ताज है मुमताज़ का साज ,
ताज है शाहजहाँ का नाज ,
ताज में शाहजहाँ का प्यार ,
अमर यह प्यार का उपहार ।
ताज में जीवित है मुमताज ,
ताज में जीवित शाहजहाँ ,
ताज के पत्थर में है प्राण ,
ताज दो प्राणों का है प्राण ।
बाहें हैं इसके खम्भे चार ,
दो बदन मिले , हो एकाकार ,
है अनुपम यह कृति प्यार की ,
प्यार हुआ सचमुच साकार ।
प्यार के जल से वर्षों सींच ,
रखा है जनमानस के बीच ,
रूक कर दुहरा लो इतिहास ,
प्यार की ऐसी होती प्यास ,
न बुझती पीने से एक घूँट ,
प्यार का बंधन बहुत अटूट ।
शरद के नभ का पूरा चाँद ,
उतर जब आता छूने ताज ,
उर्वसी को भी आती लाज ,
देवगण जलने लगते आज ।
अलौकिक किसका है यह रूप ,
अलौकिक किसकी यह पहचान ,
कौन मलिका सोई है आज ,
ताज के नीचे सब कुछ भूल ।
* * * *
पास यमुना की चंचल धार ,
वक्र सी चलती जिसकी चाल ,
सुरा पा लेने को व्याकुल ,
छोड़ कर बढ़ आती तट - मूल ।
उफनाती हुई यमुना धार ,
है करती नागिन सी फुफकार ,
बहूंगी सतत तुम्हारे कूल ,
खोखला कर दूँगी तेरा मूल ,
जहाँ पर इठलाता है आज ,
वहाँ पर उड़वा दूँगी धूल ।
* * * *
अरुण के किरणों के ही संग ,
शाख पर मुसकातीं कलियाँ ,
पवन निज अंक पाश में बाँध ,
झुलाता रहता है पल - पल ।
रवि जब जाता नभ को छोड़ ,
शाख से कलि को तोड़ - मरोड़ ,
गिरा देता चुपके से हाय ,
धरा पर रौंदी जाती है हाय ।
कौन सुनता उसका क्रंदन ,
कौन सुनता है उसकी हाय ,
समय तो जाता सब कुछ भूल ,
समय जाएगा तुझको भूल ।
( 23 - 3 - 68 की रचना )
ताज है शाहजहाँ का नाज ,
ताज में शाहजहाँ का प्यार ,
अमर यह प्यार का उपहार ।
ताज में जीवित है मुमताज ,
ताज में जीवित शाहजहाँ ,
ताज के पत्थर में है प्राण ,
ताज दो प्राणों का है प्राण ।
बाहें हैं इसके खम्भे चार ,
दो बदन मिले , हो एकाकार ,
है अनुपम यह कृति प्यार की ,
प्यार हुआ सचमुच साकार ।
प्यार के जल से वर्षों सींच ,
रखा है जनमानस के बीच ,
रूक कर दुहरा लो इतिहास ,
प्यार की ऐसी होती प्यास ,
न बुझती पीने से एक घूँट ,
प्यार का बंधन बहुत अटूट ।
शरद के नभ का पूरा चाँद ,
उतर जब आता छूने ताज ,
उर्वसी को भी आती लाज ,
देवगण जलने लगते आज ।
अलौकिक किसका है यह रूप ,
अलौकिक किसकी यह पहचान ,
कौन मलिका सोई है आज ,
ताज के नीचे सब कुछ भूल ।
* * * *
पास यमुना की चंचल धार ,
वक्र सी चलती जिसकी चाल ,
सुरा पा लेने को व्याकुल ,
छोड़ कर बढ़ आती तट - मूल ।
उफनाती हुई यमुना धार ,
है करती नागिन सी फुफकार ,
बहूंगी सतत तुम्हारे कूल ,
खोखला कर दूँगी तेरा मूल ,
जहाँ पर इठलाता है आज ,
वहाँ पर उड़वा दूँगी धूल ।
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अरुण के किरणों के ही संग ,
शाख पर मुसकातीं कलियाँ ,
पवन निज अंक पाश में बाँध ,
झुलाता रहता है पल - पल ।
रवि जब जाता नभ को छोड़ ,
शाख से कलि को तोड़ - मरोड़ ,
गिरा देता चुपके से हाय ,
धरा पर रौंदी जाती है हाय ।
कौन सुनता उसका क्रंदन ,
कौन सुनता है उसकी हाय ,
समय तो जाता सब कुछ भूल ,
समय जाएगा तुझको भूल ।
( 23 - 3 - 68 की रचना )
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