धरा क्या , आकाश क्या , पाताल को भी लाँघ लूँ ,
हूँ शिवा मैं हिन्द का , मैं काल को भी बाँध लूँ।
सिंधु की मैं गर्जना हूँ , अनल दावानल का हूँ ,
नागवन के व्याल भी उंगलियों पर साध लूँ।
दशों दिशाएँ थर्राती , हुँकार भरता जब कभी ,
इस गगन से उस गगन तक , शत्रु को मैं नाध लूँ।
हैं नहीं हम पालते निज , शत्रुता बेकार की ,
पर नहीं ललकार को सुन मौनता को साध लूँ।
कृष्ण की है देवभूमि , हैं कुचलते नाग को ,
फैलते फण विषधरों के बाँसुरी से नाथ लूँ।
हम नहीं रणक्षेत्र में हैं पीठ दिखलाते कभी ,
मातृभूमि की चरण में शीश भी मैं वार दूँ।
है विजय के गीत का परचम हमारे हाथ में ,
मैं तिरंगे को सदा ही अपने काँधे काँध लूँ।
------ - ( प्रकाशित )
हूँ शिवा मैं हिन्द का , मैं काल को भी बाँध लूँ।
सिंधु की मैं गर्जना हूँ , अनल दावानल का हूँ ,
नागवन के व्याल भी उंगलियों पर साध लूँ।
दशों दिशाएँ थर्राती , हुँकार भरता जब कभी ,
इस गगन से उस गगन तक , शत्रु को मैं नाध लूँ।
हैं नहीं हम पालते निज , शत्रुता बेकार की ,
पर नहीं ललकार को सुन मौनता को साध लूँ।
कृष्ण की है देवभूमि , हैं कुचलते नाग को ,
फैलते फण विषधरों के बाँसुरी से नाथ लूँ।
हम नहीं रणक्षेत्र में हैं पीठ दिखलाते कभी ,
मातृभूमि की चरण में शीश भी मैं वार दूँ।
है विजय के गीत का परचम हमारे हाथ में ,
मैं तिरंगे को सदा ही अपने काँधे काँध लूँ।
------ - ( प्रकाशित )
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