Sunday, April 29, 2018

हुआ शहर में जब से ठाँव ,

हुआ शहर में जब से ठाँव ,
छूट गया मेरा अपना गाँव।
गाँव क्या छूटा , छूटे सब ,
छूट गए सब अपने मीत।

हरे धान की मीठी खुशबू  ,
गेहूँ की बाली के गीत ,
जाने कहाँ मिलेंगे मुझको   ,
बचपन के वो अपने मीत।

वो निश्छल मुस्कान अधर के ,
साथ कह- कहे हम छोरों के ,
बैठ आम्र के बौर के नीचे ,
सुनते थे जब पिक संगीत।

भरी दोपहरी लेकर गगरी  ,
पनघट पर जब आती गोरी ,
तपते गर्मी के दिन में भी  ,
दिल में छा जाता था शीत।

चंचल चितवन  की कोरों से  ,
प्यार का बुनती ताना - बाना ,
भले हार जाता था दिल यह ,
हार में भी होती थी जीत।

पीपल के पत्तों  की सर - सर ,
भरे तपिश में बरगद छाँव  ,
बीता जहाँ किशोरापन था ,
शैशवपन के अपने रीत।

पुरबैया की गन्ध सुहानी ,
याद बाहत आता वह गाँव।
 भादो में कीचड़ में  सन  कर ,
धान रोपते गाते गीत।

हुआ  शहर में जब से ठाँव ,
छूट गया मेरा अपना गॉंव ,
छूटे सब संगी और साथी ,
छूट गए सब अपने मीत। 
 ब्लॉग तिथि -अप्रैल -2018

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