अलग - अलग बाँटे जायेंगे ,
वो नेता फिर से आएंगे ,
वो वोट माँगने आएंगे।
पहाड़ का  हाल खस्ता है  ,
नदी पार करने का पूल टूटा है
स्कूल का बच्चा रोज ही ,
रस्सी पर चल कर ,
स्कूल जाता है ,
सब को यह पता है ,
पर किस किस को दर्द होता है  ?
हर बार की तरह सिर झुकाये  ,
वो आएंगे फिर से ,
वो वोट माँगने आएंगे ,
अबकी पक्का  वादा है ,
फिर से कसमें खाएंगे ,
वादा कर के जाएंगे ,
उनमें कुछ पुराने वादे होंगे ,
कुछ नए वादे कर जाएंगे ,
वादों की झड़ी लगा देंगे ,
हम वादों में खो जाएंगे ,
वादों की  लॉलीपॉप ,
हमारी कानों को दे जाएंगे ,
आपका और मेरा वोट ,
लेकर ही वो  जाएंगे ,
फिर से हम सब  कोस - कोस कर
आँसू पी कर  ,
अगले चुनाव का इन्तजार,
बस करते ही रह जाएंगे।
वह जेई तरह से आएंगे ,
और इसी तरह से जाएंगे।



Monday, November 19, 2018

नदी और नारी

नदी और नारी दोनों की गति है एक समान ,
अनुशासित जब तक रहे ,तब तक है सम्मान।
जब भी नदियाँ हो जाती हैं चंचल औ उच्छृंखल ,
पावन बनी नहीं रह जाती और न जल ही निर्मल।
दिशाहीन हो कर बह जाती , इधर-उधर राहों पर ,
नहीं स्वच्छ वह रह पाती है , तृषित कामना लेकर।
जब तक है सम्मान ,पूजते नदी और नारी को ,
पंडित,ज्ञानी  अर्पित करते धूप,पुष्प औ चन्दन।
टूट जभी जाता है यह लघु अनुशासन का  बंधन ,
सुखमय जीवन में रह जाता ,बस क्रंदन ही क्रंदन।
है स्वतंत्र नारी का जीवन , जैसे कटा  पतंग ,
सुचिता सदा छोड़ देती ,आजाद नदी का संग।
अनुशासन में बद्ध प्रकृति भी ,शांत,सौम्य ,शीतल है ,
गर टूटा अनुशासन तो ,फिर , चहुँ ओर जल-थल है।
अनुशासन से च्युत  नारी का धर्म चला जाता है ,
धर्मविहीन हो कर्म नारी का पशुवत हो जाता है।
अनुशासन  विहीन यह जीवन ,सुघर नहीं हो सकता ,
काँटो के पहरे में देखा , है गुलाब मुस्काता।
प्रेम और सहयोग बिना , आकाश न छूती आशा ,
होती कभी न पूर्ण  'कल्पना 'की उड़ान-अभिलाषा।

Tuesday, October 30, 2018

आईना कब झूठ बोलता है ?

आईने से उनको डर लगता है  ,
इसलिए , जब कभी कोई ,
उनको दिखाता है आईना ,
वो डर जाते हैं देख कर आईना ,
और , डर कर तोड़ देते हैं पसलियां ,
आईना दिखाने वालों की  ,
साथ ही तोड़ देते हैं आईना ।
पर आईना तो आईना ही ठहरा ,
शीशे का बना आईना  ,
टूट कर , बिखर कर भी  ,
दिखाता रहा उनको ,
उनका ही चेहरा ,
उनका मुँह चिढ़ाता रहा  आईना ,
आईना तो असली चेहरा ही दिखाता है ,
भला , आईना कब झूठ बोलता है  ?

आओ मिल कर दीप जलायें

देश की आजादी की खातिर ,
झूल गए जो फाँसी पर  ,
आओ कुछ आँसू छलकायें  ,
उन वीरों  के  नाम ।

जिनके त्याग से लहराता है ,
आज तिरंगा प्यारा ,
आओ कुछ हम गीत लिखें ,
उन वीरों के नाम ।

जिनके बलिदानों से मिली है  ,
हमें देश की आज़ादी  ,
आओ मिल कर दीप जलायें  ,
उन वीरों के नाम ।


कभी - कभी तुम अपने मन से

कभी - कभी तुम अपने मन से ,
मन की बातें कर के देखो ।
कभी -  कभी मन के भावों को ,
मन ही मन में पढ़ कर देखो ।
कभी - कभी तुम चुपके - चुपके ,
चुपके - चुपके रो कर देखो ।
कभी - कभी दिल के जख्मों को ,
थोड़ी और हवा कर देखो ।
आँसू गर जो चाहे छलकना ,
आँसू को समझा कर देखो ।
होंगे मीत तुम्हारे शत - शत ,
उनके मन को पढ़ कर देखो ।
सुख - दुःख हैं जीवन के संगी ,
उनको मीत बना कर देखो ।
सुख में तो सब ही हँसते हैं ,
दुःख में भी मुस्का कर देखो ।
कभी - कभी तुम अपने मन से ,
मन की बातें कर के देख ।

Saturday, September 29, 2018

सिर पर धूप बहुत है

सिर पर धूप बहुत है
सँभल कर चलना  ,
हाक़िम को अच्छा नहीं लगता
रात को रात , और
दिन को दिन बताना ,
हाक़िम कोई भी हो
दिन में तारे दिखा सकता है ,
इसलिए ,
दिन को रात और रात को दिन बताना।
हाकिम की मर्जी हो , तो
बकरी भी गाय ,
और ,
गाय भी बकरी बन जाती है ,
सोच - समझ कर
मुँह खोलना ,
सोच - समझ कर
कदम बढ़ाना ,
कदम - कदम पर ज़ाल बिछे हैं ,
ज़ाल में झूठ के तम्बू हैं ,
जहाँ , सच नहीं , झूठ चलता है
झूठ के साये में सच चलता है ,
सच पर झूठ का पहरा रहता है।
ईमान को काँख में
दबा कर चलना ,
झूठ को आँखों में
बसा कर चलना ,
सिर पर धूप बहुत है ,
संभल कर चलना  ,
सिर अपना बचा कर चलना।

सड़क पर निकलो तो ,
निग़ाह रख कर चलना ,
कहाँ - कहाँ नहीं हैं भेड़िये
तुम्हारा शिकार करने ,
हवा ज़हरीली है
हर जगह , हर दिशा ,
रात तो काली होती ही है ,
यहाँ सफ़ेद  झक्क लिबास में भी
दिल काला मिलता है ,
अपना सत बचा कर चलना ,
आँचल सँभाल कर चलना ,
सूरज भी मूँद लेता है आँखें ,
अब सच कौन बोलता है
और ,
अगर , कोई बोले भी तो
उसे कौन सच मानता है ?
सच की लकीरों पर
झूठ का मुलम्मा है ,
झूठ के साये में सच चलता है ,
सच पर झूठ का पहरा रहता है ,
सर पर  धूप बहुत है ,
सँभल कर चलना ,
सिर अपना बचा कर चलना


Saturday, September 1, 2018

दो प्रतिशत

अरे ओ साँबा  !
सरकार ने
हमारी कितनी तनख्वाह बढ़ाई है रे  ?
हुज़ूर ,
दो प्रतिशत।
सिर्फ दो प्रतिशत  ?
ये सरकार  की नाइंसाफी है ,
अपनी तनख्वाह बढ़ानी हो तो
चार सौ प्रतिशत
और , हमारी सिर्फ दो प्रतिशत  !
हुज़ूर ,
सत्य कह रहे हैं ,
पर , हुज़ूर
यह नाइंसाफ़ी  कहाँ है  ?
ये तो कुदरत का न्याय है ,
हर बड़ा छोटे को निगलता है ,
बड़ा सांप छोटे को खा जाता है ,
बड़ी  मछलियाँ छोटी  मछलियों को
निगल जाती हैं ,
और हुज़ूर  , एक बात और   ...
वह क्या है रे  !
हुज़ूर  , सत्ता के लिए
जनता को कुचलना ही पड़ता है ,
इतिहास गवाह है ,
इतिहास तो उसी का बनता है
जो लाशों पर चलता है ,
आपने भी तो
सम्राट अशोक का नाम  सुना  ही होगा  ,
और ,
कलिंगा युद्ध को भी जानते ही होंगे ,
लाखों लोग मारे गये थे।
महान कहलाने वाले
सिकंदर का नाम भी
आपने सुना होगा ,
मुग़ल बादशाह औरंगजेब को
कौन नहीं जानता
जिसने सत्ता के लिए
अपने सगे भाइयों का भी
क़त्ल करवा दिया था ,
सो हे हुज़ूर ,
जो त्राहि - त्राहि का शोर न हो , तो
ऊपर वाले को कौन पूछेगा  ,
कौन  पुकारेगा  ,
और
कौन याद करेगा   ?
और हुज़ूर ,
जनता तो भेड़ - बकड़ियाँ  है ,
इन्हें तो कटना ही पड़ता  है।
का फर्क पड़ता है
दो प्रतिशत मिले , या फिर
चार प्रतिशत  ,
चार सौ तो मिलने से रहा।
जब पेट खाली रहेगा , तभी तो
ऊपर वाले के आगे
हाथ  फैलायेगा , और
जब हाथ फैलायेगा  , तो
बदले में ऊपर वाले की
दुआ - ख़ैर भी मांगेगा ,
देखिये ,हम जब भी
ऊपर वाले को याद करते हैं ,
दुःख में या सुख में
(  नेपथ्य में - यहाँ तो दुःख ही दुःख है )
जय हो - उनकी ही बोलते हैं ,
तुम ठीक कह रहे हो सांबा ,
चलो , छोड़ो इस टॉपिक को ,
खैनी -वैनी खिलाओ,
हम भी अपने घर जायें ,
तुम भी अपने घर जाओ। 

Friday, August 31, 2018

सब कुछ सत्य तो नहीं

कितना अच्छा लगता है
अपने नाम के आगे
एक  '  विशेषण  ' का लग जाना ,
एक विशेष  ' वर्ग '  से
पुरस्कृत हो जाना ,
कितना सुन्दर  और स्वर्णिम है
वह शब्द और संबोधन  !
जब इतने बड़े सम्मान से
हमें नवाज़ा जाता है ,
' ख़ैरात 'में जब
इतना सब कुछ मिल जाता है ,
' श्रम 'का झमेला क्यों पालें  ?
क्यों पसीना  बहायें  ?
कादो  - कीचड़ में क्यों सनें  ?
जब हमें
एक मेहमान की तरह
मिल जाता है
सारा आदर -  सत्कार ,
मुफ़्त का दाना - खाना ,
और , ' वज़ीफा '
फिर क्यों ढोयें हम
व्यर्थ का पुस्तक का भार  ?
" समान अधिकार "  का नारा
संविधान की किताबों में है ,
धरातल पर नहीं ,
किताबों में तो बहुत कुछ लिखा है ,
पर सब कुछ सत्य तो नहीं   ,
यही सत्य है ।

Monday, August 20, 2018

टिहरी झील

शहरों में तो बहुत  धूल है ,
शोर - शराबा भी बहुत है।
आह ! उमस भी इतनी  , कि ,
बुद्धि काम नहीं करती है ,
तन शिथिल हो जाता है ,
मन हार जाता है ,
चलो , कहीं और चलो ,
काम बहुत करना है ,
प्रदेश को संभालना है ,
नीतियां बनानी है ,
बिना  नीति विकास बेमानी है।
नहीं - नहीं ,
शहरों में मुश्किल है ,
दूर पहाड़ों पर
मिल सकता कोई हल है ,
विकास का रास्ता ,शायद ,
टिहरी झील की ओर से जाता है।
चलो , वहीँ चला जाए ,
प्रकृति की गोद का
आनन्द लिया जाए ,
सुरम्य पहाड़ियों के बीच
झील के पानी की सतह पर ,
बहती ठंढ़ी - ठंढ़ी नरम हवा ,
भर देगी , मस्तिष्क में ताजगी ,
निश्चय , विकास की योजना ,
जायगी निखर - संवर  -
ऐसे ही वातावरण में
देवत्व प्राप्त होता है ,
सच कहते हो  -
विकास का रास्ता  , शायद,
टिहरी झील से हो कर जाता है।

Sunday, August 19, 2018

श्रद्धांजलि

चमका नभमें एक सितारा ,
 वह था प्यारा  ' अटल ' हमारा।
फूलों ने उसको महकाया ,
धरती ने उसको था सँवारा।
पूरब - पश्चिम , उत्तर - दक्खिन ,
सब  का ही वह तो था दुलारा।
टूट गया नभ का वह तारा ,
शोक में डूबा जग यह सारा।
मौन हुई हैं सभी  दिशायें ,
खो गया  भारत का उजियारा।
है नमन तुम्हे हे महापुञ्ज ,
अमर नाम जग में है तुम्हारा।
दो फूल चरणों  में अर्पित है ,
स्वीकार करो श्रद्धांजलि हमारा।

Wednesday, August 8, 2018

काश ! कि ऐसा हो जाता

काश ! कि  ऐसा हो जाता ,
इन्सां  , इन्सां हो जाता ।
जाति , धर्म सब झूठे हैं ,
काश समझ में आ जाता ।
जनम सभी का एक सा ,
मरण एक सा  ही होता।
सूरज , चन्दा  , तारे भी
एक सा ही सब को दिखता ।
सागर , नदिया का पानी ,
एक सा ही सब को मिलता ।
फूल हों या फिर काँटे हों ,
पवन एक सा ही मिलता ।
मानव फिर मानव से ही  ,
नफरत दिल में क्यों रखता  ?


Monday, July 16, 2018

विवश पाँचाली

दिल के दर्द उकेरूँ कैसे 
इस कागज़ के टुकड़े पर ,
मन की व्यथा बताऊँ कैसे
काँप रहे सुकुमार अधर ।

जिधर - जिधर दृष्टि करता हूँ ,
विवश पाँचाली दिखती है  ,
बीच सड़क पर दुर्योधन की
फ़ौज खड़ी दिखती   है ।

विज्ञापन के नारों में बस
है सु:शाशन का नारा ,
राजनीति के चक्र्व्यूह में
अभिमन्यु सदा ही हारा।

हर दिन , हर शै  ,गली - गली में ,
है चीत्कार बेटी का ,
सुनकर भी है नहीं टूटता ,
तुला यहाँ पर न्याय का।

जाने कितनी निर्भया रोज
हा ! निरपराध मरती है ,
जाने कितनी बिटियों के तन ,
नित ही विदीर्ण होती है।

है बड़े सुनहरे पट्टी पर ,
बेटी बचाव का नारा ,
कैसे पढ़ पाएगी बेटी ,
शाशन - समाज नक्कारा।

Friday, July 13, 2018

पेड़ का बलिदान

एक शाम मेरे जेहन में
एक प्रश्न उभर आया ,
भेड़ और पेड़ में क्या अंतर है  ?
भेड़ों के भाग्य में लिखा है कटना ,
भेड़  कटते हैं , रोज कटते हैं ,
पेड़ों के भाग्य में लिखा है कटना ,
पेड़ कटते हैं , रोज  काटे जाते हैं। 
क्या फर्क पड़ता है -  भेड़ छोटा है या बड़ा ,
पेड़ सूखा है या हरा - भरा  ?

जिह्वा की संतुष्टि के लिए  ,
भेड़ बलिदान हो जाते हैं ,
शहर के विकास के लिए
पेड़ बलिदान हो जाते हैं।

किसी के विकास के लिए जरूरी है
किसी का बलिदान हो जाना  ,
पेड़ बलिदान हो जाते हैं ,
मानव के विकास के लिए ,
बन जाती हैं चौड़ी - चौड़ी सड़कें ,
आलीशान इमारतें ,
मजबूत दरवाजे , खिड़कियाँ ,
टेबल - कुर्सी  , फर्नीचर ,
और न जाने क्या - क्या।
पेड़ बलिदान देकर भी
अमर हो जाते हैं ,
कट कर भी
अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं पेड़ ,
एक हम हैं - मानव  ,
उसके बलिदान को ,
उसके त्याग को , उसके दर्द को
भुला देते हैं  ,
और ,
चलाते हैं  आरियां , पेड़ों पर ,
अनवरत - लगातार    .......
(  10 - 07  - 2018  )

Tuesday, July 10, 2018

मरी खाल की साँस सों

अपनी सत्ता और पुत्रों के प्रति मोह ने
धृतराष्ट्र को अंधा बना दिया है ,
उसके चारों ओर खड़े
जान - गण - मन  की भीड़ ,
उसे दुश्मन से प्रतीत हो रहे हैं   ......

अपने अजेय किले , और
बंधु - बान्धवों की
अपार कतार को देख ,
वह कुटिल मुस्कुराहट
और विद्रूप हँसी से
सब का उपहास मना रहा है ,
फिर एक महाभारत की तैयारी
कलियुग ने कर ली है  ........

फैली हुई अव्यवस्थायें
उसे नहीं दीखती ,
उसके अपने अट्टहास में
गिरते - पड़ते - मरते जन
नहीं दीखते ,
उसकी आँखों पर
अहंकार का पर्दा पड़ गया है  ......

इतिहास अपने - आपको दुहराता है ,
वही चौकड़ी है ,
शकुनि भी है , गुरु  द्रोण भी ,
वृद्ध भीष्म पितामह भी
( जिन्हें अब एक बगल खड़ा कर दिया गया है  )   ......

अरे ! ओ धृतराष्ट्र !
काल का पहिया घूमता है ,
भूल मत , यहाँ सब नश्वर है ,
न तू रहेगा , न तेरी सत्ता ,,
न तेरे पुत्रों - बंधु - बांधवों की फ़ौज ,
जो बच जायेंगे तेरे परिजन ,
तब वही तेरा उपहास करेंगे   .......

मन की आँखें खोल ,
और देख  -
" मरी खाल की साँस सों  ,
लौह भस्म हो जाय "
मत ले आह ,
दुनिया ने पत्थरों को पूजा है
तो , ठोकरें भी लगाई है ,
दर्प की अग्नि में
जल जाता है सब कुछ ,
न तख़्त ही रहता ,
न ताज ही रहता ,
प्यार के ही न्याय का  ,
बस , राज  है रहता  ,


Monday, June 18, 2018

जब शाशन के नाक के नीचे

जहाँ मोल मानव जीवन का ,
कौड़ी सा आँका जाता है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

जहाँ धर्म के नाम कोई भी
कृत्य अधर्म कर जाता है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

कदम - कदम पर मुँह बाये ही ,
मिलती हो खड़ी अराजकता ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

जब शाशन के नाक के नीचे ,
अस्मत नारी की लुटती है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

जहाँ आदमी का जीवन ,
पशु से बदतर हो जाता है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

जहाँ शाशन भी आँख मूँद ,
बस दर्शक सा बन जाता है ,
कविता कहना , गीत सुनाना ,
बेईमानी सा लगता है।

Friday, June 15, 2018

" गौरैया "

कहते हैं अब  नहीं दिखती है  गौरैया
जिसकी  चीं -चीं  की आवाज से
होती थी सुबह ,
वह अब कहीं खो गई है ,                  
जिसकी चहचहाहट से
घर - आँगन होता था गुलजार। 

गौरैया  शहरों में नहीं दिखती ,
दिखती है शहर की गलियों में ,
नहीं लगता है उसका दिल
कंक्रीट के महलों में ,
अट्टालिकायें  और फ्लैट
उसे पसंद नहीं ,
शहर के मकानों में आँगन नहीं होते ,
ना ही सुखाये जाते हैं
गेहूँ  - चावल जैसे अन्न।
शहर में लोग लाते हैं  , खाते हैं
पके - पकाये भोजन ,
गौरैया  चुगती है दाने ,
इसीलिये वह दिखती है
शहर की गलियों में ,
गली वाले घर में ,
जहाँ  उसको  मिलते हैं दाने ,
रहने को छोटी सी जगह ,
छप्पर - छाजन और ताखे ,     
आज भी दिखती है गौरैया  ,
गली  वाले घर के आँगन में ,
क्योंकि वह है आँगन की चिड़िया   ........
              --------   मंजु सिन्हा
  

Sunday, April 29, 2018

हुआ शहर में जब से ठाँव ,

हुआ शहर में जब से ठाँव ,
छूट गया मेरा अपना गाँव।
गाँव क्या छूटा , छूटे सब ,
छूट गए सब अपने मीत।

हरे धान की मीठी खुशबू  ,
गेहूँ की बाली के गीत ,
जाने कहाँ मिलेंगे मुझको   ,
बचपन के वो अपने मीत।

वो निश्छल मुस्कान अधर के ,
साथ कह- कहे हम छोरों के ,
बैठ आम्र के बौर के नीचे ,
सुनते थे जब पिक संगीत।

भरी दोपहरी लेकर गगरी  ,
पनघट पर जब आती गोरी ,
तपते गर्मी के दिन में भी  ,
दिल में छा जाता था शीत।

चंचल चितवन  की कोरों से  ,
प्यार का बुनती ताना - बाना ,
भले हार जाता था दिल यह ,
हार में भी होती थी जीत।

पीपल के पत्तों  की सर - सर ,
भरे तपिश में बरगद छाँव  ,
बीता जहाँ किशोरापन था ,
शैशवपन के अपने रीत।

पुरबैया की गन्ध सुहानी ,
याद बाहत आता वह गाँव।
 भादो में कीचड़ में  सन  कर ,
धान रोपते गाते गीत।

हुआ  शहर में जब से ठाँव ,
छूट गया मेरा अपना गॉंव ,
छूटे सब संगी और साथी ,
छूट गए सब अपने मीत। 
 ब्लॉग तिथि -अप्रैल -2018

Thursday, March 15, 2018

सात मुक्तक

थीर जल के झील में ना फेंक कोई कंकरी ,
चंचला हो जायेगी जल में छिपी जल की परी।

बात छोटी है , मगर ,हल्के में लेना तुम नहीं ,
एक चिंगारी से ही जल सकती है पूरी मही।

ओ दीवानों प्रेम के ,  तुम होश में रहना जरा ,
प्यार के दुश्मन बहुत हैं , पढ़ रहे चेहरा तेरा। 

हर ख़ुशी , हर दर्द में , आंसू  छलकते  आँख से ,
प्यार की हर बात होती , आँख की है आँख से।

मन की लहर पर , याद की कश्ती न रखना तुम कभी ,
जाने कब लहरें बहा ले जायेंगी  मझधार में।

डूब जाने को समंदर की जरूरत है नहीं  ,
हमने देखा है , किनारे पर सफ़ीना डूबते।

तुम चले जाओ कहीं भी , याद रखनी बात यह ,
टूट कर पत्ता नहीं जुड़ता कभी भी शाख से।

Monday, March 12, 2018

अपनों से मिलने को

अपनों से मिलने को जब इस दिल को होता है  ,
कितना आकुल , कितना व्याकुल दिल यह होता है।

सर - सर चलती हवा पहुँचती , कभी फूल के पास ,
कभी चूमती है पर्वत को और कभी आकाश।

चीड़ - चिनार  व देवदार भी उसे बुलाता है ,
अपनों से मिलने को जब इस दिल को होता है।

नहीं समय की पाबंदी है , ना कोई बंधन ,
जब मन  करता , उड़ चलता , फिरता नंदन - कानन।

आज मनुज की बातों में अपनापन खोता है ,
अपनों से मिलने को जब इस दिल को होता है।

हम भी हवा सा बन जायें  और चूमे नित आकाश ,
हो ऐसा दिल सबका , जिसमें प्यार बरसता है।



तुम याद बहुत आती हो

अंतस की पीड़ा जब घुलने लगती मन में ,
तुम याद बहुत आती हो।
जब वसंत की थापों पर सरसों लहराता ,
तुम याद बहुत आती हो।
जब - जब बादल घिरने लगता नीले नभ में ,
तुम याद बहुत आती हो।
जब घेर लेता तनहाई मुझको साँझ ढले ,
तुम याद बहुत आती हो।
जब - जब बजती दूर कहीं भी शहनाई है ,
तुम याद बहुत आती हो।
जब - जब मेरी आँखों में तिरते हैं सपने ,
तुम याद बहुत आती हो

Tuesday, February 13, 2018

पहाड़ की लड़की

पहाड़ की लड़की ,
होती है
एक सम्पूर्ण कविता ,
इसमें निहित है ,
छंद - ताल ,
लय और सुर ,
गीत और संगीत  ......

जब कभी ,
किसी पहाड़ी सोते से ,
भर कर पानी
ताँबे की गगरी में ,
और फिर
रख कर कमर पर ,
चलती है लड़की
पहाड की ऊँची - नीची ,
चढ़ती - उतरती
पगडंडियों पर ,
मन्दाकिनी की
धार सी पवित्र ,
चंचल  - छल - छल करती ,
अपनी धुन में चलती ,
सारा वातावरण
झंकृत हो उठता है ,
बज उठता है संगीत ,
फूट पड़ते हैं झरने ,
खिल उठता है बुरांस ,
बुरांस का फूल है लड़की ,
अनुपम , अद्भुत ,अद्वीतीय ,
अप्रतिम सौंदर्य लिए
प्रकृति का वरदान ,
ईश की सृष्टि
होती है लड़की ,
रचती है पूरा संसार ,
धरा और आकाश ,
पर्वत , सागर और नदियाँ ,
करती है जीवन का विकास,
चाहती है सम्मान ,
अन्यथा  ,
विनाश ही विनाश   .........

( नोट  : - प्रकाशित  )

आओ आज गले हम मिल लें

आओ आज गले हम मिल लें ,
कुछ तुम रो लो , कुछ हम रो लें ,
आँखों से आँसू छलका लें  ,
दिल के जख्मों को सहला लें ।

मौसम का है आना जाना ,
जीवन का भी आना जाना ,
भूली बिसरी यादों को हम ,
मिल बैठ कर फिर महका  लें।

कभी पतझड़ है , कभी वसंत है ,
जीवन भी तो इक वसंत है ,
इस वसंत को जी भर जी लें ,
तुम्हे हँसा लें , खुद भी हँस लें।

मानो तो मदिरा है जीवन ,
न मानो तो एक गरल है ,
मदिरा और गरल हम पी लें ,
आओ इस क्षण को हम जी लें।
आओ आज गले हम   .........

Monday, February 12, 2018

गीत ( गव्य )

आ जा खुली हैं कब से ये बाहें ,
दिल मेरा तुझको पुकारे।    

कितना हँसी आज का है ये मौसम ,
मौसम करे क्या इशारे ,
हर ओर कलियों की है मुस्कराहट ,
हँसती हुई ये बहारें।
आ जा   .........

हवाओं की बाहों पर बादल घनेरे ,
बरसाए रिमझिम फुहारें ,
कलियों की अधरों पर भँवरों की नजरें ,
मस्ती भरे ये नज़ारे।
आ जा  .......

सतरंगी किरणों ने धनुषी छटाएँ
अँगना गगन के पसारे ,
तुम हो कहाँ आ भी जाओ ओ साजन ,
पलकों ने पथ हैं बुहारें।
आ जा  ......

Sunday, February 4, 2018

" आग "

रोटी पकाने के लिए ,
आग की जरूरत होती है ,
रोटी ,  वह चाहे पेट के लिए हो
या , राजनीतिक लिप्सा के लिए ,
या फिर ,
कुर्सी के लिए ही।

आग जलाने के लिए ,
समिधा की जरूरत होती है ,
समिधा चाहे  " धर्म " की हो
अथवा , " जाति  " की हो ,
या फिर ,
" आरक्षण " की ही
आग तो आग है ,
वह कभी फर्क नहीं करती ,
" अमीर " और " गरीब " की ,
" बच्चे " और " बूढ़े " की ,
" मर्द " और " औरत " की ,
" अभिजात " और  " अनअभिजात " की ,
कोई भी जले ,
" युवा " जलें तो जलें ,
" प्रतिभा " जलती है तो जले ,
" देश " जलता है तो जले ,
रोटी अपनी सिंकनी चाहिए  ।

कब छुटकारा पायेंगे हम
इस ओछी मानसिकता से  ?
यह देश हमारा है ,
ये युवा हमारे हैं ,
ये  " बच्चे " ये  " बूढ़े "
ये हमारी  " बहनें " और  " माएं "
हमारी ताकत  हैं  ,
हमारी धरोहर हैं।
क्या हम इतने कमजोर हैं
कि ,
अपनी अमानत की ,
स्वयं , रक्षा  नहीं कर सकते  ?
या फिर , हम अविवेकी हैं  ?
हमारी कमजोरियों और अविवेकीपन को
भाँप कर ही ,
शत्रु बलवान होते हैं  ।
तो , आओ ,
हम अपने सीने में आग  जलायें  ,
और ,
अपने अन्दर और बाहर के
शत्रुओं का नाश करें ,
अपने मन की  " सरहदों "को
अपने  देश की "  सरहदों  "  को
सुरक्षित करें ,
और ,
गर्व से  कहें  -
हम महान हैं ,
यह हमारा देश महान है ,
यह  " भारत " है , 
यह हमारा भारत है। 
 
ब्लॉग तिथि - 04 - 02 - 2018


( नोट : - प्रकाशित )


Tuesday, January 16, 2018

इसीलिये वह जली

जाने कितनी पीड़ा
रही होगी उसके मन में  ,
जब ही मन के साथ
स्वयं अपने ही तन में
उसने आग लगाई होगी  ,
हाँ , अवश्य ही
तपन आग से भी ज्यादा
उसके अपने मन की होगी ,
इसीलिए वह जली
नहीं चीखी  - चिल्लाई  ......

अन्तर्मन  की पीड़ा  में  जब
पल -पल वह  घुलती  होगी ,
अति  विवश  हो  कर  ही  उसने
जग  से  कूच  किया  होगा ,
जाने  कितने  दर्द  रहे  होंगे
उसके  हृतस्थल  में  ,
जब  कण्ठहार  रस्सी  का , वह
ग्रीवा  में  डाल  रही  होगी ,
नहीं  चीख -चिल्लाहट  थी ,
पीड़ा  थी  इतनी  दुःखदायी।
इसीलिये  वह  जली
नहीं  चीखी  चिल्लाई  .......

स्तब्ध  दिशायें  हुईं
हुई  तार -तार  जब अस्मत ,
तुला  न्याय  की  भी  टूटी
जब  हुआ  न्याय  असंगत ,
पीड़ित  को  ही  दोषी  मान ,
दण्डित  वह  करता  है ,
और  ,
भेड़िए  लेते  हैं  जग  में
खुले  आम  अंगड़ाई ,
इसीलिए  वह  जली
नहीं  चीखी  चिल्लाई   .....

         --- ( प्रकाशित )