हुआ शहर में जब से ठाँव ,
छूट गया मेरा अपना गाँव।
गाँव क्या छूटा , छूटे सब ,
छूट गए सब अपने मीत।
हरे धान की मीठी खुशबू ,
गेहूँ की बाली के गीत ,
जाने कहाँ मिलेंगे मुझको ,
बचपन के वो अपने मीत।
वो निश्छल मुस्कान अधर के ,
साथ कह- कहे हम छोरों के ,
बैठ आम्र के बौर के नीचे ,
सुनते थे जब पिक संगीत।
भरी दोपहरी लेकर गगरी ,
पनघट पर जब आती गोरी ,
तपते गर्मी के दिन में भी ,
दिल में छा जाता था शीत।
चंचल चितवन की कोरों से ,
प्यार का बुनती ताना - बाना ,
भले हार जाता था दिल यह ,
हार में भी होती थी जीत।
पीपल के पत्तों की सर - सर ,
भरे तपिश में बरगद छाँव ,
बीता जहाँ किशोरापन था ,
शैशवपन के अपने रीत।
पुरबैया की गन्ध सुहानी ,
याद बाहत आता वह गाँव।
भादो में कीचड़ में सन कर ,
धान रोपते गाते गीत।
हुआ शहर में जब से ठाँव ,
छूट गया मेरा अपना गॉंव ,
छूट गया मेरा अपना गाँव।
गाँव क्या छूटा , छूटे सब ,
छूट गए सब अपने मीत।
हरे धान की मीठी खुशबू ,
गेहूँ की बाली के गीत ,
जाने कहाँ मिलेंगे मुझको ,
बचपन के वो अपने मीत।
वो निश्छल मुस्कान अधर के ,
साथ कह- कहे हम छोरों के ,
बैठ आम्र के बौर के नीचे ,
सुनते थे जब पिक संगीत।
भरी दोपहरी लेकर गगरी ,
पनघट पर जब आती गोरी ,
तपते गर्मी के दिन में भी ,
दिल में छा जाता था शीत।
चंचल चितवन की कोरों से ,
प्यार का बुनती ताना - बाना ,
भले हार जाता था दिल यह ,
हार में भी होती थी जीत।
पीपल के पत्तों की सर - सर ,
भरे तपिश में बरगद छाँव ,
बीता जहाँ किशोरापन था ,
शैशवपन के अपने रीत।
पुरबैया की गन्ध सुहानी ,
याद बाहत आता वह गाँव।
भादो में कीचड़ में सन कर ,
धान रोपते गाते गीत।
हुआ शहर में जब से ठाँव ,
छूट गया मेरा अपना गॉंव ,
छूटे सब संगी और साथी ,
छूट गए सब अपने मीत।
ब्लॉग तिथि -अप्रैल -2018
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