जाने क्यों जग मुझ से रूठा ही रहता ,
जाने क्यों मुझसे कोई प्यार नहीं करता ।
कलि गुलाब की नहीं , मैं बेनी में गुँथ जाऊं ,
चम्पा या चमेली बेली , गजरों में बिंध जाऊं ।
है सुगंध भी नहीं , किसी करतल पर बिछ जाऊं ,
ना ही ऐसे अधर , सुघर अधरों से लग जाऊं ।
मैं बबूल का फूल सदा काँटे रहा चुभाता ,
संभव है कि इसी वजह से जग मुझसे कतराता ।
इस जग के हर फूलों को , हमने देखा हँसते ,
अपनी ही आँखों में मैंने देखा आँसू तरते
फिर जन्म न हो धरती पर , ईश दया तुम करना ,
जीवन ही देना हो तो , काँटे तुम ना देना ।
देवों के सिर चढूं , और गजरों में बिंध जाऊं ,
या नन्हे कोमल हथेलियों पर चढ़ कर मुस्काऊं ।
काँटे ही देना हो तो , यूँ ही फेंक न देना ,
अरि आयें जिस ओर , वहीं , मुझको बिखरा देना ।
जहाँ देश की रक्षा हित , नौजवान लड़ते हों ,
माँ के दूध की रक्षा हित , जीवन अर्पित करते हों ,
जहाँ गोलियां चलती हों , तोप गरजते हों पल - पल ,
ओढ़ धूल का कफ़न , वहीँ , मुझको सो जाने देना ।
( 1966 की रचना )
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