Monday, June 8, 2015

एक थी अरुणा

एक थी अरुणा ,
उम्र भर झेलती रही ,
एक गुनहगार के गुनाह का  दंश।
न वो मर सकी ,
न वो जी सकी ;
जीवन भर का संताप दे ,
गुनहगार मौज करता रहा
शाशन की अकर्मण्यता पर।
उसने मौत माँगी ,
मौत न मिली ,
सजा मिली ,
उम्र भर दंश झेलने का  .... 
कौन देगा हिसाब
उसके टूटे सपनों का ?
उसके मन और तन पर
रेंगते , बिलबिलाते
असंख्य कीड़ों का ?
क़ानून के हाथ बँधे हैं ,
न्याय की तराजू में पासंग है।
उठो स्वयं खड़े हो ,
स्वयं ही लड़ना होगा ,
करना होगा हिसाब बराबर
इन आततायियों से  .......
                     
( श्रद्धांजलि कविता -  A tribute to Aruna shanbaug )
                                               

No comments:

Post a Comment